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आदिनाथ-चरित्र ११६
प्रथम पर्व कठिन है ; पर इसके पार लगाने वाले लोकनाथ मेरे पिताही हैं। यह अँधेरे की तरह पुरुषों को अत्यन्त अन्धा करनेवाले मोह को सब तरफसे भेदनेवाले जिनेश्वर हैं। चिरकाल से संचित कर्मराशि असाध्य व्याधि-स्वरूपा है। उसकी चिकित्सा करनेवाले यह पिताही हैं। बहुत क्या कहूँ ? करुणारूपी अमृतके सागरजैसे यह प्रभु दुःख क्लेशों को नाश करनेवाले और सुखोंके अद्वितीय उत्पन्न करनेवाले हैं ; अर्थात् यह प्रभु करुणासागर हैं। इनके समान दुःखोंके नाश करने और सुखोंके पैदा करनेवाला और दूसरा कोई नहीं है। अहो! ऐसे स्वामीके होनेपर भी, मोहान्धों में मुख्य मैंने अपने आत्मा को कितने समय तक वंचित किया इस तरह विचार कर, चक्रवर्तीने धर्म-चक्रवर्ती प्रभुसे भक्ति पूर्वक गद्गद् होकर कहा-“हे नाथ ! घास जिस तरह खेतको खराब कर देती है; उसी तरह अर्थसाधन को प्रतिपादन करने वाले नीतिशास्त्रोंने मेरी मति बहुत समय तक भ्रष्ट कर दी। इसी तरह मुझ विषय-लोलुपने नाट्य कर्मसे इस आत्माको, नट की तरह, अनेक बार नचाया ; अर्थात् अनेक प्रकार के रूप धर धर कर, मैंने आत्मा को अनेक नाच नचवाये । यह मेरा साम्राज्य अर्थ और काम को निबन्धन करनेवाला है। इसमें जो धर्मचिन्तन होता है, वह भी पापानुबंधक होता है । आपजैसे पिता का पुत्र होकर, यदि मैं संसार-समुद्र में भ्रमण करूँ, तोमुझमें और साधारण मनुष्य में क्या भिन्नता होगी? इसलिथे जिस तरह मैंने आपके दिये हुए साम्राज्य का पालन किया; उसी तरह अब मैं