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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
दोषी नहीं हैं: परन्तु युद्ध में जिस तरह अवसर आने से मन्त्रास्त्र ग्रहण किया जाता है : उसी तरह अवसर आने पर धर्मको ग्रहण करना उचित है । बहुत दिनों में आये हुए मित्र की तरह यौवन की प्रतिपत्ति किये बिना, कौन उसकी उपेक्षा कर सकता है ? तुमने जो धर्म का उपदेश दिया है, वह अयोग्य अवसर पर दिया है: अर्थात् वे मौके दिया है; क्योंकि वीणा के बजते समय वेद का उच्चार अच्छा नहीं लगता । धर्म का फल परलोक है, में सन्देह है । इसलिये तुम इस लोक के सुखास्वाद का निषेध क्यों करते हो ? अर्थात् इस दुनिया के मज़े लूटने से मुझे क्यों रोकते हो ?”
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राजा की उपरोक्त बातें सुनकर स्वयं बुद्ध हाथ जोड़ कर बोला - "आवश्यक धर्म के फल में कभी भी शंका करना उचित नहीं, आपको याद होगा कि, बाल्यावस्था में आप एक दिन नन्दन वन में गये थे । वहाँ एक सुन्दर कान्तिवान देव को देखा था । उस समय देव ने प्रसन्न होकर आप से कहा था- ' -'मैं अतिवल नामक तुम्हारा पितामह हूँ । क्रूर मित्र के समान विषय सुखों से उद्विग्न होकर, मैंने तिनके की तरह राज्य छोड़ दिया और रत्नत्रय को ग्रहण किया । अन्तावस्था में भी, व्रत रूपी महल के कलश रूप त्याग-भाव को मैंने ग्रहण किया था। उसके प्रभाव से काधिपति देव हुआ हूँ । इसलिये तुम भी असार संसार में प्रमादी होकर मत रहना।' इस प्रकार कहकर, बिजली की तरह आकाश को प्रकाशित करता हुआ, वह देव अन्तर्धान हो
मैं