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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
इसके बाद उसने सारी पुष्कलावती जीतली ; तब सब राजाओंने उसके चक्रवत्तीपन का अभिषेक किया-उसे चक्रवर्ती माना और उस की वश्यता स्वीकर की-अपने तई उसके अधीन माना। उस भोगों को भोगनेवाले चक्रवर्ती की धर्मबुद्धि दिनोंदिन इस तरह अधिकाधिक बढ़ने लगी, मानो वह उसकी बढ़ती हुई उम्रसे स्पर्धा करके बढ़ती हो : अर्थात् ज्यों ज्यों उसकी उम्र बढ़ती थी, त्यों त्यों धर्मबुद्धि उनसे पीछे रह जाना नहीं चाहती थी । जिस तरह ढेर जलसे बेल बढ़ती हैं: उसी तरह भव-वैराग्य-सम्पत्ति से उसकी धर्मवद्धि पुष्ट होने लगी। इसी बीचमें, साक्षात् मोक्ष हो इस तरह परमानन्द करनेवाले भगवान् वज्रसेन घमते-घमते वहाँ आ पहुँचे और चैत्य वृक्षके नीचे बैठकर उन्होंने धर्मदेशना या धर्मोपदेश देना आरम्भ किया। चक्रवर्ती वज्रनाभने ज्योंही प्रभुके आने की ख़बर सुनी, त्योंही वह अपने बन्धुओं सहित--राजहंस की तरह-जगत्बन्धु जिनेश्वर के चरण-कमलों में, बड़ी प्रसन्नता से, जा पहुँचा। तीन प्रदक्षिणा देकर और और जगदीश को नमस्कार करके, छोटा भाई हो इस तरह इन्द्रके पीछे बैठ गया। श्रावकोंमें मुख्य श्रावक वह चक्रवर्ती-भव्य प्राणियों के मन-रूपी सीप में बोध-रूपी माती पैदा करनेवाली, स्वाति नक्षत्र की वर्षा के समान प्रभु की देशना सुनने लगा। जिस तरह गाना सुनकर हिरनका मन उत्सुक हो उठता है : उसी तरह वह भगवान् की वाणी को सुनकर उत्सुक-मन हो उठा और इस भाँति विचार करने लगा:"यह अपार संसार समुद्र की तरह दुस्तर है—इसका पार करना