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आदिनाथ-चरित्र १२४
प्रथम पर्व ( चारित्र पद ) है। अहिंसा आदि मूल गुणों में और समित्यादिक उत्तर गुणों में अतिचार-रहित प्रवृत्ति करना,-धारहवाँ स्थानक (ब्रह्मचर्य पद ) है। क्षण-क्षण और लव-लव में प्रमाद का परिहार करके, शुभ ध्यान में प्रवर्तना,-तेरहवाँ स्थानक ( समाधिपद ) है। मन और शरीर को पीड़ा न हो, इस तरह यथाशक्ति तप करना,-चौदहवां स्थानक (तप पद) है । मन, वचन और काया की शुद्धि-पूर्वक तपखियों को अन्नादिक का यथाशक्ति दान देना,-पन्द्रहवाँ स्थानक ( दानपद.) है । आचार्य आदिक यानी जिनेश्वर, सूरि, वाचक, मुनि, बाल मुनि, स्थविरमुनि, ग्लान-मुनि, तपस्वी-मुनि, चैत्य और श्रमणसंघ–इन दशों का अन्न, जल और आसन प्रभृति से वैयावृत्य करना,-सोलहवाँ स्थानक (वैयावच्च पद ) है। चतुर्विध संघ के सष विघ्न दूर करने से मन में समाधि उत्पन्न करना,-सत्रहवाँ स्थानक ( संयम पद) है। अपूर्व सूत्र, अर्थ और उन दोनों को प्रयत्न से ग्रहण करना,—अठारहवाँ स्थानक (अभिनव ज्ञानपद ) है। श्रद्धा से, उद्भासन से और अवर्णवाद का नाश करने से श्रुत ज्ञान की भक्ति करना,-उन्नीसवाँ स्थानक (श्रुत पद) है। विद्या, निर्मित्त, कविता, वाद और धर्म कथा प्रभृति से शासन की प्रभावना करना,-बीसवाँ स्थानक (तीर्थ पद ) है।