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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
नहीं करते । पर्वत की तरह, हवासे उड़ाई हुई मस्तक को तपा देने वाली
राह की धूलसे धूपको मस्तक
आलिङ्गन होता है । पर सहन करते हैं। कभी सोते नहीं तो भी थकते नहीं और श्रेष्ठ हाथी की तरह उन्हें सरदी और गरमीसे तकलीफ नहीं होती । ये भूखको कोई चीज़ समझते ही नहीं; प्यास क्या होती है, इसे जानते भी नहीं, और वैरवाले क्षत्रिय की तरह नींद लेते नहीं; यद्यपि अपन लोग उनके अनुचर हुए हैं, तथापि अपन लोग अपराधी हों, इस तरह वे अपनी ओर देखकर भी अपनको सन्तुष्ट नहीं करते - फिर वोलने का तो कहना ही क्या ? इन प्रभुने अपने स्त्री पुत्र आदि परिग्रह त्याग दिये हैं, तो भी थे अपने दिल में क्या सोचा करते हैं, इस बातको अपन नहीं जानते। इस तरह विचार करके वे सब तपस्वी अपनी मण्डली के अगुआ - स्वामी के पास सेवक की तरह रहने वाले - कच्छ और महा कख्छ से कहने लगे“कहाँ ये भूखको जीतने वाले प्रभु और कहाँ धूपको सहनेवाले प्रभु और कहाँ छायके मकड़े जेसे अपन ? अपन अन्नके कीड़े ? कहाँ ये प्यास को जीतनेवाले प्रभु और कहाँ जलके मेंढक समान अपन ? कहाँ शीतसे पराभव न पाने वाले प्रभु और कहाँ अपन बन्दर के समान काँपने वाले ? कहाँ निद्रा को जीतने वाले प्रभु और कहाँ अपन नींदके अजगर ? कहाँ रोज ही न बैठने बाले प्रभु और कहाँ आसनमें पंगुके समान अपन ? समुद्र लाँघने में कव्वे जिस तरह गरुड़का लनुसरण करते है; उसी स्वामीने, व्रत धारण किया है उसके पीखे पोछे चलना या उनकी नकल करना अपन लोगोंने