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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व तिरष्कार करने वाली थीं। मांस से भरे हुऐ गोल घुटने रूईसे भरे हुए गोल तकियेके भीतर डाले हुए दर्पणके रूपको धारण करते थे। मृदु क्रमसे उत्तरोत्तर स्थूल और चिकनी जांघे केलेके खंभके विलासको धारण करती थीं और मस्त-हाथीकी तरह गूढ़ और सम स्थितिवाली थी। क्योंकि घोड़े की तरह कुलीन पुरुष का शरीर चिह्न अतीव गुप्त होता है। उनकी गुह्य इन्द्रिय पर शिरायें नहीं दीखती थीं ; वह न उँचा न नीचा, न ढीला न छोटा और लम्बाही था। उस पर रोम नहीं थे और आकारमें गोल था। उनके कोप या तेपोके भीतर रहने वाला पंजर शीत प्रदक्षिणावर्त्त शल्क धारण करने वाला, अवीभत्स और आवर्साकार था। प्रमुकी कमर विशाल, पुष्ट, स्थूल और अतीव कठोर थी। उनका मध्य भाग सूक्ष्मतामें वज्रके मध्य भाग-जैसा मालूम होता था। उनकी नाभि नदीके भँवर के विलासको धारण करती थी। उसका मध्य भाग सूक्ष्मतामें वज्रके मध्य भागके जैसा था। उनकी नाभिमें नदीके भंवर-जैसे भंवर पड़ते थे और कोखके दोनों भाग निकने, मांसल, कोमल, सरल और समान थे। उनका वक्षस्थल सोनेकी शिलाके समान विशाल, उन्नत, श्रीवत्सरत्र पीठके चिह्नसे युक्त और लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिकाकी शोभाको धारण करता था; अर्थात् उनकी छाती लम्बी-चौड़ी और ऊँची थी । उस पर श्रीवत्सपीठका निशान था और वह लक्ष्मीकी क्रीड़ा करनेकी वेदिका जैसी सुन्दर और रमणीय थी। उनके दोनों कन्धे बैलके कन्धोंकी तरह मजबूत