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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
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___ अब अपने बड़े बड़े विमानोंसे पृथ्वीतलको एक छायावाला करते हुए चारों प्रकार के देवता आकाशमें आने लगे। उनमेंसे कितने ही उत्तम देवता मद चूने वाले हाथियों को लेकर आये थे। इससे वे आकाश को मेघाच्छन्न करते हुए से मालूम होते थे। कितने ही देवता आकाश रूपी महासागरमें नौका रूपी घोड़ों पर चढ़ कर, चाबुक रूपी नौका के दण्डे सहित, जगदीश को देखने के लिये आये थे। कितनेही देवता मूर्त्तिमान पवन ही हो इस तरह अतीव वेगवान रथोंमें बेठकर नाभि-कुमार के दर्शनों को आ रहे थे। ऐसा मालूम होता था, मानों वाहनों की क्रीड़ा में उन्होंने परस्पर बाज़ी मारनेकी प्रतिज्ञा की हो । क्योंकि वे आगे निकलने में अपने मित्रों की राह को भी न देखते थे। अपने-अपने गाँवोंमें पहुँचने पर पथिक जिस तरह कहते हैं कि “यह गाँव ! यह गाँव !" और अपनी सवारी को रोक लेते हैं ; उस तरह देवता भी प्रभु को देखतेही यह स्वामी ! यह स्वामी!" कहते हुए अपने-अपने वाहनों को ठहरा लेते थे। विमान रूपी हवेलियों और हाथी, घोड़े एवं रयों से आकाशमें दूसरी विनिता नगरी बसी हुई सी मालूम होती थी। सूर्य और चन्द्रमासे घिरे हुए मानुषोत्तर पर्वत की तरह जिनेश्वर भगवान् अनेक देवताओं और मनुष्योंसे घिरे हुए थे। जिस तरह दोनों ओरसे समुद्र सुशोभित होता है ; उसी तरह वे दोनों सुशोभित थे। जिस तरह हाथियों का झुण्ड अपने यूथपति का अनुसरण करता है, उसी तरह शेष अट्ठावन विनीत पुत्र प्रभु के पीछे-पीछे चल रहे थे। माता मरुदेवा, पत्नी सुनन्दा और सुमगंला