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प्रथम पर्य
आदिनाथ-चरित्र
की तरह नीरस लगने लगा। चन्दन, अगर, कस्तूरी प्रभृति सुगन्धित पदार्थ दुर्गन्धित मालूम होने लगे। पुत्र और स्त्री. शत्रु की तरह, दृष्टि में उद्वेगकारी हो गये। मधुर और सरस गान-गध, ऊँट और स्यारों के भयङ्कर शब्दों की तरह-कानों को क्लेशकारी लगने लगा। जिसके पुण्यों का विच्छेद होता है, जिसके सुकर्मों का छोर आजाता है, उसके लिये सभी विपरीत हो जाते हैं। कुरुमती और हरिश्चन्द्र, परिणाम में दुःखकारी, पर क्षण-भर के लिए सुखकारी विषयों का उपचार करते हुए गुप्त रीति से जागने लगे। अङ्गारों से चुम्बन किये गये की तरह, उसके प्रत्येक अङ्ग में दाह पैदा हो गया। दाह के मारे उसका शरीर जलने लगा। शेष में: वह दाह से हाय-हाय करता हुआ, गैद्रपरायण होकर, इस दुनिया से कूच कर गया। मृतक की अग्निसंस्कार आदि क्रिया करके, सदाचार रूपी मार्ग का पथिक बनकर, उसका पुत्र हरिश्चन्द्र विधिवत् राज्यशासन और प्रजापालन करने लगा। अपने पिता की पाप के फल-स्वरूप हुई मृत्यु को देखकर, वह ग्रहों में सूर्य की तरह, सब पुरुपार्थों में मुख्य धर्म की स्तुति करने लगा। एक दिन उसने अपने सुबुद्धि नामक श्रावक-बालसखा को यह आज्ञा दी कि. तुम नित्य धर्मवेत्ताओं से धर्मोपदेश सुनकर मुझे सुनाया करो। सुबुद्धि भी अत्यन्त तत्पर होकर राजाज्ञा को पालन करने लगा। नित्य धर्म-कथा सुनकर राजा को सुनाने लगा। अनुकूल अधिकारी की आज्ञा सत्पुरुषों के उत्साह-वर्द्धन में सहायक होती