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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र ओंके मिषसे चारों तरफ से पत्रालम्बन की लीला का विस्तार करती थीं। उस नगरी के किले पर माणिक के कंगूरों की पंक्तियाँ थीं. जो विद्याधरों की सुन्दरियोंको बिना यत्नके दर्पण या आईने का काम देती थीं। उस नगरीमें, घरोंके सामने, मोतियों के साथिये पुराये हुए थे, इसलिये उनके मोतियों से बालिकायें इच्छानुसार पाँचीका खेल खेलती थीं। उस नगरी के बा. गोचों से रात-दिन भिड़ने वाले खेचरियों के विमान क्षणमात्र पक्षियों के घोसलों की शोभा देते थे। वहाँ की अटारियों और हवेलियों में पड़े हुए रत्नोंके ढेरों को देखकर, रत्न-शिखर वाले रोहणाचल का ख़याल होता था। वहाँ की गृह-वापिकायें, जलक्रीड़ामें आसक्त सुन्दरियों के मोतियोंके हार टूट जानेसे, ताम्रपर्णी नदी की शोभाको धारण करती थीं। वहाँके अमीर और धनियों में से किसी एक भी व्यापारी के पुत्र को देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया यक्षाधिपति-कुबेर स्वयं व्यवसाय या तिजारत करने आये हों। वहाँ रातमें चन्द्रकान्त मणिकी दीवारों से झरनेवाले पानीसे राहकी धूल साफ होती थी। वह नगरी अमृत-समान जल वाले लाखों कूए, बावड़ी और तालाबों से नवीन अमृत कुण्ड वाले नाग लोकके समान शोभा देती थी।
राज्य प्रवन्ध जन्मसे बीसलक्ष पूर्व व्यतीत हुए, तबच प्रजा पालनार्थ साना हुए। मन्त्रोंमें ओंकारके समान, सबसे पहले राजा"ऋषभ जिन