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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र स्थान की आराधना होती है ( सिद्ध पद ) । बाल, ग्लान और नव दीक्षित शिष्य प्रभृति यतियों पर अनुग्रह करने से और प्रवचन या चतुर्विध संघ का वात्सल्य करने से तीसरे स्थानक की आराधना होती है (प्रवचन पद )। और बहुमान-पूर्वक आहार, औषध
और कपड़े वगैरः के दान से गुरु का वात्सल्य करना चौथा स्थानक ( आचार्य पद ) है। वीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले पर्यय विर, साठ वर्ष की उम्र वाले ( वय स्थविर ), और समवायांग के धारण करने वाले (श्रुत स्थविर ) की भक्ति करना,---पांचवाँ स्थानक ( स्थविर पद ) है। अर्थ की अपेक्षा में, अपने से बहुश्रुत धारण करने वालों को अन्न-वस्त्रादि के दान वगैरः से वात्सल्य करना—छठा स्थानक ( उपाध्याय पद ) है। उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियों की भक्ति और विश्रामणा से वात्सल्य करना,—सातवाँ स्थानक (साधु पद ) है। प्रश्न और वाचना वगैर: से निरन्तर द्वादशांगी रूप श्रुत का सूत्र, अर्थ और उन दोनों से ज्ञानोपयोग करना, --आठवाँ स्थानक ( ज्ञानपद) है। शंका प्रभृति दोष से रहित, स्थैर्य प्रभृति गुणों से भूषित
और शमादि लक्षण वाला सम्यग्दर्शन–नवाँ स्थानक ( दर्शनपद ) है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार-इन चार प्रकार के कर्मों को दूर करने वाला विनय,-दसवाँ स्थानक (विनय पद ) है । इच्छा मिथ्या करणादिक दशविध समाचारी का योग में और आवश्यक में अतिचार रहित यत्न करना,--ग्यारहवाँ स्थानक