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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
तुमको यह पृथ्विी दी है। जिन्हों ने समस्त सावद्य वस्तुओं का परिहार करके, अष्ट कर्म रुपी महापङ्क-गहरी कीचड़को सुखानेके लिये, गरमी के मौसमको जलतो हुई धूपके जैसे तप को स्वीकार किया है, घोर तपश्चर्या करना मंजूर किया है वे ही ऋषभ देव प्रभु निस्सङ्ग, ममता रहित और निराहार अपने पाद सञ्चार से पृथ्विी को पवित्र करते हुए विचरते हैं। वे सूरज की घामसे दुखी नहीं होते और छायासे सुखो नहीं होते, किन्तु पहाड़ की तरह धूप और छायाको बराबर समझते हैं। वज्रशरीरी की तरह, उन्हें शीतसे विरक्ति और उष्णता-गरमीसे आसक्ति नहीं होती, उन्हें शरदी बुरी और गरमी अच्छी नहीं लगती; चे सरदी
और गरमी को समान समझते हैं ; जहाँ जगह मिलती है वहाँ पड़ रहते हैं। ससार रूपी कुञ्जर में केसरी सिंहकी तरह वे युगमात्र दृष्टि करते हुए, एक चींटी को भी तकलीफ न हो—इस तरह ज़मीन पर कदम रखते हैं। प्रत्यक्ष निर्देश करने योग्य, त्रिलोकी के नाथ आपके प्रपितामह हैं । वे भाग्य योग्य से ही यहां आये हैं। जिस तरह ग्वालिये के पीछे गायें दौड़ती हैं, उसी तरह नगरके लोग प्रभुके पीछे दौड़ रहे हैं । ये उन्हींका मधूर कोलाहल है।” जिनीश्वर के नगरमें आने की खवर पाते ही, युवराज प्यादों का उल्लङ्घन कर, तत्काल दौड़ा। युवराज को बिना छाते और जूतों के दौड़ते देख, उसकी सभाके लोग भी जूते ओर छाते छोड़कर, छाया की तरह, उसके पीछे दौड़े। उस समय युवराज के कुण्डल हिलते थे, उनके देखने से ऐसा मालूम होता था, गोया वह स्वामी के सामने