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प्रथम पर्व
२०७ आदिनाथ-चरित्र कमलों-जैसी जान पड़ती थीं। उनकी काली और बाँकी भौहें दृष्टि रूपी पुष्करणी कतीर पर पैदा हुई लतासी सुन्दर मालूम होती थीं विशाल, मांसल, गोल, कठोर, कोमल और एक समान ललाट अष्टमीके चन्द्रमा जैसा सुन्दर और मनोहर मालूम होता था और मौलिमाग अनुकमसे ऊँचा था, इसलिये नीचे मुख किये हुए छाताकी समता करता था। जगदीश्वरता की सूचना देनेवाला प्रभुके मौलि छत्रपर धारण किया हुआ गोल और उन्नत मुकुट कलशकी शोभाका आश्रय था और घुघरवाले, कोमल, चिकने
और भौंरे जैसे काले मस्तकके ऊपरके बाल यमुना नदीकी तरङ्ग के जैसे सुन्दर मालूम होते थे। प्रभुके शरीर का चमड़ा देखनेसे ऐसा जान पड़ता था, मानो उसपर सुवर्णके रसका लेप किया गया हो । वह गोचन्दन-जैसा गोरा, चिकना और साफ था। कोमल, भौंरे जैसी श्याम, अपूर्व उद्गमवाली और कमलके तन्तु. ओंके जैसी पतली या सूक्ष्म रोमावलि शोभायमान थी। इस तरह रत्नोंसे रत्नाकर-सागर जैसे नाना प्रकारके असाधारण-गैर मामूली लक्षणोंसे युक्त प्रभु किसके सेवा करने योग्य नहीं थे ? अर्थात् सुर, असुर और मनुष्य सबके सेवा करने योग्य थे। इन्द्र उनको हाथका सहारा देता था, यक्ष चँवर ढोरता था, धरणेन्द्र उनके द्वारपालका काम करता था, वरुण छत्र रखता था, 'आयुष्मन भव, चिरजीवो हो' ऐसा कहनेवाले असंख्य देवता उनको चारों तरफसे घेरे रहते थे; तोभी उन्हें ज़रा भी घमण्ड या गर्व न होता था। जगत्पति निरभिमान होकर अपनी मौजमें