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दिनाथ-चरित्र
प्रथम पर्व थी। उनके स्पर्श-सुख के लोभ से मानो स्खलित होता हो. इस तरह, पूर्व-दिशाके मन्द गतिवाले वायुसे वे मालायें जरा-जरा हिलती थीं। उनके अन्दर सञ्चार करनेवाला पवन-श्रवण-सुखद शब्द करता था, यानी हवा के कारण जो आवाज़ निकलती थी, वह कानों को सुखदायी और प्यारी लगती थी। उस शब्द से ऐसा मालूम होता था, गोया वह प्रियभाषी की तरह, इन्द्र के निर्मल यश का गान करता हो। उस सिंहासन के आश्रय से, वायव्य और उत्तर दिशा तथा पूर्व और उत्तर दिशा के बीच में स्वर्गलक्ष्मी के मुकुट-जैसे, चौरासी हज़ार सामानिक देवताओं के चौरासी हज़ार-भद्रासन बने हुए थे। पूर्व में आठ अग्र महिषी यानी इन्द्राणियों के आठ आसन थे। वे सहोदरों के समान एकसे आकार से शोभित थे । दक्खन-पूरब के बीच में अभ्यन्तर सभा. के सभासदों के बारह हज़ार भद्रासन थे। दक्खन में मध्य सभा के सभासद -चौदह हज़ार देवताओं के अनुक्रम से चौदह हज़ार भद्रासन थे। दक्खन-पश्चिम के बीच में, बाहरी सभा के सोलह हज़ार देवताओं के सोलह हज़ार सिंहासनों की पंक्तियाँ थीं । पश्चिम दिशा में, एक दूसरे के प्रतिबिम्ब के समान सात प्रकार की सेना के सेनापति देवताओं के सात आसन थे और मेरु पर्वत के चारों तरफ जिस तरह नक्षत्र शोभते हों, उसीतरह शक्र-सिंहासन के चौतरफा चौरासी हज़ार आत्मरक्षक देवताओं के चौरासी हज़ार आसन सुशोभित थे। इस तरह सारे विमान की रचना करके आभियोगिक देवताओंने इन्द्र