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आदिनाथ चरित्र २५६
प्रथम पर्व से दूर देशको गये थे। वहाँसे लौटते हुए उन्होंने अपने पिताको वनमें देखा। उनको देखकर वे विचार करने लगे- वृषभनाथ जैसे नाथके होने पर भी, हमारे पिता अनाथकी तरह इस दशाको क्यों प्राप्त हुए। कहाँ उनके पहनने योग्य महीन वस्त्र और कहाँ भीलोंके पहनने योग्य बल्कल-वस्त्र ? कहाँ शरीरपर लगाने योग्य उब्टन और कहाँ पशुओंके लोट मारने योग्य जमीनकी धूल मिट्टी ? कहाँ फूलोंसे गुथा हुआ केशपाश और कहाँ बटवृक्ष सदश लम्बी जटायें, ? कहाँ हाथीकी सवारी और कहाँ प्यादेकी तरह पैदल चलना ? इस प्रकार विचार करके उन्होंने अपने पिताको प्रणाम किया और सब हाल पूछा। तब कच्छ और महाकच्छने कहा-"भगवान् ऋषभवज ने राजपाट त्याग, भरत प्रभृति को पृथ्वी बाँट, वृत ग्रहण किया है। जिसतरह हाथी ईख को खाता है, उसी तरह हमने साहससे उन के साथ व्रत ग्रहण किया था; परन्तु भूख, प्यास, शीत और घाम प्रभृतिके क्लेशोंसे दुखी होकर, जिस तरह गधे और खच्चर अपने ऊपर लदे हुए भार को पटक देते हैं उसी तरह हमने व्रतको भंग कर दिया है। हम लोग प्रभुका सा बर्ताव कर नहीं सके और उधर ग्रहस्थाश्रम भी अंगीकार नहीं किया, इससे तपोवन में रहते हैं। ये बातें सुनकर उन्होंने कहा--"हम प्रभुके पास जाकर पृथ्वी का भाग मांगे।" यह बात कहकर नमि और विनमि प्रभु के चरण-कमलोंके पास आये। प्रभु निःसंग हैं। इस बात को वे न जानते थे, अतः उन्होंने कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित प्रभु को