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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र मागधतीर्थ पर भरतचक्री का आना। वहाँ एक दिन रात बिताकर-२४ घण्टे ठहर कर-सवेरे ही कूच किया गया। उस दिन भी एक योजन चार कोस चलने वाले चक्र के पीछे चक्रवर्ती भी उतनाही चले। इस तरह सदा चार कोस रोज चलने वाले चक्रवर्ती महाराज मागध तीर्थ में आ पहुँचे। वहाँ पूर्व समुद्र के किनारे महाराज ने ३६ कोसकी चौड़ाई और ४८ की लम्बाई में सेनाका पड़ाव किया; यानी वह सेना १७२८ कोस या ३४५६ बर्गमील भूमिमें ठहरी। वर्द्धकिरन ने वहाँ सारी सेना के लिये आवास-स्थान बनाये। और धर्म रूपी हाथी की शालारूप पौषधशाला भी बनाई। जिस तरह सिंह पर्वत से उतरता है ; उसी तरह महाराजा भरत उस पौषध शालामें अनुष्ठान करने की इच्छा से हाथी से उतरे। संयम रूपी साम्राज्य लक्ष्मी के सिंहासन-जैसा दूबका नूतन संथारा भी चक्रवत्ती ने वहाँ बिछाया। हृदय में मागध तीर्थ कुमार देवको धारण करके, अर्थसिद्धि का आदि द्वार रूप अष्टमभक्त, यानी अठुमका तप किया। पीछे निर्मल बस्त्र पहन, फूलों की माला और विलेपन को त्याग कर, शस्त्र को छोड़कर, पुण्यको पोषण करने के लिये, औषध के समान पौषधव्रत ग्रहण किया। अव्यय पद में जिस तरह सिद्धि निवास करती है, उसी तरह उस दूबके संथारे पर पौषधव्रती महाराज ने जागते हुए पर क्रिया रहित हो कर निवास किया। शरद् ऋतु के मेघोंमें जिस तरह सूर्य निकलता