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प्रथम पर्व
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आदिनाथ- चरित्र माफ़िक कोई क्यों न हो ?' मन-ही-मन क्षण भर ऐसे विचार करके, सागरचन्द्र विनययुक्त अतीव नम्र वाणीसे बोला :- “पिताजी ! आप जो आदेश करें, जो हुक्म दें, मुझे वही करना चाहिये क्योंकि मैं आपका पुत्र हूँ । जिसे काम के करनेमें गुरुजनोंकी आज्ञा का उल्लङ्घन हो, उस कामके करनेसे अलग रहना भला; लेकिन अनेक बार, दैवयोग से, अकस्मात् ऐसे काम आ पड़ते हैं, जिनमें विचार करनेके लिये, थोड़े से समय की भी गुञ्जाइश नहीं होती; अर्थात् विचार करने के लिऐ समय मिलना कठिन हो जाता है। जिस तरह किसी-किसी मूर्खके पाँव पवित्र करने में पर्व- वेला निकल जाती है, उसी तरह कितने ही कामोंका समय विचार में पड़ने से निकल जाता है । मनुष्य विचारोंमें लगता है और समय निकल जाने से काम बिगड़ जाता है - भयङ्कर हानि हो जाती है। ऐसे प्राण- सङ्कट- काल में भी, प्राणोंके संशयका समय आनेपर भी, जान जोखिमका मौका आ जानेपर भी, पिताजी ! अबसे मैं ऐसा काम करूँगा, जिससे आपको शर्मिन्दा होनान पड़े- आपको लज्जासे सिर नीचा न करना पड़े। आपने अशोकदत्तके सम्बन्ध में जो बातें कही हैं, उनके सम्बन्ध में मेरी यह प्रार्थना है कि, न तो मैं उसके दोषोंसे दूषित ही हूँ और न उसके गुणोंसे भूषित ही हूँ। मैं उसके गुण-दोषोंसे सर्वथा अलग हूँ। रात-दिन साथ रहने, बचपन से एक संग खेलने, बारम्बार मिलने, सजातीय या समान जातीय हो एक विद्या पढ़ने, समान शील और उम्र में बराबर होने एवं परोक्षमें या नामौजूदगी में उपकार करने एवं सुख-दुःखमें भाग लेने प्रभृति कारणोंसे उसके साथ मेरी मैत्री
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