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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व महर्षियों से घिरे हुए प्रभु यहाँ से अन्यत्र विहार कर गये; अर्थात् किसी दूसरी जगह चले गये। उस समय जब प्रभु राह में चलते थे, भक्ति से वृक्ष नमते थे-झुकते थे, काँटे नीचा मुख करते थे और पक्षी परिक्रमा देते थे। विहार करने वाले प्रभुको ऋतु, इन्द्रियार्थ और वायु अनुकूल होते थे। उनके पास कम-से कम एक कोटि देव रहते थे। मानो भवान्तर-जन्मान्तर में उत्पन्न हुए कर्मों को नाश करते देख, डर गये हों, इस तरह जगदीशके बाल, डाढ़ी, नाखुन नहीं बढ़ते थे। प्रभु जहाँ जाते थे, वहाँ वैर, महामरी, मरी, अकाल-दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, स्वचक्र और परचक्र से होनेवाला भय-ये नहीं उत्पन्न होते थे। इस प्रकार जगत् को विस्मित करने वाले अतिशयों से युक्त, संसार में भ्रमण करनेवाले जीवों पर अनुग्रह करने की बुद्धिवाले नाभेय-नाभिनन्दन भगवान् पृथ्वी पर वायुकी तरह बेरोक टोकके-बेखटके हो कर विहार करने लगे।
- तीसरा सर्ग समाप्त। ।