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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र वाले, नाना प्रकारके रत्नोंसे बने हुए तोरण थे। उस विमानके अन्दर चन्द्रबिम्ब, दर्पण-आईना, मृदङ्ग और उत्तम दीपिका के समान चौरस और हमवार ज़मीन शोभा देती थी। उस जमीन पर बिछाई हुई रत्नमय शिलायें, अविरल और घनी किरणों से, दीवारों पर बने हुए चित्रों पर, पर्दो के जैसी शोभायमान लगती थीं ; यानी हीरे पन्ने और माणिक प्रभृति जवाहिरों से जो लगातार गहरी किरणें निकलती थीं : वे दीवारों पर बने हुए चित्रों पर पर्दो के समान सुन्दर मालूम होती थीं। उसके मध्यभाग या बीचमें अप्सराओं जैसी पुतलियों से विभूषित-रत्नखचित एक प्रक्षामण्डप था और उस के अन्दर खिले हुए कमल की कर्णिका के समान सुन्दर माणिक्य की एक पीठिका थी। उस पीठिका की लम्बाई-चौड़ाई बत्तीस माइल थी और उस की मुटाई सोलह योजन थी! वह इन्द्र की लक्ष्मी की शय्या सी मालूम होती थी। उसके ऊपर एक सिंहासन था, जो सारे तेज के सार के पिण्ड से बना हुआ मालूम पड़ता था। उस सिंहासन के ऊपर अपूर्व शोभावाला, विचित्र-विचित्र रत्नों से जड़ा हुआ और अपनी किरणों से आकाश को व्याप्त करनेवाला एक विजय-वस्त्र था। उसके बीच में, हाथी के कान में हो ऐसा एक वज्राश और लक्ष्मी के क्रीड़ा करने के हिंडोले-जैसी कुम्भिक जात के मोतियों की माला शोभा दे रही थी और उस मुक्त दाम के आसपास-गंगा नदी के अन्तर जैसी-उस माला से विस्तार में आधी, अर्द्ध कुम्भिक मोतियों की माला शोभ रही