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मीराँबाई (जीवन-चरित और आलोचना)
लेखक डाक्टर श्रीकृष्ण लाल, एम० ए०, डी० फिल्०,
अध्यापक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
न्दी-साहित्य सम्मेलन
२००७
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
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Achar
मीराँबाई (जीवन-चरित और मालोचना)
लेखक डाक्टर श्रीकृष्ण लाल, एम० ए०, डी० फिल०,
प्राध्यापक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
२००७ हिन्दी साहित्य सम्मेलन, पयाग
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द्वितीय संस्करण ३०००
मल्म ॥
मुद्रक व प्रकाशक-रामप्रताप शास्त्री, सम्मेलन मुद्रणालय, प्रया।
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Achar
प्रकाशकीय
प्रस्तुत पुस्तक 'मीराँबाई' के सम्बन्ध में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का द्वितीय प्रकाशन है । इससे पूर्व श्री परशुराम चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित 'मीराँबाई की पदावली' नामक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। 'मीराँबाई' की भक्ति ने हिन्दी साहित्य को किस प्रकार रस-सिक्त किया है, यह साहित्यानुरागियों से अविदित नहीं है । यह ग्रन्य दो खण्डों में विभक्त है १. जीवनचरित, २. आलोचना । प्रथम खण्ड में मीराबाई के जीवन के सम्बन्ध में अनुसन्धानपूर्वक अनेक ज्ञातव्य बातों का परिचय कराया गया है और दूसरे खंड में मीराँबाई की रचनाओं के साथ भक्तियुग में मीराँ उसकी प्रेमसाधना और उसकी काव्य-कला के सम्बन्ध में परिमार्जित समीक्षा देकर हमारे विद्वान् लेखक श्री डा० श्रीकृष्णलाल एम.ए., डी. फिल. ने इस अभक्तियुग, इसीलिए अकल्याणमय काल में प्राचीन भक्ति परम्परा का स्मरण कराया है।
पुस्तक की उपादेयता तो विज्ञ पाठकों की सम्मति पर ही निर्भर है। किन्तु हम इतना अवश्य कहेंगे कि सम्मेलन को मध्यमा और उत्तमा परीक्षा के परी. क्षार्थियों के शान-वर्द्धन में यह पुस्तक परम सहायक होगी।
गुरु पूर्णिमा
२००६
ज्योतिप्रसाद मिश्र निर्मल
साहित्य मंत्री
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स्वर्गीया स्नेहमयी जननी की पुण्य स्मृति में
श्रीकृष्ण लाल
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जीवनी खंड
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दो शब्द
'मीराँचाई के प्रणयन का कार्य सन् १६४३ में ही गुरुवर डा० रामकुमार वर्मा के सुझाव से प्रारम्भ हो गया था, परंतु बीच-बीच में कितनी ही बाधाओं के कारण, कई वर्षों बाद यह प्रकाशित हो रहा है। इन पाँचछः वर्षों में मुझे न जाने कितनी प्रेरणाएँ, कितने परामर्श और कितनी सहायता प्राप्त हुई, उन सबका उल्लेख ग्रावश्यक नहीं है, फिर भी अपने हृदय का भार हलका करने के विचार से दो एक शब्द लिख देना अनुचित नहीं जान पड़ता। मेरे श्रद्धास्पद श्राचार्य डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा ने समय-समय पर जो प्रोत्साहन और अमूल्य परामर्श दिए, उनके बिना सम्भवतः इस ग्रंथ की रचना ही न हो पाती । उनकी कृपा और स्नेह का मैं इतना अभ्यस्त हो गया हूँ कि उसके लिए आभार-प्रदर्शन सम्भव नहीं जान पड़ता ! सुहृद्वर डा० माताप्रसाद गुप्त ने अपना अमूल्य समय दे पांडुलिपि को भली भाँति पढ़कर कुछ सुझाव दिए थे जिसके लिए मैं उनका ऋणी हूँ। मेरे प्रिय विद्यार्थी श्री नरेशकुमार मेहता, एम० ए०, ने 'वृहत् काव्य दोहन' के गुजराती अक्षरों में छपे मीरों के पदों की प्रतिलिपि नागरी अक्षरों में कर मेरी सहायता की जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। जिन-जिन लेखकों की कृतियों से इस ग्रंथ के प्रणयन में सहायता ली गई है, उसका मैं आभारी हूँ। अंत में मैं अपने प्रिय मित्र श्री प्रभात शास्त्री, साहित्याचार्य और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के साहित्य मंत्री श्री ज्योतिप्रसाद मिश्र 'निर्मल' को अनेक धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने इसके प्रकाशन की व्यवस्था की।
दुर्गाकुंड, काशी
श्रीकृष्ण लाल
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Achar
विषय-सूची
प्रथम खंड (जीवन-चरित)
विषय
rut
...
७४
पहला अध्याय-प्रवेश दूसरा अध्याय-आधार और सामग्री तीसरा अध्याय-मीराँबाई की जीवन सम्बंधी तिथियाँ चौथा अध्याय-संस्कार और दीक्षा • पाँचवाँ अध्याय-जीवन वृत्त उपसंहार
द्वितीय खंड
(रचनाएँ तथा पालोचना) पहला अध्याय-मीराबाई की रचनाएँ ... दूसरा अध्याय-भक्ति-युग और मीराँ ... तीसरा अध्याय-मीरां का काव्य-विषय-भक्ति... चौथा अध्याय-मीरा की प्रेम-साधना पाँचवाँ अध्याय-मीरों की काव्य-कला उपसंहार ...
७६
१२३
१७६
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Achar
पहला अध्याय
प्रवेश
. विक्रम की पंद्रहवीं, सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में भक्तिधर्म की प्रधानता भी । किननी ही दृष्टियों से इस भक्तियुग का विशेष महत्व है और इस महत्वपूर्ण युग में भो मी बाई का विशिष्ट स्थान है। यह नाजपूतों को वीरता का युग था......महाराणा सांगा और प्रता,वीरश्रेष्ठ जयमल
और पुत्ता,राव जोधा जी और मालदेव जैसे मालधनी वारों की कीति से सारा राजपूताना गूज रहा था- और मारा इस बुग के रणबांकुरे राठौर राव जोधा जी की प्रपौत्री, वीर जयमल की बहिन तथा सीसौदियों के सूर्य महागरणा सांगा की ज्येष्ठ पुत्रवधू थी; यह कबीर, दाडू, नानक, रैदास तथा नरसी मेहता जैसे ईश्वरपरायण भक्तों का युग था और मी एक महान भक्त थी; यह एक अवतारी युग था जब गोसाई तुलसीदास आदि कवि महर्षि वाल्मीकि के, गौरांग महाप्रभु श्री चैतन्यदेव भगवान कृष्ण के, महात्मा हरिदास श्री ललिता सखी के और गोसाई हित हरिवंश भगवान मुरलीधर को मुरली के अवतार समझे जाते थे और मोरों द्वापर युग की वज-गोपी को अवतार प्रसिद्ध थी; यह हरिदास, तान पेन, वैजू बावरे तथा सूरदास जैसे गायकों का युग था और मीराबाई एक अलौकिक गायिका थीं; यह सूरदास, तुलसीदास, विद्यापति तथा कबीर जैसे महाकवियों का युग था और मीरौं एक जन्मजात कवि थीं। मारांश यह कि मासूबाई इस युग का गौरव बढ़ाने वाला एक महान् श्रात्मा थीं।
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मीबाई
२
आलवारों के पावन कंठ से निकली हुई भक्ति-धारा श्री रामानुज, मध्व, विष्णुस्वामी और निम्बार्क जैसे बाचायों की प्रतिभा सरस्वती के संयोग से एक बाढ़ सी उमड़ कर दक्षिण भारत को रसमय करती हुई उत्तर की ओर बढ़ी और कुछ ही समय में बंगाल और मध्यदेश भी इस भक्ति धारा के प्रवाह से रसमय हो उठा । काशी में स्वामी रामानंद अपनी द्वादश शिष्यमंडली के साथ 'जात-पाँत पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि को होई ।' का प्रचार कर रहे थे और पावन भूमि ब्रज में एक और महाप्रभु वल्लमाचार्य अपने शिष्यों के माथ बाल गोपाल भक्ति का प्रसार कर रहे थे, दूसरी ओर चैतन्यदेव के प्रिय शिष्य रूप, सनातन और जीव गोस्वामी माधुर्य-भाव की भक्ति भावना से रस की धारा वहा रहे थे। दैवयोग से यह समय मी भक्तिधर्म के प्रसार में विशेष सहायक प्रमाणित हुआ -- विजेता यवनों से पददलित और पीड़ित निराश हिन्दू जनता के लिये ईश्वर की भक्ति के अतिरिक्त और चारा ही क्या था ? परन्तु यह भक्ति-धारा राजपूताने की मरुभूमि में अपना मार्ग खोजने में असमर्थ थी । वहाँ अब भी तलवार के पानी और रक्त के रंग की होली खेली जाती थी, वहाँ अब भी मुंडमाली को मुंडमाल चढ़ाया जाता था । राम और कृष्ण के स्थान पर वहाँ भाले और बछ की पूजा होती थी;सरयू और यमुना के स्थान पर वहाँ के वीर पुजारी' शोणित के स्रोत' में स्नान कर अपना जीवन कृतार्थ करते थे और 'सुने रे निर्बल के बल राम' के स्थान पर वहाँ
तन तलवारों तिलछियो, तिल तिल ऊपर सीब | वाला वाव ऊटसी, छिन इक ठहर नकीच !!"
के गीत गाये जाते थे । सच तो यह है कि भक्ति-धर्म की अग्नि परीक्षा के लिये राजस्थान की मरुभूमि ने जौहर की नाग जला रक्खी थी । परंतु यह
1
१ इस वीर का शरीर तलवार के घावों से टुकड़े टुकड़े हो गया है और तिल तिल पर सिला हुआ है। हे चारण । तुम थोड़ी देर के लिए अपनी वीर वाणी बंद करो, नहीं तो यह वीर गोले घावों से उठ कर अभी फिर रंग के लिये चला जायगा ।
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Acha
जीवनी खंड
श्राग जहाँ प्रचंडतम रूप से प्रज्वलित हो रही थी वहीं अचानक भति-धर्म का मंडा फहरा उठा । पत्थर पर दूब जमने की जो कहावत प्रसिद्ध है उसे चरितार्थ होते देख लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। अस्सी धावों के चिह्न जिसकी वीरता के अद्भुत साक्षी थे उन्हीं राणा सांगा की प्रचंड तलवार के ठीक नीचे ही हरि-भक्ति की एक अमर वेलि पल्लवित हो उठी । कौन जानता था कि खड्ग देवता के सबसे बड़े पुरोहित महाराणा सांगा की पुत्रवधू और उसके (खड्ग देवता के) सबसे बड़े पुजारी वीरश्रेष्ठ जयमल की बहन अचानक ही गा उठेगी:
श्री गिरधर भागे नाचूँगी ॥ टेक ||
नाच नाच पिव रसिक रिझाऊँ, प्रेमी जनकजाच गी। परंतु साँवरे के रंग में रँगी हुई उस प्रेम-प्रतिमा की स्वर लहरी ने केवल मरुभूमि राजस्थान को ही नहीं, सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत को अपनी पावन भक्ति-धारा से अभिसिंचित कर दिया।
राजस्थान में जिस धर्म और संस्कृति का प्रभाव था वह तलवार और रक्त-धारा की कठोर भित्ति पर स्थित था, परंतु भक्ति-धर्म की नींव में मानवहृदय की कोमल भावनायें निहित थीं। इसीलिये बंगाल की भावुक प्रकृति ने भक्ति-धर्म का पूर्ण स्वागत किया और वहीं इस कामिनी-जनोचित धर्म की पूर्ण प्रतिष्ठा हुई । बंगाल के पुरुष-चैतन्य और चंडीदास-में राधा भाव की पूर्णता मिलती है । दूसरी ओर राजस्थान की स्त्रियाँ तक-कर्मदेवी, जवाहर बाई इत्यादि-तलवार लेकर रक्त की नदियाँ बहाया करती थीं । इसी वैषम्य के कारण बंगाल में राजपूत धर्म की प्रतिष्ठा न हो सकी और राजस्थान में भक्ति-धर्म कभी पल्लवित न हो सका । परन्तु राजस्थान के जलवायु में उत्पन्न होकर वहाँ की संस्कृति और धर्म में पलकर, पुरुषोचित भावना के वातावरण में रहकर भी मीराँ ने माधुर्य भाव की भक्ति का जो चरम विकास प्रदर्शित किया, वह मानव जाति के इतिहास में एक अद्भत घटना है। बंगाल जैसे सुदूर प्रांत से पाकर जिन रूप, सनातन और जीव गोस्वामी ने ब्रजभूमि में माधुर्य भाव की रस-धारा उमड़ा दी थी, उन्हें भी मीरा की भक्ति-भावना के सम्मुख नत-मस्तक होना पड़ा था। मीरा और जीव
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मीराबाई
गोस्वामी के सम्बन्ध में जो जनश्रति प्रसिद्ध है, वह सम्भव है वास्तविक सत्य न भी हो, परन्तु रूपक के रूप में उसकी सत्यता असंदिग्ध है। सूर आदि कवियों ने भ्रमरगीत के द्वारा ज्ञान और योग से भक्ति की जो श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयास किया, उसे साधारण जनता ने योगी और महाज्ञानी जीव गोस्वामी को भक्त मांग के सामने निरुत्तर दिखाकर इस जनश्रति द्वारा अयंत सरल रीति से प्रमाणित कर दिया। मी भक्ति-भावना की प्रतीक है, उनका जीवन ही भक्ति-साधना है और उनकी कविता में उसकी चरम सिद्ध है।
: मीराँबाई का इतिहास और जीवन-वृत्त हिन्दी के अन्य महाकवियों की भाँति एकदम अनिश्चित नहीं है । यह सच है कि हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि मीराबाई किस संवत् में अवतरित हुई, अथवा कब
और कैसे उन्होंने यह नश्वर देह छोड़ी; पन्तु यही तो सब कुछ जानना नहीं है। जो जानना आवश्यक है वह तो यह है कि वे किस युग, किस वंश, किस वातावरण में अवतरित हुई उनकी शिक्षा और दीक्षा किस प्रकार की हुई; उनके जीवन में कितने संघर्ष किस रूप में उपस्थित हुए और उन संघर्षों को उन्होंने किस रूप में कितनी सफलता के साथ मेला । मीराँ के सम्बन्ध में इन सभी आवश्यक बातों का निश्चित ज्ञान प्राप्त करना कुछ कठिन नहीं है। दैवयोग से वे राजपूताने के एक प्रसिद्ध राजकुल में उत्पन्न हुई और एक प्रतिप्रसिद्ध राजकुल में उनका विवाह हुआ। राजस्थान
१-कहा जाता है कि मीरा वृन्दावन में भक्त शिरोमणि और गोस्वामी के दर्शन के लिए गई थीं। गोस्वामी जी सच्चे साधु थे और सि.यों की छाया तक से भागते थे, इसीलिए भीतर से ही कहला भेजा कि हम सियों से नहीं मिलते । इसपर मीराँबाई ने उत्तर दिया कि मैं तो समझती थी वृन्दावन में श्रीकृष्ण जी ही एक मात्र पुरुष हैं परंतु यहाँ आकर जान पड़ा कि उनका एक और प्रतिद्वंदी पैदा हो गया है। मीरा का ऐसा माधुर्य-भाव से युक्त प्रेमपूण उत्तर सुनकर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बड़े ही प्रेम से मोरांबाई से मिले ।
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जीवनी खंड के इतिहास में उनके पितृकुल और श्वसुर कुल की वीरता स्वर्ण अक्षरों में अंकित है; उनकी शिक्षा-दीक्षा और जीवन-संघर्ष का इतिहास उनके पदों में मिलता है, उनके जीवन के सौन्दर्य, सफलता, और विजय का इतिहास साहित्य और जनश्रुतियों में बिखरा पड़ा है। यदि थोड़ी कल्पना और अनुमान का सहारा लिया जाय तो मीराँबाई का इतिहास और जीवन-वत्त निश्चित रूप से उपस्थित किया जा सकता है । अनुमान शब्द सुनकर चौंकने की आवश्यकता नहीं। जहाँ सत्य की खोज के लिए अन्य कोई साधन अप्राप्य है, वहाँ अनुमान ही एकमात्र सहारा है।
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दूसरा अध्याय आधार सामग्री
- अं... साक्ष्य-मीरों के जीवन वृत्त-विचार के लिए, सबसे पहले, उनके नाम से प्रसिद्ध पदों की ओर ध्यान जाता है। मीरों की रचनाओं में ऐसे पद पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं जिनमें उनकी जीवन-सम्बन्धी बातों का स्पष्ट निर्देश मिलता है । परन्तु उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध नहीं है । उन पदों में प्रधान रूप से दो विषयों का निर्देश मिलता है--एक तो संत रैदास तथा उनके शिष्यों के सत्संग का प्रभाव और मीरों की वैराग्य प्रवृत्ति दूसरे राणा द्वारा किए गए असफल अत्याचारों का वर्णन । काव्य-वस्तु की दृष्टि से विचार करने पर उन पदों का मीराँ द्वारा लिखा जाना असम्भव नहीं है । गोसाई तुलसीदास ने भी कवितावली और विनयपत्रिका में ऐसे छंद और पद पर्याप्त संख्या में लिखे हैं जिनमें उनकी जीवन सम्बंधी बातों का स्पष्ट निर्देश मिलता "है और उनकी प्रामाणिकता में किसी को भी संदेह नहीं है । परन्तु मीराँ के इन पदों के सम्बन्ध में संदेह होना स्वाभाविक है । कुछ पद तो ऐसे हैं जो मीरों के लिखे हो ही नहीं सकते। एक उदाहरण लीजिए ।
म्हारे सिर पर सालिगराम, राणा जी म्हारो काई करसी ॥टेक। मीरा रौँ राणा ने कही रे, सुण मीरा मोरी बात । साधों की संगत छोड़ दे रे, सखियाँ सब सकुचात ॥ १ ॥ मीरा ने सुन यों कही रे, सुन राणा जी बात । साध तो भाई बाप हमारे, सखियाँ क्यू घबरात ॥२॥ जहर का प्याला भेजिया रे, दीजो मीरा हाथ । अमृत करके पी गई रे, भली करें दीनानाथ ॥ ३ ॥
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जीवनी खंड
मीरा प्याला पी लिया रे, बोली दोउ कर जोर । ते मारण की करी रे, मेरो राखणहारो ओर ।।४।। अाध जोहड़ी कीच हे रे, आधे जोहड़ हौज । आधे मीरा एकलीरे, श्राधे राणा की फौज ॥५॥ काम क्रोध को डाल के रे, सील लिये हथियार । जीती मीरा एकली २, हारी राणा की धार ॥६॥ काचगिरी का चौतरा रे, बैठे साध पचास । जिनमें मीरा ऐसी दमके, लख तारों में परकास ॥ ७ ॥
[ मीरा की शब्दावली, वेलवेडियर प्रेस संस्करण पृ० ४०-४१ ] इस पद की ध्वनि कुछ ऐसी है जो इसे मीरां-रचित होने में संदेह उपस्थित करती है । विशेषकर अंतिम दो चरण 'काचगिरी का चौतरा रे इत्यादि तो मीरों की लेखनी से उद्भूत हो ही नहीं सकते । इसी प्रकार मीराँ तथा उनकी पास और ननद की बाचचीत जिन पदों में दी गई है, उनके मीराँ-रचित होने में पूर्ण संदेह है। एक उदाहरण देखिए : [ऊदा भाभी मीरा कुल ने लगाई गाल,४
ईडर गढ़ का श्राया जी अोलंबा । [ मीरा ] बाई ऊदा थारे म्हारे नातो नाहिं,
बासो बस्यां का आया जी अोलंबा ॥१॥ [ ऊदा ] भाभी मीराँ का साधाँ का संग निवार,
___ सारो सहर थाँरी निन्दा करै। [ मीरा ] बाई ऊदा करे तो पड़या मख मारो, मन लागो रमतः राम सू ॥२॥
[वही पृ० ३७-३८] ये पद तो नौटंकियों के पद्य बद्ध वार्तालाप जैसे जान पड़ते हैं। इनका मीरों द्वारा लिखा जाना किसी प्रकार सम्भव नहीं जान पड़ता।
१ बड़ा तालाब या झील । २ फौज । ३ विल्लौर । ४ कलंक । ५ उलाहना । ६ तुम्हारे घर आकर रही इसीसे उलाहना मिला ।
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मीराँबाई ___ अंतःसाक्ष्य के इन पदों में एक विशेष बात यह है कि इनमें एक ही बात कितने ही पदों में कितनी ही तरह से कही गई है । राणा के विष का प्याला मेजने का उल्लेख लगभग डेढ़ दर्जन पदों में मिलता है । इसी प्रकार सतगुरु के रूप में रैदास का उल्लेख भा लगभग आधे दर्जन पदों में है । इस पुनरुक्ति से दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं-या तो मीग के पास विषय का इतना अभाव था कि वे एक ही बात को अनेक प्रकार से कहने को बाध्य थीं, अथवा उन्होंने दो ही एक पद इस विषय पर लिखे होगे, बाद में अन्य कवियों ने न जाने किस भावना से प्रेरित हो इसी विषय पर कितने हो पद कुछ परिवर्तन
और परिवर्धन के साथ मीराँ के नाम से लिखकर प्रचलित करा दिए । पिछली सम्भावना ही अधिक जान पड़ती है क्योंकि यह विषय कुछ ऐसा है जिस पर विषयाभाव होने पर भी मीराँ ने पुनरुक्ति न की होगी। फिर इन पदों में कहीं कहीं 'साँप-पिटारा' भेजने तथा 'सूल-सेज' पर सुलाने का भी उल्लेख मिलता है। यथा :
मीरा मगन भई हरि के गुण गाय ॥टेक।। साँप पिटारा राणा भेज्या, मीरा हाथ दियो दाय ।। न्हाय धोय जब देखण लागी, सालिगरामगई पाय ॥ जहर का प्याला राणा भेज्या अमत दीन्ह बनाय॥ न्हाय धोय जब पीवण लागी, हो अमर अँचाय ॥ सूल सेज राणा ने भेजी, दीज्यो मीरा सुलाय ॥ साँझ भई मीरा सोवण लागी, मानो फूल बिछाय॥
[ मीरा की शब्दावली बेलवेडियर प्रेस संस्करण पृ० ६४ ] और मी राणा जी म्हारी प्रीत पुरबली मैं क्या करूँ ॥ टेका xx
xxxx. विष का प्पाला भेजिया जी जावो मीरा पास ।
कर चरणामृत पी गई, म्हारे राम जी के बिस्वास ।। X X xx
xx
-
१ पोकर ।
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जीवनी खड
पेय' बालक भेजिया जी, ये है चन्दन हार |
नाग गले में पहिरिया, म्हाँरो महलाँ भयो उजार || 1 || [ मीरा की शब्दावली, बेलबेडियर प्रेस संस्करण ५० ६५ ]
११
परन्तु 'साँप पिटारा' तथा 'सूल सेज' का उल्लेख न तो नाभादास के छप्पय में है और न प्रियादास के कवित्तो में । नाभादास ने केवल एक ही छप्पय मीराँ के सम्बन्ध में लिखा था, इसलिए सम्भव है कि स्थानाभाव के कारण वे इनका उल्लेख न कर पाए हों, परंतु प्रियादास को तो स्थान का अभाव न था। उन्होने तो दश कवित्तों में कितना ही बातों का उल्लेख किया है और यदि उनके समय में मार्ग के पास 'साँप पिटारा' भेजने तथा उनको 'सूल 'सेज' पर सुलाने की कथा का प्रचार होता अथवा उपर्युक्त दोनों पद मीरों के ही लिखे होते तो वे इनका उल्लेख करना कभी न भूलते। फिर रघुराज सिंह रचित 'भक्तमाला' में जो विविध जनश्रुतियो का अत्यधिक विस्तार मिलता है उसमें भी 'साँप पिटारा' और 'सूल सेज' का उल्लेख नहीं है । इससे यह बात निश्चित रूप से प्रमाणित हो जाती है कि उपर्युक्त दोनों पद मीरों की रचना नहीं है, वरन् मीरों की मृत्यु के बहुत दिनों पश्चात् प्रियादास के समय के उपरांत, जब भक्त मीराँ के संबंध में नए-नए कथा-प्रसंगों और गोत तथा पदों की सृष्टि हो रही थी, उस समय उनके किसी भक्त ने इन पदों की रचना करके जनता में प्रचलित करा दिया, जो कालांतर में मीगँ-रचित माने जाने लगे । फिर उपर्युक्त दोनों पदों में पहले में पिटारे का साँप शालिग्राम की मूर्ति बन जाता है, परंतु दूसरे में बासक ( वासुकि नाग ) चंदन हार के रूप में परिवर्तित होकर महल में उजाला करता है । ये दोनों परस्पर विरोधी बातें सत्य नहीं हो सकतीं, इनमें एक तो अवश्य ही सत्य है और अधिक सम्भव है कि दोनों ही सत्य हो । सच तो यह है कि ये दोनों ही पद मीरों के लिखे नहीं हैं ।
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मध्यकालीन उत्तर भारत में प्रमुख भक्तों और महापुरुषों की स्मृति अनेक गीतों, कथा-वार्ता और प्रसंगों तथा रूपकों द्वारा जीवित रखी जाती थी ।
१. सन्दूक, पिटारा । २ वाकि नाग, साँप
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मीराँबाई
कवि और गायक गीतों और पदों में उन महात्माओं की कीर्ति गाते फिरते थे; वृद्धगण उनके सम्बन्ध में अनेक कथा और प्रसंग उत्सुक श्रोताओं को सुनाते रहते थे और संगीत अथवा नौटंकियों के छंदबद्ध वार्तालापों में उनके जीवन के प्रमुख प्रसंग रूपकों के रूप में प्रदर्शित किए जाते थे । गोपीचंद, पूरन भक्त,
और इकीकत राय के रूपक पंजाब में अब तक प्रचलित है संयुक्त प्रांत के पूर्वी भाग में अब तक जोगी फकीर गोपीचंद और भरथरी के गीत गा-गा कर भीख मांगते हैं। राजस्थान में मोगैंबाई के जीवन से सम्बन्ध रखनेवाले कितने ही रूपक प्रचलित रहे होंगे जो पवों और त्योहारों के अवसर पर जनता के सामने खेले जाते होंगे। साथ ही रमते योगी और फकीर, गायक और चारण, उनके सम्बंध में विविध प्रकार के गीत और पद गा गा कर जनता को मुग्ध करते रहे होंगे। स्त्रियों में मीरों का विशेष रूप से अधिक प्रचार था। कालांतर में कितने ही गीत और पद, रूपकों के कितने हा छंदबद्ध वार्तालाप मीरों के नाम से जनता में प्रचार पा गए होंगे। यह कोरा अनुमान ही नहीं है, इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण साहित्य रत्नाकर' नामक संग्रह-ग्रंथ में मिलता है । गुजरात के श्री कहान जी धर्मसिंह ने 'साहित्य-रत्नाकर' नामक दो जिल्दों में हिन्दी की प्राचीन कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया जिसकी तृतीयावृत्ति १६२६ ई० में हुई। इसके प्रथम भाग में पृ० ४१७-१८ पर मीरों बाई के नाम से तीन छंद, १ दोहा और दो कवित्त दिए गए हैं जिनमें दोनों कवित्त इटावे के प्रसिद्ध कवि देव जी की रचनाएँ हैं जो सम्भवतः मीराँ की प्रशंसा में लिखे गये थे । देव कवि के नाम पर भी कितने कवित्त और सवैया उसमें संग्रहीत हैं जिससे जान पड़ता है कि देव-रचित इन कवित्तों को संग्रहकर्ता मीराँ-रचित ही समझता था । ठोक इसी प्रकार की भूले मीरों के इन पदों के सम्बंध में भी हुई हैं । बेलवे डियर प्रेस से प्रकाशित 'मीराँबाई की शब्दावली' में 'मीबाई
और कुटुम्बियों की कहा-सुनी' के अंतर्गत जो छंदबद्ध वार्तालाप मिलते हैं, वे सम्भवतः मीराँबाई के जीवन-संम्बन्धी रूपकों और नौटंकियों के अवशेष हैं और अन्य पद भी इसी प्रकार भूल से उनकी रचना में स्थान पा गए हैं।
श्रस्तु, जिन पदों में मीरों की जीवन संबंधी बातों का स्पष्ट निर्देश मिलता
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जीवनी खंड
है, अंतःसाक्ष्य के वे पद अधिकांश मीराँ की रचनाएँ नहीं है । परन्तु इस प्रकार के सभी पदों को सहसा अप्रामाणिक मानना भी ठीक नहीं है। कुछ पद तो मीरों के ही लिखे जान पड़ते हैं, परन्तु निश्चित रूप से कछ कहा नहीं जा सकता । उदाहरण के लिए देखिए :
राणा जी मैं तो गोविद का गुण गास्याँ ॥ टेक ॥ चरणामृत का नेम हमारे, नित उठ दरसन जास्याँ ॥ १॥ हरि मन्दिर में निरत करास्याँ, धू धरिया धमकास्याँ ॥२॥ राम नाम का जहाज चलास्याँ, भवसागर तर जास्याँ ॥३॥ यह संसार बाड़ का कौंटा, ज्याँ संगत नहिं जात्याँ ।। ४ ।। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, निरख परख गुण गास्याँ ।। ५ ॥
मीराबाई की शब्दावली वेलवे डियर प्रेस संस्करण पृ.६६ ] यह पद मीरों का ही लिखा जान पड़ता है। इस प्रकार के कुछ पद सम्भवतः मोरों ने लिखे होंगे, परन्तु ज्यों-ज्यों उनकी कीर्ति बढ़ने लगी, त्यो त्यो उनके सम्बन्ध में नई-नई जनश्रतियों का प्रचार बढ़ने लगा और उन्हीं के अनुरूप मीरों के नाम से नए-नए पदों का प्रचार भी होने लग गया । इन नए पदों से मीरों के पदों को छाँट निकालना यदि असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। अतः इन पदों को अंतःसाक्ष्य के रूप में स्वीकार करना ठीक नहीं है, फिर भी इनसे बहिःसाक्ष्य का उपयोग तो किया ही जा सकता है और यही उपयोग उपयुक्त भी है। - अंतःसाध्य के इन पदों के अतिरिक्त शेष अगणित पदों में मीरों की भक्तिभावना का अद्भुत प्रवाह मिलता है जिनमें उनका जीवन सम्बन्धी बातों का निदे श नहीं है । इनमें कछ पद तो ऐसे भी है जिनमें कवि ने अपनी भक्तिभावना के ग्रावेश में अपने जीवन की ओर भी संकेत किया है । यथा :
तेरो कोई नहिं रोकणहार मगन होइ मीरौं चली। टेक लाज, सरम कुल की मनांदा सिर से दूर करी। मान अपमान दोऊ धर पटके निकसी हूँ शान गली ।। १॥ xx
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मीराँबाई
सेज सुखमणा मीरा सोहै, सुभ है अाज धरी । तुम जानो राणा घर श्रपणे, मेरी तेरी नाहिं मरी ॥४॥
मोग मन्दाकिनी पद १०९ १.०५१] अथवा-आली रे मेरे नैनन बान पड़ी । टेक ॥
चित चढ़ी मेरे माधुरी मूरत, उर बिच श्रान अड़ी ॥१॥ xx मीरा गिरधर हाथ विकानी, लेग कहै धिगड़ी ॥ ४॥
[मोराबाई की पढावली वे० प्रे०५० २०] परन्तु मीरों के पदों में उनके आध्यात्मिक विकास का जो क्रमिक इतिहास मिलता है वह वास्तव में महत्वपूर्ण है। मीरों के पदों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर हमें चार-पाँच विशिष्ट धाराओं के पद मिलते हैं । मबसे पहले नाथ सम्प्रदाय के योगियों के प्रभाव से प्रभावित होकर मीण के कितने ही पद 'जोगी' के सम्बन्ध में मिलते हैं। एक प्रसिद्ध उदाहरण देखिए :
जोगी मत जा मत जा, पाय परूँ मैं चेरी तेरी हौं । प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारी, हम गैन बता जा । अगर चदन की चिता रचाऊ, अपणे हाथ जला जा।
जल जल भई भस्म की ढेरी, अपने अंग लगा जा। मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा।
[ मीराबाई की शब्दावली १.० ९८ } फिर संतों के प्रभाव से प्रभावित संसार और जीवन की नश्वरता प्रकट करने वाले भजन के पद मिलने है । एक उदाहरण देखिएः
भज मन चरन कवल अबिनासी ॥ टेक।। जेताह दीसे घरनि गगन बिच, तेताह सब उठि जासी ।। कहा भया तारथ ब्रत कीन्हें, कहा लिए करवत कासी ॥ १॥ इस देही का गरब न करना, माटो में मिल जासी। यो संसार चहर की बाजी, साँझ पड़याँ उठि जासी ॥ २ ॥
[ मो० स० ० ० १.१.२]
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जीवनी खंड
१५ फिर आगे बढ़कर उसी प्रभाव से प्रभावित रहस्योन्मुख विरह के पद मिलते हैं । यथा:
हेरी मैं तो प्रेम दिवानी मेरा दरद न जाणे कोय ॥ टेक ॥ सूनी ऊपर सेज हमारी, किस विध सोणा होय ! गगनु मडल पै सेज पिया की, किस विध मिलणा होय ॥ १॥
[ मी० शब्दा. वे० प्रे० प. ४] तीसरे भागवत के प्रभाव से प्रभावित श्रीकृष्ण-लीला और विनय के पद मिलते हैं जो सूरदास के पदों से समानता रखते हैं । उदाहरण के लिए देखिए:
मेरो मन बसिगो गिरधर लाल सों ॥टेक ।। मोर मुकुट पीताम्बरो, गल बैजंती माल । ग उवन के सँग डालत हो जसुमति को लाल ॥१॥
मी० शब्दा० ० ० १.०९] और विनय के पद:
मन रे परसि हरि के चरण | टेक ॥ सुभग सीतल कँवल कोमल, त्रिबिंध ज्वाला हरण । जिण चरण प्रहलाद परसे, इंद्र पदवी धरण ।। १ ॥
[मी० शब्दा० वे० प्रे० पू०२] विनय और लीला के पदों के अतिरिक्त विरह के पद भी मिलते हैं जिनमें कृष्ण-काव्य के विप्रलम्भ शृंगार की झलक मिलती है। यथा :
डारि गयो मनमोहन पासी ॥ टेक ॥ आँबा की डालि कोइल इक बोलै,मेरो मरण अर जग केरी हाँसी । चिरह की मारी में बन बन डोलू, प्रान तजू करबत ल्यं कासी। मीरा के प्रभु हरि अबिनासी, तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी ॥
[ मी० की पदावली हि० सा० सम्मेलन सं० पू० ३४-३ अंत में कृष्ण के प्रेम में तन्मय होकर मीरौं गिरधरलालमय हो जाती है
और उनके कंठ से उल्लास भरे पद फूट निकलते हैं जिनमें माधुर्य भाव की सुंदर अभिव्यकि मिलती है । यथा :
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थवा
मीराँबाई मेरे तो गिरधर गोपाल, दसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।।
कहाँ कहाँ जाऊँ तेरे साथ कन्हैया।
. बंसी केरे बजैया कन्हैया । बृदाबन की कुंज गलिन में गहे लीनो मेरो हाथ कन्हैया । इत्यादि
[राग कल्पद्रन प्रथग भाग ५.० ६६१] इन विविध प्रकार के पदों में मीराँ के जीवन पर विविध प्रभाव और उसके परिणाम स्वरूप उनके आध्यात्मिक जीवन के विकास-क्रम का सुंदर इतिहास मिलता है। संत-प्रभाव से प्रभावित होकर संसार की नश्वरता और ईश्वर-भक्ति की सारता प्रकट करती हुई उनकी प्रतिभा रहस्योन्मुखी हो उठती है,फिर भागवत के प्रभाव से कृष्ण लीला,विनय के पद और विप्रलम्भ शृगार से प्रारम्भ होकर उनके पदों में उस तन्मयता और प्रेम का परिचय मिलता है जो श्राध्यात्मिक अनुभूति का चरम विकास है और जो साहित्य में गोपी-भाव अथवा राधा-भाव के नाम से प्रसिद्ध है।
बहिःसाक्ष्य-मीराँबाई के जीवन वृत्त-सम्बन्धी बहिःसादयों में सबसे अधिव, प्रामाणिक ग्रंथ नामादास-रचित 'भक्तमाल' है, जिसकी रचना सं० १६४२ के पीछे किसी समय हुई थी। उस समय तक मीराँबाई को मरे अधिक दिन नहीं हुए थे--शायद सब मिलाकर बीस वर्ष भी न बीते पाए थे। इसलिए उससे मीरों के सम्बन्ध में निकट सत्य जानने की पूरी सम्भावना थी। परन्तु दुर्भाग्य से 'भक्तमाल' में मीराँ के सम्बन्ध में केवल एक ही छप्पय मिलता है। परंतु वह एक ही छप्पय इतना अर्थगर्भित और गम्भीर है कि उससे कवि के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । वह छप्पय इस प्रकार है :
लोक लाज कुल शृंखला तजि मीरौं गिरधर भजी। सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहिं दिखायो! निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो॥
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जीवनी खंड
दुष्टनि दोष बिचारि मृत्यु को उद्यम कीयां । बार न बाँको भयो, गरल अमृत ज्यो पीयो ॥ भक्ति निसान बजाय के, काहू ते नादिन लजी ।
लोक-लाज कुल शृखला तजि मीराँ गिरधर भजी ॥ इसमें मीराँ की भक्ति-भावना की प्रशंसा की गई है । 'गरल अमृत ज्या पीयों में एक अलौकिक घटना का उल्लेख किया गया है जो बिलकुल असम्भव भी नहीं कहा जा सकती। ___ 'भक्तमाल' के पश्चात् गुसांई हित हरिवंश के प्रसिद्ध विद्वान् शिष्य हरीराम व्यास की 'बानी' के पदों में कुछ समकालीन भक्तों का उल्लेख है जिनमें मीराँबाई भी एक हैं । एक पद इस प्रकार है :
बिहारहिं स्वामी बिन को गावै ? बिनु हरिबंसहिं राधिकावल्लभ को रस रीति सुनावै.? रूप सनातन बिनु का वृन्दा विपिन माधुरी पावै ? कृष्णदास बिनु गिरधर जू को को अब लाड़ लड़ावै ? मीराबाई बिनु को भक्तनि पिता जान उर लावै ? स्वारथ परमारथ जैमल बिनु को सब बंधु कहावै ? परमानंद दास विन को अब लीला गाय सुनावै ?
सूरदास बिन पद रचना को कौन कबिहि कहि श्रावै ? इस पद की ध्वनि से ऐसा जान पड़ता है कि इसकी रचना उस समय हुई थी जब इसमें उल्लिखित सभी भक्त स्वर्ग सिधार चुके थे । परंतु इसमें वर्णित सभी भक्त व्यास जी के समकालीन थे और उनसे व्यास जी का परिचय भी अवश्य रहा होगा। इस पद में हार्दिकता कूट-कूट कर भरी है जिससे स्पष्ट पता चलता है कि भक्तों की जिन विशेषताओं का उल्लेख इसमें किया गया है वे केवल सुनी-सुनाई नहीं कवि की स्वयं अनुभूत हैं । व्यास जी सं० १६२२ के आसपास किसी समय गुसाई हित हरिवंश के शिष्य हुये थे, इसके पहले वे श्रोडछा के महाराज मधुकर शाह के राजगुरु थे। अस्तु, रूप,सनातन,कृष्णदास मीराँबाई, जैमल, परमानंददास और सूरदास आदि भक्तों का परिचय उन्होंने
मी० २
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१८
मीराँबाई
सं० १६२२ के आसपास अथवा कुछ बाद में प्राप्त किया होगा । मीराँबाई के अतिरिक्त अन्य सभी भक्तों का सं० १६२२ तक जीवित रहने का निश्चय -सा इस पद से यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि मीराँबाई भी सं २६२२ के आसपास तक जीवित थीं ।
है,
हरि-भक्तों को पिता समझ कर हृदय से लगाना मीरांबाई की ही विशेषता थी । मीरों के चरित्र की यह पवित्रता और उच्चता, सरलता और विनम्रता उनके काव्य में प्रतिबिम्बित हुई है ।
'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में भी मीराँबाई के सम्बंध में कुछ बातें मिलती हैं। यह प्राचीन वार्ता ग्रंथ गुसाई गोकुलनाथ द्वारा सं० १६२५ में लिखा माना जाता है | इसकी प्रामाणिकता के सम्बंध में विद्वानों को संदेह रहा है । अभी कुछ ही दिनों पहले विद्या विभाग काँकरोली से प्रकाशित 'प्राचीन वार्ता रहस्व' द्वितीय भाग की भूमिका में इस ग्रंथ को प्रामाणिक प्रमाणित करने की चेष्टा की गई है, और इन वार्ताओं के सम्बंध में कुछ नई बातें भी बतलाई गई हैं। 'चौरासी वैष्णवन की बार्ता' तथा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' के तीन संस्करण माने जाते हैं। मूल रूप में इन वार्ताओं का जन्म मौखिक कंथन और प्रवचन द्वारा हुआ । श्री गोकुलनाथ जी कथा प्रवचनों में 'बैठक चरित्र, बरू वार्ता और सेवकों से सम्बंध रखने वाले चरित्र (वार्ता के प्रसंग ) वर्णन करते थे ।' इस प्रथम संस्करण का समय सं० १६४२ से १६४५ तक माना गया है । इसके कुछ समय पश्चात् 'संग्रह की साहजिक मानवीय लिप्सा वृत्ति ने उन्हें सुरक्षित रखने के लिए एक अव्यवस्थित लिखित स्वरूप दिया जिसका समय सं० १६९४ से १७३५ तक माना जाता है । यह द्वितीय संस्करण था जिसमें ८४ और २५२ वैष्णवों का वर्गीकरण किया गया और गोकुलनाथ जी के शिष्य हरिराम ने वार्तायों में गोकुलनाथ जी का नाम निर्देश किया । तीसरा संस्करण श्री हरिराय जी के समय में हुआ । इसी समय हरिणय ने भाव प्रकाश' नामक टिप्पण भी लिखा । इस प्रकार वार्ताओं को प्रामाणिक प्रमाणित अवश्य किया गया परंतु इतिहास और जीवन-चरित्र के लिये इसकी उपयोगिता नगण्य है । इसका कारण यह है कि ये वार्ता-ग्रंथ
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Ach
जीवनी खंड बहुत कुछ पुष्टि मार्ग के पुराण हैं जिनमें अलौकिक और अतिमानुषिक बातों का समावेश है केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा। 'श्री प्राचार्य जी महाप्रभून के सेवक कृष्णदास मेघन छत्री तिन्की-बार्ता' के प्रथम प्रसंग में मिलता है :
'बहुर बद्रिकाश्रम ते आगें पधारे जहाँ जीव की गम्य नाहीं है। तहाँ बेदब्यास जी को स्थान है तहाँ पधारे । तब कृप्या दास सों कयौ जो तू टाड़ो रहियो। तब श्री प्राचार्य जी महाप्रभू आगे पधारे । तब वेदव्यास जी साम्हें आये । सो श्री प्राचार्य जी महाप्रभून को अपने धाम में ले आये । पाछे वेदव्यास जी ने श्री प्राचार्य जी महाप्रभून सो कह्यौ जो तुम नै।श्री भागवत की टीका कीनी है सो मोको सुनावौ। तब श्री प्राचार्य जी महाप्रभून ने जुगल गीत के अध्याय को एक श्लोक कह्यौ । सो श्लोक :
वाम वाहु कृत वाम कपोलो वलितरभ्रू धरार्पित वेणु।
कोमलांगुलि निराश्रित मार्ग गोप्यईर यति यत्र मुकुन्दः ।। या श्लोक की व्याख्यान कह्यौ सा तान दिन में सम्पूर्ण भयो । तब वेदव्यास जी ने वीनती करी जो मैं चा भागवत के व्याख्यान का अब धारना करि सकत नाही तातें अब क्षमा करी । पाछे श्री प्राचार्य जो महाप्रभून ने वेदव्यास जी सो कह्यौ जो तुम वेदांत के ऐसे सूत्र कहा कीये जो मायावाद पर अर्थ लग्यो। तब व्यास जी ने कह्यौ जो में कहा करूँ मोको अाज्ञा ही ऐसी हुती जो ऐसे अर्थ करियों । तब श्री प्राचार्य जी महाप्रभून ने कहा जो में ब्रह्मवाद पर अर्थ कियो है सो व्यास जी को सुनायो सो व्यास जो सुनकर बहुत प्रसन्न भए ।
चौरासी वैष्णवन की वातो, डाकोर संस्करण सं० १९६० पृ०८] इस वैज्ञानिक युग में इस प्रसंग की सत्यता पर कोई विश्वास नहीं कर सकता। वार्ताकार ने बल्लभ सम्प्रदाय वालों को प्रशंसा में ऐसे कितने ही प्रसंगों की अवतारणा की है, परंतु जो इस सम्प्रदाय से अलग थे और जिनका प्रभाव इस सम्प्रदाय के उत्कर्ष में बाधक प्रमाणित हो रहा था अथवा हो सकता था उनकी निन्दा और अपमान करना भी इस ग्रंथ का एक उद्देश्य जान पड़ता है। वृंदावन के रूप-सनातन के प्रभाव से ब्रज-मंडल में बल्लभ
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२०
मीराँबाई
सम्प्रदाय की बड़ी क्षति हो रही थी और पश्चिमी भारत -- राजस्थान और गुजरात में मीराँबाई के व्यक्तित्व के कारण इस सम्प्रदाय के उत्कर्ष में बाधा पड़ रही थी । इसीलिये इनको अपदस्थ करने के लिए जहाँ-तहाँ इनक उल्लेख किया गया है। परंतु इससे भी एक लाभ ही हुआ । साम्प्रदायिक संकीर्णता के कारण वार्ता में मीराँबाई की | महत्ता प्रकट करने वाले केवल लौकिक प्रसंग
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अलौकिक और अद्भुत प्रसंगों का संकेत भी नहीं है, ही उसमें वर्णित हैं और यद्यपि इनमें मीरों का अपमान करने का ही प्रयत्न किया गया है, फिर भी सावधानी से उपयोग करने पर बहुत कुछ उपयोगी सामग्री मिल सकती है । 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में मीराँबाई से सम्बंध रखने वाले निम्नलिखित श्रवतरण मिलते हैं :
( १ ) गोविन्द दुबे साचोरा ब्राह्मण तिनकी वार्ता
और एक समें गोविन्द दुबे मीराँबाई के घर हुते तहाँ मीराँबाई सो भगवार्ता करत टके । तत्र श्री श्राचार्य जी ने सुनी जो गोविन्द दुबे मीराँबाई के घर उतरे हैं सो अटके हैं, तब श्री गुसाईं जी ने एक श्लोक लिखि पठायो सो एक ब्रजवासी के हाथ पठायौ तब वह ब्रजवासी चल्यो सो वहाँ जाय पहुँचे, ता समय गोविन्द दुबे सध्यावंदन करत हुते, तब ब्रजवासी ने ग्राय के वह पत्र दीनों सो पत्र बाँचि के गोविन्द दुबे तत्काल उठे, तब मीराँबाई ने बहुत समाधान कीयो, परि गोविन्द दुबे ने फिर पाछें देखौ |
[ प्रसंग २ चौ० बै० की वा टाकोर सं० १९३० पृ० १२६-१२७ ( २ ) श्रथ मीराँबाई के पुरोहित रामदास तिनकी वार्ता
सों एक दिन मीराँबाई के श्री ठाकुर जी के आगे रामदास जी कीर्तन करत हुते सो रामदास जी श्री श्राचार्य जी महाप्रभून के पद गावत हुते, तब मीराँबाई बोली जो दूसरौ पद श्री ठाकुर जी कौ गावो तब रामदास जी ने कह्यौ मीराँबाई सो जो रे दारी रांड यह कौन को पद है । यह कहा तेरे खसम कौ मूँड़ है जो जा ाज से तेरौ मुहड़ौ कबहूँ न देखूंगी । तब तहाँ ते सब कुटुम्ब को ले के रामदास जी उठि चले तब मीराँबाई नें बहुतेरो कह्यौ परि रामदास जी रहे नाहीं । पाछें फिरि के वाको मुख न देख्यौ । ऐसे अपने प्रभून साँ
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जीवनी खंड
अनुरक्त. हुते । सो वा दिन ते मीराबाई को मुख न देख्यौ, बाकी वृत्ति छोड़ दीनी,फेर वाके गाँव के आगे होय के निकसे नाहीं । मीराबाई ने बहुत बुलाये परि वे रामदासजी श्राये नाहीं । तव घर बैठे भेंट पठाई सोई फेरि दीनी
और कहाँ जो राँड तेरो श्री प्राचार्य जी महाप्रभून ऊपर समत्त्व नाहीं जो हमको तेरी वृत्ति कहा करनी है ।
[प्रसंग १ चौ० बै० को वा० डाकोर सं० ९९३० ५० १३१ १३२ ] (३) अथ कृष्णदास अधिकारी तिनकी वार्ता
सो वे कृष्णदास शूद्र एक बेर द्वारका गये हुते मो श्री रणछोर जी के दर्शन करिके तहाँ ते चले सो श्रापन मीराँबाई के गाँव अायै सो वे कृष्णदास मीराँबाई के घर गयै तहाँ हरिवंश ब्यास प्रादि दे विशेष सह वैष्णव हुते सो काहू को प्राय बाट दिन काहू को प्रायै दश दिन काह को प्रायै पंद्रह दिन भये हुते तिनकी विदा न भई हुती और कृष्णदास ने तो अाबत ही कहीं जो हूँ तो चलंगौ। तब मीराबाई ने कही जो बैटो तब कितनेक मोइर श्रीनाथ जी को देन लागी सो कृष्णदास ने न लीनी और कह्यो जो तु श्री ग्राचार्य जी महाप्रभून की सेवक नाही होत ताते तेरी भेंट हम हाथ ते छुवेंगे नाहीं सों ऐसे कहिके कृष्णदास उहाँ ते उठि चले।
प्रसंग १ चो० वै० की बा० डाकोर सं० १९६० ] इन उद्धरणों से हम तीन प्रकार के निष्कर्ष निकाल सकते हैं। पहला निष्कर्ष मीराँबाई के समय के सम्बंध में है । पहले उद्धरण के प्रसंगानुसार मीरों श्री बल्लभाचार्य की समकालीन ठहरती हैं। बल्लभाचार्य की मृत्यु सं० १५८७ में हुई थी; अतः यह प्रसंग इसमें पहले किसी समय का होगासम्भवतः सं० १५८० से १५८५ के बीच किसी समय का जान पड़ता है। उस समय मीराँबाई उस अवस्था को प्राप्त कर चुकी थीं जब कि गोविन्द दुबे जैसे महाप्रभु के पट शिष्यों को भी उनसे भगवद्वार्ता करते हुए अटकना पड़ता था। अस्तु, उस समय मीराँ की अवस्था २५ वर्ष से कम न रहो होगी, अतएव उनका जन्म काल सं० १५५५ और १५६० के बीच में टहरता है । तीसरे उद्धरण से वे कृष्णादास अधिकारी, हित हरिवंश और
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२२
मोराँबाई
ब्यास की समकालीन टहरती हैं । कृष्णदास अधिकारी का समय सं० १५५४ से १६३४ तक और हितहरिवंश का सं० १५५६ से १६५६ तक माना गया हैं; अस्तु, मीरों का समय निश्चित रूप से सं० १५५५ से सं० १५६० के बीच में जान पड़ता है। तीसरे उद्धरण से पता चलता है कि जब कृष्णदास अधिकारी मीरा के घर पहुँचे उस समय वहाँ हित हरिवंश के साथ ही साथ ब्यास भी थे । ये व्यास ( हरीराम ब्यास ) पहले प्रोडछा महाराज के राजगुरु
और एक प्रसिद्ध शास्त्रार्थी विद्वान् थे। सं० १६२२ के अासपास गुसाई हित हरिवंश से शास्त्रार्थ करने जाकर उनके शिष्य हो गए थे । हित हरिवंश
और व्यास की एक साथ उपस्थिति यह प्रमाणित करती है कि तीसरे उद्धरण का प्रसग सं० १६२२ के पश्चात् किसी समय का है, यह भी असम्भव नहीं है कि ये दोनों महात्मा दैव संयोग से अलग अलग एक ही समय मीराँबाई के घर पहुँचे हों जैसे कि कृष्णदास भी पहुँच गए थे; परंतु सं० १६२२ से पहले व्यासजी वैष्णव प्रसिद्ध न थे और न इस प्रकार किसी के घर पहुँचते ही थे क्योंकि तब तक उनका एक मात्र उद्देश्य शास्त्रार्थ करना हुया करता था। परंतु इस प्रसग में वे वैष्णव लिखे गए हैं, अतएव यह प्रसंग निश्चित रुप से सं० १६२२ के पश्चात् किसी समय का है । इस प्रकार मीराँबाई का सं० १६२२ के बाद तक जीवित रहने का प्रमाण मिल जाता है।
दूगरा निष्कर्ष मीरों की शिक्षा-दीक्षा और उनकी प्रकृति से सम्बन्ध रखता है। इन अवतरणों से पता लगता है कि बल्लभ सम्प्रदाय वालों के
१ विद्या-विभाग कांकरोला से प्रकाशित 'प्राचोन यात्तो रहस्य' द्वितीय भाग में जो कृष्णदास अधिकारी की वार्ता दी गई है, उसके प्रथम प्रसंग में हरिवंश और व्यास का उल्लेख नहीं मिलता जैसा कि डाकोर ने प्रकाशित संस्करण में मिलता है। उसो ग्रन्थ के गुजराती अंश के अनुसार कृष्णदाल और मीराबाई की मिलन-तिथि सं० १५८२ के पश्चात् सं १५८३ के आस पाम निश्चत की गई है। यदि प्राचीन वार्ता रहस्य का पाठ प्रामाणिक ठहराया जाय तो मीरां के न. १६२२ तक जीवित रहने का प्रमाण इस पसंग से नहीं मिल सकता ।
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Achar
जीवनी खंड उचित और अनुचित सभी प्रकार के प्रभाव डालने पर भी मीरा कभी उस सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं हुई। उनकी शिक्षा इस कोटे की हुई थी कि वे बिना किसी बाधा के माधु-संतों की संगति करती और भगवद्वार्ता करती हुई बड़े बड़े संतों और विद्वानों से मोरचा लेती थीं। उनकी प्रकृति बहुत ही स्वतंत्र जान पड़ती है जिससे वे किसी सम्प्रदाय-विशेष में न रह सकती थीं। फिर भी वे अत्यन्त उदार थीं और अन्य मतों और संतों को भाँति उनमें साम्प्रदायिक संकीर्णता न थी। जब कि पुरोहित रामदास एक ज़रा सी बात पर गालियों की बौछार करते हैं, उस समय मीराँ उन्हें घर बैठे भेंट भेजती हैं । जहाँ कृष्णदास अधिकारी मीराँ का अपमान करना ही अपना कर्तव्य और धर्म समझते थे, वहाँ मीराँ ने उनका उचित आदर किया और श्रीनाथ जी के लिए भेंट भी भेजना चाहा। वह उनके चरित्र की महानता सूचित करती है।
तीसरा निष्कर्ष मीराँवाई की कीर्ति के सम्बन्ध में है। तीसरे अवतरण में जब कृष्णदास मीरों के घर पहुँचते हैं तब वहाँ हित हरिवंश और व्यास जैसे विख्यात वैष्णव मिलते हैं जो सम्भवतः मीरों की कीर्ति सुनकर उनके दर्शन के निमित्त त्र्याए जान पड़ते हैं | नुसाई हितं हरिवंश संस्कृत के अच्छे विद्वान् , भाषा के प्रसिद्ध कवि और राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक ये
और व्यास जी भी संस्कृत के प्रकांड पंडित और भाषा के सुकवि थे । स्वयं कृष्णदास भी मीरों के घर उनका अपमान करने ही नहीं गए थे वरन् उनका उद्देश्य भी हरिवंश और व्यास की भाँति मीराँ का दर्शन करना ही जान पड़ता है।
'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में मोरांबाई का उल्लेख बहुत हो कम है । गुसाई विडलनाथ की सेविका अजब कुंवर बाई को वार्ता से पता चलता है कि मीराँचाई की ससुराल मेवाड़ में थी और उनकी किसी देवरानी का नाम अजब कुंअर बाई' था। इसके अतिरिक्त मेरता ग्राम के निवासी १ श्री गुसाई जी के सेवक अजब कुवर बाई तिनको वार्ता
सोवे अजब कुंवर बाई मेवाड़ में रहेती हती मीराबाई की देरानी हती।
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मीराँबाई
हरिदास बनिया की वार्ता में किसी 'जैमल की बेन' का उल्लेख मिलता है जो गुसाई जी की शिष्या हो गई थी। इस 'बेन' को कुछ विद्वानों ने ' मीराँबाई ही मान लिया है, परंतु भली भाँति विचार करने पर यह बात ठीक नहीं जान पड़ती । मीराँबाई जयमल की चचेरी बहन अवश्य थीं, परन्तु परदे में रहनेवाली तथा गुसाई विट्ठलनाथ की शिष्या होने वाली यह 'राजा जैमल की बेन' मीराँबाई के अतिरिक्त कोई अन्य बहन रही होगी; क्योंकि मीराँबाई तो अपने ससुराल में भी परदा न करती थीं और गोविन्द दुबे, रामदास पुरोहित, कृष्णदास अधिकारी आदि सभी से निर्भय भगवद्वार्ता करती थीं और वे कभी भी बल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित नहीं हुई जैसा कि 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' से स्पष्ट है ।
वार्ताओं के पश्चात् ध्रुवदास की 'भक्त नामावली' ( रचना- काल सं० १६६८) में मीराँ का उल्लेख तो अवश्य मिलता है, परन्तु उनके सम्बंध में किसी महत्त्वपूर्ण घटना या प्रसंग का वर्णन नहीं है, न तो उससे कोई आवश्यक निष्कर्ष ही निकाला जा सकता है; केवल चार दोहों में नाभादास के प्रसिद्ध छप्पय की प्रतिध्वनि की गई है । वे दोहे इस I प्रकार हैं :
प्रति हेत ।
लाज छाँड़ि गिरिधर भजी, करी न कुछ कुल कानि । सोई मीराँ जग विदित, प्रकट भक्ति की खानि ॥ ललिता हूँ लइ बोलिके, तासो हौं आनँद सों निरखत फिरत, वृन्दावन रस खेत ॥ नृत्त्यत नूपुर बाँध कै, गावत लै करतार | विमल हीय भक्तन मिल्यो, तृन सम गन्यो संसार || बंधुनि विष ताकौं दयो, करि विचार चित श्रान । सो विष फिर अम्रत भयो, तब लागे पछतान ॥ नाज छोड़कर गिरधर लाल की भक्ति और विषपान - ये दोनों बातें
१ डा० रामकुमार वर्मा, हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पू ० ६८९ ।
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जीवनी खंड
२५
और गाना-अतिरिक्त इनमें भी
'भक्तमाल' के समान इसमें भी वर्णित है । रसक्षेत्र वृंदावन में मीरा का निवास और प्रेम तथा भक्ति के उमंग में नाचना - इनमें एक नवीन और उपयोगी सामग्री मिलती है। इसके मीरों की भक्ति भावना की प्रशंसा की गई है। आगे चलकर देव कवि नेमीरों की माधुर्य भाव की व्यविचल भक्ति की बड़ी सुन्दर अभिव्यंजना दो कवित्तों में की। प्रियादास ने 'भक्तमाल' की टीका में २० कवित्त लिख कर मीरों के सम्बंध में प्रचलित सभी जनश्रुतियों का संग्रह किया जो घुराजसिंह - रचित 'भक्तमाला' में प्रति विस्तार के साथ मिलता है । इन सब का विचार जनश्रुतियों के अंतर्गत किया जायगा ।
३
इतिहास और जनश्रुति - सत्रहवीं शताब्दी के साहित्य में मीराँबाई का थोड़ा बहुत उल्लेख तो मिल जाता है, परन्तु उस समय के लिखे गए मुसलमानों के इतिहास ग्रंथ तथा राजस्थान की ख्यातों में मीरों का नाम भी नहीं है । सम्भवतः स्त्री होने अथवा वीर राजपूती धर्म का परित्याग कर भक्ति-धर्म का स्वागत करने के कारण वे इतिहास की दृष्टि में उपेक्षित प्रमाणित हुई; परन्तु मी तो अपनी भक्ति भावना के प्रभाव से उस अविचल कीर्ति की स्वामिनी बनीं जो इतिहास की अपेक्षा नहीं करती वरन् समस्त राष्ट्र और जाति की सम्पत्ति बन जाता है और जिसे साधारण जनता कविता और गीतों, कथा और कहानियों, चमत्कृत कार्यों और लौfor प्रसंगों के रूप में सर्वदा स्मरण करती रहती है । सारांश यह कि इतिहास की सीमा पार कर मीरों काव्य और जनश्रुति का विषय बन गई।
,
मीबाई के सम्बंध में उत्तरी भारत के लगभग सभी प्रांतों में अनेक जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं | राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, मध्यदेश तथा सुदूर बंगाल तक में मीरों के सम्बंध में अनेक कथाएँ कही जाती हैं। उनकी पूर्व भक्ति भावना और जीवन-सौन्दर्य से प्रभावित होकर कवियों ने, भक्तों ने और साधारण जनता ने कितनो ही कथाओं की सृष्टि की जो मौखिक - परम्परा से
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२६
- मीराँबाई अाज तक चली आ रही हैं और जिन्हें साहित्य में जनश्रु ति की संज्ञा प्रदान की गई है।
इन जनश्रुतियों के पीछे तीन-चार प्रमुख भावनाएं काम करती दिखाई पड़ती हैं । पहली भावना नियति के अन्यायों के प्रति कवि हृदय का असंतोष है। यह वही असंतोष है जिससे प्रेरित होकर कवियों ने “नाम चतुरानन पै चूकते चले गये" कह कर विधाता तक की खबर ली है। नियति सर्वदा से महापुरुषों के प्रति अन्याय करती श्राई है । जिन गोस्वामी तुलसीदास ने 'कलिकुटिल जीव निस्तार हित' ऐसे रामचरित-मानस का निर्माण किया जिसके एक अक्षर के उच्चारण मात्र से करोड़ों पापों का प्रक्षालन हो जाता है, उन्होंने कहा जाता है, स्वयं किसी पीड़ा से परितप्तं हो बड़े कष्ट से प्राण छोड़ा था। उस, महान् कवि और आत्मा के प्रति नियति का यह कितना कठोर उपहास है। कवि-हृदय नियति के ऐसे अन्यायों को सहन नहीं कर पाता और उन पर परदा डाल देने के लिए ऐसी कथाओं की सृष्टि करता है जो भौतिक सत्य न होने पर भी काव्य-न्याय' की दृष्टि से परम सत्य जान पड़ती हैं । मीराँ की मृत्यु के सम्बंध में भी एक इसी प्रकार की कथा प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि मीराँ को मनाकर चित्तौड़ लौटा लाने के लिये मेवाड़ के महाराणा ने कुछ ब्राह्मण द्वारका भेजे थे। वे विनगण् मीराँ से मेवाड़ लौट चलने का आग्रह करने लगे
और द्वार पर धरना देकर बैठ गए । मीरौं अपने इष्टदेव श्री रणछोर जी से ग्राज्ञा लेने मंदिर में गई और वहीं मूर्ति के सामने नाचती-गाती२ उमी में
१ यह शब्द अंग्रेजी के पोईटिक जस्टिस का अनुवाद है । हमारे प्राचीन नाट्य-शास्त्रों में जो सुखांत नाटक लिखने की प्रथा है उसके मूल में भी काव्य-न्याय का सिद्धांत दिखाई पड़ता है।
२ जिन पदों को गाती हुई मीराँ रणछोर जी की मूर्ति में समा गई थीं वे पद इस प्रकार हैं:
हरि तुम हरो जन की भीर ॥ टेक ।। द्रोपदी की लाज राख्यो तुम बढ़ायो चीर ।।१।। भक्त कारन रूप नरहरि धरयो श्राप सरीर ॥ २ ॥ हिरनकस्यप मारि लीन्हो धरयो नाहिन धीर ।। ३ ।।
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जीवनी खड
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विलीन हो गई । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने पर यह एक असम्भव घटना प्रतीत होती है । किसी व्यक्ति का अचानक एक पत्थर की मूर्ति में विलीन होना तो कभी देखा नहीं गया परन्तु जब हम मीरों के सम्पूर्ण जीवन पर विचार करते हैं, उनके माधुर्य भाव की तीव्रता का अनुभव करते हैं, उनके उत्कट विश्वास को ध्यान में लाते हैं, तब अपनी कवित्वपूर्ण प्रतिभा की स्फूर्ति में नाचतो-गाती हुई मोरों का अपने इष्टदेव की मूर्ति में समा जाना ही परम सत्य जान पड़ता है । कम से कम काव्य की दृष्टि से इससे बढ़कर दूसरा कोई सत्य नहीं है। __महाराष्ट्र के प्रसिद्ध वैष्णव कवि महीपति ने अपने काव्य-ग्रंथ 'भक्तिविजय' ( रचना काल सं० १८१६-२०) में मीराँ की जो कथा लिखी है वह
भौतिक जीवन के सत्य के प्रति एक भारी असंतोष की भावना से पूर्ण है। जिनका अविचल निश्चय था कि :
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥ और जिन्होंने स्वष्ट शब्दों में लिखा था कि
कानुडे न जाणी मोरी प्रीत, वाई हुँ तो बाल कुवारी रे। उन 'बाल कुवारी' मीराँ का उदयपुर के राजकुमार भोजराज के साथ विवाह कैसा ? ऐतिहासिक सत्य होने पर भी यह काव्य का सत्य नहीं हो सकता।
बूड़ते गज रज राख्यो कियो बाहर नीर ॥ ४ ॥ दास मोरा लाल गिरधर दुख जहाँ तह पीर ॥ ५ ॥
साजन सुध ज्यों जाने त्यों लीजे हो॥ तुम बिन मेरे और न कोई कृपा रावरी कीजे हो । दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा यों तने पल पल छीजे हो।
मीरा कह पनु गिरधर नागर मिलि बिछुरन नहिं कीजे हो। नीरा जिस मूर्ति में समा गई थी वह मूर्ति अब डाकोर इलाके गुजरात में है और उनका चीर अब तक भी भगवत भक्तों को रणछोर जी के बगल में निकला हुआ दिखाई देता है ।
[ मीरा बाई का जीवन चरित्र...नु० देवी प्रसाद रचित पष्ठ २७ ]
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२८
मीराँबाई
इसीलिए तो कवि ने मीराँ को कुमारी ही रक्खा है। 'भक्ति-विजय' की कथा के अनुसार मीराँ मेवाड़ के एक परम वैष्णव राणा की कन्या थी । जब कन्या केवल एक दिन की थी, राणा ने उसे भगवान् कृष्ण की मूर्ति के चरणों में डाल दिया । बारहवें दिन उस कन्या का मीराबाई नाम पड़ा। मीराँ ने बचपन में ही गिरधरलाल की मूति से विवाह कर लिया था । अपने लौकिक विवाह का वह सर्वदा विरोध करती रही । ईश्वरपरायण पिता ने उसका विरोध स्वीकार कर उसका विवाह नहीं किया। परन्तु लोक-निन्दा तो अपना कार्य करती ही रही। मीराँ के कौमार्य तथा साधु-संतों की निरंतर संगत से जनता में भारी असंतोष फैल गया था । अंत में लोक-मत से विवश होकर राणा ने मीरा का विवाह करने का निश्चय कर लिया, परन्तु मीराँ इसके लिए किसी प्रकार भी प्रस्तुत न हई । और कोई चारा न देख राणा ने रानी द्वारा विष का प्याला मीराँ के लिए भेजा । भगवान् पर अपनी भावनाओं को एकाग्र कर मारा अपनी माता के सामने ही हलाहल-पान कर गई । विष-पान का उस पर कोई भी प्रभाव न पड़ा, वरन् गिरधर लाल ( मूर्ति) का मुख विवर्ग हो गया । राणा को जब ज्ञात हुआ कि उन्होंने अपनी मूर्खता के कारण अपने इष्टदेव भगवान् को ही हलाहल-पान कराया तो उनके दुःख की सीमा न रही। अंत में मीरों के विनय से भगवान् फिर अपने श्यामल स्वरूप में परिणत हो गर, केवल मीराँ का गौरव चिह्न बनाए रखने के लिए याद भी गिरधरलाल की मूति के कंठ में एक विवर्ण-चिह्न मिलता है।
दूसरी ओर एक बंगाली लेखक ने मीरों को जो कथा 'भारतीय बिदुपी' में लिखी है, उसमें वे केवल भक्त ही नहीं, वरन् शकुंतला की भाँति प्रेम और सौन्दर्य की भव्य प्रतिमा भी है उनकी स्वर लहरी में श्रद्धत अाकर्षण है: उनका अातिथ्च अादर्श है; वे पुष्प के समान निदोष और सती नारियों के समान पति की आज्ञानुवर्तिनी हैं । सारांश यह कि व यादर्श ईश्वर भक्त
१ रामजी लाल शर्मा द्वारा मूल बंगला से अनुवादित । इस ग्रंथ में भारत की पसिद्ध विद्वान् और गुणी स्त्रियों का जीवन चरित्र वर्गिन है।
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जीवनी खंड
२६
ही नहीं, शील, गुण और सौन्दर्य में भी अद्वितीय हैं; उनमें समस्त कामिनीजनोचित गुणों और सौन्दर्य का अद्भुत आकर्षण है । ___ मध्यदेश के कवि हृदय ने न तो ऐतिहासिक सत्य के प्रति असंतोष प्रकट किया, न मीराँ को श्रादर्श नारी के रूप में चित्रित किया, वरन् उसने भागवत से मीराँ की एक उपमा हूँढ़ निकाली-ब्रज-गोपी । ब्रज की गोपियाँ भी मोस् के समान विवाहिता थीं, परंतु भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति उनका स्वकीया कासा प्रेम था । मीरों की भक्ति-भावना भी ठीक उसी कोटि की थी। सबसे पहले भक्त कवि नाभादास ने ही यह नाम्य ढूंढ़ निकाला था । 'भक्तमाल' में वे मीरों के सम्बंध में लिखते हैं :
सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहिं दिखायो।
निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो । फिर देव कवि के दो कवित्तों में इस उपमा का कवित्वपूर्ण विकास हुआ। कवि ने मीराँ के मुख से कहलवाया है :
कोई कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहो,
कोई कहौ रंकिनि कलंकिति कुनारी हौं। कैसो नरलोक, परलोक, वरलोकनि में,
लीन्हीं मैं अलीक लाक-लीकनि ते न्यारी हो ।। तन जाऊ, मन जाऊ देव गुरुजन जाऊ,
प्रान किन जाउ टेक टरति न टारी हौं। वृन्दावनवारी वनवारी की मुकुट वारी,
पीतपट वारी वहि मूरति पै वारी हो । कैसी कुलबधू ? कुल कैसो ? कुलबधू कौन ?
तू है यह कौन पूछ काहू कुलटाहि री । कहा भयो तोहि, कहा काडि तोहि तोहि मोहिं,
कीधौं और का है और कहा न तो काहि री॥
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३०
मीराँबाई
जाति ही ते जाति कैसी जाहि को है जाति चेरी,
तो सों ह्रौं रिसानी मेरी मां सों न रिसाहिरी । 'लाज गहु, लाज गहु'- लाज गहिबे को रही, पंच हँसि हैं री हौं तो पंचन त बाहिरी ॥
परंतु इतने से भी जनता के कवि हृदय को संतोष न हुआ। अस्तु, सादृश्य की इस भावना को और आगे बढ़ाकर उसने मीरों को ब्रज-गोपी का अवतारनिश्चित किया । मीराँ के नाम से प्रसिद्ध कितने ही पदों में इस बात की ओर संकेत मिलता है । यथा :
मेरे प्रीतम प्यारे राम ने लिख भेजूँ री पाती ॥ टेक ॥ स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हों, जान बूझ गुरु बाती ॥
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तुम देख्याँ बिन कल न परत है, हियो फटत मोरी छाती ॥ मीरा कहे प्रभु कब रे मिलोगे पूर्व जनम के साथी | [ मी० शब्दा० वे०प्र० ५०२१] और भी राणा जी म्हारी प्रीत पुरबली मैं क्या करूँ ।
८
राम नाम बिन घड़ा न सुहावे, राम मिले मेरा हियरा ठराय || [ मी० शब्दा० पृ० ३५
और भी हेली म्हाँसू हरि बिन रह्यो न जाय ।
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पूर्व जन्म की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय । मीरा के प्रभु गिरधर नागर और न श्रावे म्हाँरी दाय ॥ [मी० शब्दा० पू० ३८ ]
और एक पद में तो स्पष्ट रूप से लिखा मिलता है कि
पूरब जनम की मैं हूँ गोपी का अधविच पड़ गयो झोलो रे । तेरे कारण सब जग त्यागो, अब मोहे कर सों लो रे || मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चेरी भई बिन मोलो रे ॥
[ राग कल्पद्रुम प्रथम भाग पृ० ३२७
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. जीवनी खंड
इतना ही नहीं इस बीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक युग में भी गुजरात के प्रसिद्ध विद्वान् और लेखक काका साहब कालेलकर ने मीराँबाई को राधा जी का अवतार माना है। 'जन्माष्टमी का उत्सव' नामक निबंध में वे लिखते हैं"गोपिकानों के प्रेम को मीराबाई ने स्पष्ट कर दिखाया है । जब-जब धर्म पर से लोगों की श्रद्धा हट जाती है, तब तब उसको फिर से स्थिर कर देने के लिए मुक्त पुरुष इस विश्व में अवतार धारण करते हैं, और अपने प्रत्यक्ष अनभव और जीवन के द्वारा लोगों में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करते हैं। इसी तरह जब लोगों को गोपियों की शुद्ध भक्ति के विषय में अश्रद्धा उत्पन्न हुई, तब गोपियों में से एक ने-शायद राधा जी ने-मीराँबाई का अवतार लेकर प्रेमधर्म की स्थापना की।" [जीवन साहित्य प्रथम भाग प्र० संस्करण सन् १९२७ जन्माष्टमी का उत्सव ५० ३८]
यदि कवि हृदय ने मीरों को अवतार निश्चित किया तो भक्तों ने उन पर देवत्व का अारोप किया और उनके सम्बंध में अलौकिक और अतिमानुषिक प्रसंगों का प्रचार किया । मीराँ के नाम से प्रसिद्ध पदों में पिटारे में भेजा हुआ साँप कभी शालिग्राम की मूर्ति बन जाता है, कभी चंदनहार बन कर महलों में उजाला करता है; सूल सेज मीराँ के लिए पुष्प शैया और विष का प्याला साकार अमृत बन जाता है । मुं० देवीप्रसाद ने लिखा है कि कोई लोग यह कहते हैं कि राणा ने मीरों के लिए जो विष का प्याला भेजा था उस विष का मीराँ पर कुछ असर न हुश्रा बल्कि द्वारिका जी में रणछोर जी के मुंह से भाग निकले थे। एक पद ऐसा भी मिलता है कि विष का प्याला पीकर मीराँ सो जाती हैं और उन्हें जगाने के लिए गरुड़ पर चढ़कर स्वयं उनके श्याम पाते हैं :
राणे जी विषरा प्याला मोकल्या दीजो मीरा रे हाथ । मैं तो चरणामृत कर पी गई अब थे जाणे म्हारा नाय ।। मीरा विष का प्याला पी गई, सोती खू टी तान ।
म्हाँरो दरद दिवाणा साँवरो म्हाँने दौड़ जगावे पान ।। १ मीराबाई का जीवन चरित्र प.० १४
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मीराँबाई
गरुड़ चढ़ि हरि अब पाए मीरा के पास । श्रानँद तूर बजाइ के पूरी मन की बास ॥
[राग कल्पद्रुम द्वितीय भाग पू. ० ६७१ ] 'माइलस्टोन्स इन गुजराती लिटरेचर' (Milestones in Gujarati Literature) के रचयिता कृष्णलाल मोहनलाल मबेरी ने गुजरात में प्रचलित जनश्रति के आधार पर लिखा है कि जब राणा ने देखा कि मीराँ पर विष का कुछ भी प्रभाव न पड़ा तब उन्होंने स्वयं तलवार से मीरों का अंत करना चाहा, परंतु उनके तलवार उठाते ही एक साथ चार-चार मीराबाई दिखाई पड़ी और वे निश्चय ही न कर सके कि वास्तविक मीरा कौन सी है। मेकालिफ़ (M.Macaulif) ने 'द लीजेंड प्राव मीराँबाई (The Lerend of Mira Bai) में लिखा है कि राणा ने मीराँ को तलवार के घाट उतारना चाहा, परंतु क्षत्रिय होकर अबला की हत्या करना महापातक समम कर मीराँ को तालाब में डूब मरने की याज्ञा दी । सवेदा बड़ों की याज्ञानुवर्तिनी मीराँ अपने गिरधर लाल का ध्यान करती हुई पुष्कर में कूद पड़ीं, परंतु वहाँ भी वे डूब न सकीं, एक दिव्य पुरुष ने उन्हें पुष्कर के किनारे लगा दिया और अाज्ञा दी कि वृंदावन जाकर भगवान कृष्ण का गुणगान करें। कुछ जनश्रतियों के अनसार वे दिव्य पुरुष स्वयं मीरों के गिरधर नागर थे इसी प्रकार गिरधर लाल की मूर्ति की प्राप्ति तथा मीराँ और गिरधर लाल के विवाह के सम्बंध में भी अलौकिक कथाएँ प्रचलित हैं। इन जनश्रुतियों के पीछे देवीकरण (Deification) की भावना काम करती दिखाई पड़ती है। ___ कवित्व और देवत्व के श्रारोप के अतिरिक्त कुछ ऐसी जनश्रुतियाँ भी प्रचलित हैं जिनमें लौकिक भावना प्रधान है । इन जनश्रुतियों में सत्य और असत्य का कुछ ऐसा सम्मिश्रण है कि उन पर सहसा विश्वास करना भी उचित नहीं है और असत्य कह कर उनकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। अतः स्थान, काल और पात्र की संगति मिलाकर उनका पूर्ण विवेचन किए बिना कछ कहना ठीक नहीं है । मीरों के सम्बंध में ऐसी कितनी ही जनप्रतियों का प्रचार है जिनमें मुख्य चार जनश्रुतियों का यहाँ विवेचन किया जायगा।
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जीवनी खंड
सबसे पहले तानसेन को साथ लेकर मुगल-सम्राट् अकबर का मोस् के दर्शन के लिए मेवाड़-गमन की कथा पर विचार करना है। इस जनश्रुति का प्राचीनतम उल्लेख प्रियादास कृत 'भक्तमाल' की टीका में मिलता है: रूप की निकाई भूप अकबर भाई हिये
लिये संग तानसेन देखिबो को श्रायो है। निरखि निहाल भयो छबि गिरधारी लाल,
पद सुख जाल एक तब ही चढ़ायो है | बाद में रघुराजसिंह कृत 'भक्तमाला' में इसका बहुत अधिक विस्तार मिलता है जो सबका सब अलौकिक और असत्य है । मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार अकबर सं० १६२४ में मेवाड़ पर चढाई करने के लिए ही पहले-पहल वहाँ गया था और सं० १६२० के लगभग सम्राट ने रामचंद्र बघेला से तानसेन को प्राप्त किया था। अतएव सं० १६२० से पहले अकबर का तानसेन के साथ मेवाड़ जाना असम्भव ही था । परंतु जहाँ तक खोज हुई है, उससे यह निश्चित है कि मीराँ इस समय से बहुत पहले ही,सम्भवतः अकबर के जन्म(सं०१५६६) से भी पहले मेवाड़ छोड़ चुकी थीं और उस समय द्वारका में निवास करती थीं। अस्तु, स्थान और काल को दृष्टि से यह जनश्रुति असंगत ठहरती है। कुँवर कृष्ण ने अपने निबंध' में यह अनुमान लगाया है कि सम्राट अकबर ने मेवाड़ में नहीं गुजरात (द्वारका ) में जाकर सं० १६२६ में मीराँ का दर्शन किया था, परन्तु यह जनश्रुति के विरुद्ध है और केवल अनुमान मात्र है। अकबर ने मीरों के दर्शन के लिए कभी मेवाड़-यात्रा नहीं की और न कभी उनके दर्शन ही किए । प्रियादास ने जो लिखा है वह सम्भवतः असत्य नहीं भी हो सकता, परन्तु इस जनश्रुति में सत्य की मात्रा लेश मात्र भी नहीं है । यदि प्रियादास के उपयक्त कवित्त का अर्थ यह है कि मीराँ की रूप की निकाई देखने के लिए तानसेन के साथ सम्राट अकबर मेवाड़ आया था, तो यह असत्य ही नहीं उपहासास्पद भी है क्योंकि अकबर जब पैदा हुया : १ परिषद् निबंधावली द्वितीय भाग (प्रकाशक हिन्दी परिषद् प्रयाग विश्वविद्यालय) प्रथम निबंध।
मी०३
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३६
मीराबाई (सं० १५६६) था, उस समय मीराँ की अवस्था चालीस वर्ष की थी और जिस समय मुगल-सम्राट ने किसी कामिनी की रूप की निकाई देखने की इच्छा उत्पन होने का अवस्था प्राप्त की होगी, उस समय मीराँ यौवन की अंतिम सीढ़ी पार कर साठ वर्ष की बृद्धा हो गई होंगी। अतः साठ वर्ष की बृद्धा मीरों की रूपकी निकाई देखने के लिए बीस वर्षीय अकबर का गुप्त वेश में मेवाड़ जैसे सुदर प्रवेश की यात्रा करना हास्यास्पद नहीं तो और क्या है ! उपयुक कवित्त का एक दूसरा यह अर्थ भी हो सकता है कि सम्राट अकबर मीरों के इष्टदेव गिरधर लाल के रूप की निकाई देखने आया था और उसने वही देखा भी जैसा कि दूसरे चरण से स्पष्ट है कि भूप गिरधर लाल कि छबि देखकर निहाल हुअा और मीरों के इष्टदेव गिरधर लाल का मूर्ति के चरणों में एक सुखजाल मेंट चड़ाया। जान पड़ता है कि.सं. १६२४ में मेवाड़-विजय के उपरांत चित्तौर के रक्षक वारश्रेष्ठ जयमल (जिसकी वीरता ने सम्राट को मुग्ध कर रखा था ) की बहन मीराबाई की अद्भत कीर्तिनगाथा सुनकर उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि प्रकट करने के निमित्त गुणग्राही अकबर मीरों के नाम से प्रसिद्ध मंदिर में उनके इष्टदेव की मूर्ति के दर्शन के लिए गया होगा और उसा के आधार पर जनता में यह प्रासद्धि हो गई होगी कि सम्राट अकबर मीराँ के दर्शनों के लिए आया था। । सम्राट अकबर का मक्तों के दर्शन के लिए गुप्त वेश में यात्रा करने की
और भी कितनी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। महात्मा हरिदास के दर्शन के लिए 'तानसेन के साथ मुगल सम्राट का निधुवन जाना प्रसिद्ध ही है । 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में बादशाह अकबर का गोविन्द स्वामी का गाना सुनने के लिए गोकुल में यशोदा घाट पर जाने और उनका भैरव राग सुनने की कथा मिलती है। और छातस्वामी की वार्ता में बादशाह अकबर का छिपकर जन्माष्टमी के पालना का दर्शन करने गोकुल में
. दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता ( डाओर संस्करण सं० १९०६ ) गोविन्द स्वामी की वार्ता । प्रसंग १५ । पृष्ट ११
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जीवनी खंड
पाने का प्रसंग मिलता है। इन सब जनश्रुतियों में सत्य की मात्रा लेश भर भी नहीं है, केवल भक्तों के महत्व-प्रदर्शन के लिए ये गढ़ लिए गए हैं।
मारौंबाई और जीव गुसाई के संबंध में जो कथा प्रचलित है वह अत्यन्त महत्वपूस है क्योंकि उसमें मारों के गृह और रहस्यमय सिद्धान्त की सष्ट व्याख्या मिलती है । इस कथा के अनेक रूप प्रचलित है। परन्तु सबसे प्रचलित कथा यह है कि मीरों वन्दावन में भक्त शिरोमणि जीव गोस्वामी के दर्शन के लिए गई। गोस्वामी जा सच्चे साधु थे और स्त्रियों की छाया तक से भागते थे, इसलिए भीतर से ही कहला भेजा की हम स्त्रियो से नहीं मिलते। इस पर मासूबाई ने उत्तर दिया कि मैं तो समझती थी कि वृन्दावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष है, परन्तु यहाँ आकर जान पड़ा कि उनका एक और प्रतिद्वंदी पैदा हो गया है। मारों का ऐसा माधुर्य-भाव संयुक्त प्रेमपूर्ण उत्तर सुनकर जीव गुमाई नंगे पैर बाहर निकल आए बार बड़े ही प्रेम से उनसे मिले। इस कथा का मा उल्लेख सबसे पहले प्रियादास के कवित्तों में मिलता है। यथा:
१ मी बावन बैगवन का वा (हाकोर संस्करण सं० १९६० छीन स्वामी की वार्ता प्रमंग ३। प०१९ । ' २ मु. देवीप्रसाद 'भोरवाई का जोपन चरित्र' पृ. २९ पर इम कथा को इस प्रकार लिखते हैं । ( मीरा), एक दफे मथुरा होकर वृन्दावन को गई थी हां एक ब्रह्मचारी बोला कि मैं की का मुंह नहीं देखता हूँ, मीराबाई ने कहा वाह महाराज अभी तक स्त्री पुरुष में ही उलझे हैं अर्थात् सा दृष्टि नहीं हुए हैं। (यह ब्रह्मचारी और कोई नहीं मार प्रसिद्ध जोव गोस्वामी है।)
श्री सीतारामशरण भगवान प्र-गद जी रूपकला अपने ग्रन्थ 'श्री मीगाई भी. में ५० ४३.४४ पर लिखते हैं के मो. बाई ने प्रसिद्ध महात्मा हा तथा सनातन गोस्वामी के दर्शन किए और जीव गोस्वामी के दर्शों की अभिलाषा प्रकट की। परंतु जब सुना कि वे स्त्रियों का मुख देखना ने दुर रहा उन्हें अपने आश्रम में घुसने तक नहीं देते, तव' उन्होंने एक पत्रिका लिख भेजी कि " श्री वृन्दावन तो श्री बिहारी जी का रङ्गमहल रहस्यकुञ्ज है, और वास्तव में यहाँ को सब की सब केवल स्त्रियां ही है। 'पुरुष' तो एक बजविहारी श्री कृष्णचन्द्र आनन्दकन्द महाराज मात्र ही है। आप विख्यात
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मीराँबाई वृन्दाबन पाई जीव गुसाई जू सो मिल मिली,
तिया मुख देखिबो को पन ले छुटायो है। __ और नाभादास के छप्पय में भी इसका संकेत मिलता है जब कि वे कहते हैं :
भक्ति निसान बजाय के काहू ते नाहिंन लजी। और गौड़ीय वैष्णवों में भी इस जनश्रुति का प्रचार है; अंतर केवल इतना ही है कि वहां जीव गोस्वामी के स्थान पर उनके चाचा रूप गोस्वामी का नाम लिया जाता है। शिशिर कुमार घोष रचित 'लार्ड गौरांग और सैल्वेशन फार अॉल' ( Lord Gaurang or Salvation for All) के प्रथम भाग की भूमिका पृ० ४० पर लिखा है :
जब राजपूत राजकुमारी मीराबाई, जिन्होंने भगवान कृष्ण के प्रेम में सब कुछ त्याग दिया था, श्री गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) के एक प्रमुख भक्त वृन्दाबन निवासी प्रख्यात रूप गोस्वामी के दर्शन के लिए गई तो एक श्रेष्ठमत संन्यासी होने के नाते रूप गोस्वामी ने उनसे मिलना इस कारण अस्वीकार कर दिया कि उन्हें किसी स्त्री का मुख देखने का अधिकार न या। वस्तुतः मीराबाई एक परम सुन्दरी युवती राजकुमारी थीं और मीरा की भक्ति भावना में उन्हें अधिक विश्वास न था । रूप गोस्वामी का संदेश सुनकर 'मीरा ने उत्तर दिया' 'तब क्या वे पुरुष हैं। यदि ऐसा है तो उन्हें बृन्दाबन में घुसने का कोई अधिकार नहीं। पुरुषों का यहाँ प्रवेश नहीं है । यदि बृन्दावन की अधिष्ठात्री देवी को उनकी यहां उपस्थिति की सूचना मिल
विवेकी विश महात्मा होते हुए भी अपने आपको यदि पुरुष मानते हो तो यो जो श्री अन्तःपुरी में आपने स्थान अधिकार किया है, इस निडर साहस की इस आश्चर्यमय धृष्टता की सूचना स्वामिनी श्री राधिका महारानी जी की सेवा में अभी अभी क्यों नहीं पहुँचाई जावे ? सो आप शीघ्रसर बताने की कृपा कीजिये कि सच ही आप अपने तई पुरुष मानते हैं ?" इस पत्रिका को पढ़कर गोस्वामी जी की समझ में आगया कि मौरां कोई सामान्य व्यक्ति नहीं हैं; वरन् द्वापर की गोपी की अवतार हैं । तत्काल ही जीव गुसाई नङ्गे पांव चलकर मीराबाई जी से आ मिले।
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जीवनी खंड
३७
जाएगी तो वे उन्हें यहाँ से निर्वासित कर देंगी। क्या गोस्वामी महात्मा यह नहीं जानते कि समस्त विश्व में एक ही पुरुष हैं और वे मेरे प्रियतम कृष्णकन्हैया है और उनके अतिरिक्त सभी नारी है ।' अव रूप गोस्वामी को विदित हो गया कि मीराँबाई वस्तुतः कृष्ण की परम भक्त हैं और उन्होंने उनसे मिलना स्वीकार किया ।"
स्थान और काल की दृष्टि से विचार करने पर मीराँ और जीव गोसाई की इस जनश्रुति में कोई असंगति नहीं दिखाई पड़ती क्योंकि मीराँबाई का वृंदावन जाना और वहाँ कुछ दिनों निवास करना प्रमाणित ही है और उस समय वृंदावन में जीव गोसाई भी उपस्थित थे और उनकी विद्वत्ता की कीर्ति भी फैल रही थी । परंतु वास्तविक असंगति पात्र की दृष्टि से विचार करने पर प्रकट होती है । जीव गोसाई अवस्था में मीरों से बहुत छोटे थे। डा० सुशीलकुमार डे ने संस्कृत काव्य-शास्त्र के इतिहास में लिखा है कि बंगाल में ऐसी प्रसिद्धि है कि जीव गोस्वामी का जन्म शाके १४४५ (सं० १५८० ) और
1 When Mirabai, the Rajput princess, who left everything for her love for Krishna, visited the renowned Rupa Goswami of Vrindaban, one of the chief Bhaktas of Shree Gaurang ( Chaitanya ), Rupa, an ascetic of the highest order, refused to see her on the ground that he was procluded from seeing the face of a woman. As a fact, Mirabai was a most beautiful young princess and he had not much faith in her pretensions Hearing the message of Rupa, Mirabai replied. Is he then a male ? If so, he has no access to Vrindaban. Males cannot enter there, and if the goddess of Vrindaban comes to know of his presence, she will turn him out. For does not the great Goswami know that there is but one male in existence, namely my beloved Kanai Lal and that all besides are female ?' Rupa now understood that Mira was really a staunch devotee of Krishna and so agreed to see her.
(Lord Gaurang or Salvation for All, Vol.I Introduction page40)
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मीराबाई
मृत्यु शाके १५४० (सं० १६७५ ) में हुई थी। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है कि उनकी जन्म तिथि सं० १५७ . है। चाहे जो भी हो जीव गोस्वामी का जन्म ममय सं० १५७० से पहले नहीं बाद में ही पड़ता है और इस प्रकार वे मीराँ से दश अथवा उससे भी कुछ अधिक वर्ष छोटे प्रमाणित होते है । फिर मीनें जब बूंदाबन गई थीं उस समय उनकी अवस्था भी चालीस वर्ष से कम ही थी। अतः तीम वर्ष से भी कम अवस्था वाले संन्यासी के दर्शन के लिए चालीस वर्ष की प्रौड़ वयस्का भक्त का जाना कछ असंगत सा जान पड़ता है जब कि उसी समय और उसी स्थान पर जीव के दोनों परम विख्यात भक्त और विद्वान् चाचा रूप और सनातन भी उपस्थित थे। यह सच है कि
आगे चलकर जीव गोस्वामी विद्वत्ता, भक्ति और कीर्ति तीनों ही में अपने दोनों चाचा से बाजी मार ले गए थे, परंतु जिस समय (सं० १५६६-१६००) मीरों बूंदाबन में थीं उस समय जीव एक नवयुवक संन्यासी मात्र थे और रूप, सनातन पचास वर्ष के प्रौढ़ भक्त और प्रख्यात विद्वान् थे। अतः मीराँबाई का रूप गोस्वामी के दर्शनों के लिए जाना अधिक सुसंगन और सम्भव जान पड़ता है जैसा कि शिशिरकुमार घोष ने लिखा है। जान पड़ता है कि जीव गोस्वामी को अधिक कीर्ति फैलने के कारण ही रूप के स्थान पर जीव का नाम प्रचलित हो गया।
मीराँबाई और गोसाई तुलसीदास के बीच जो परमार्थी पत्र व्यवहार की कथा प्रसिद्ध है वह न तो प्रियादास की टीका में ही मिलती है औरन रघुराज सिंह कृत 'भक्तमाल' में ही उसका उल्लेख है। जान पड़ता है कि 'गोसाईचरित, के रचयिता बाबा वेणीमाधव दास ने ही पहले पहल इसकी कल्पना की । गुमाई चरित' में लिखा है:
1- A tradition in Bengal gives Saka 1445 (1523 A. D.) and Saka 1540 (1618 A. D.) as the dates of his (Jive-Gos. wami's) birth and death respectively. (History of Sanskrita poetics Vol. I pages 255-256- Ist ed. 1923.)
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जीवनी खंड
सोरह से सोरह लगे, कामद गिरि ढिग वास। सुचि एकांत प्रदेस महँ, आये सूर सुदास ॥
xxxxxx ले पाति गये जब सूर कबी । उर में पधराय के स्याम छबी
तब श्रायो मेवाड़ ते, विप्र नाम सुखपाल । मीराबाई पत्रिका, लायो प्रेम प्रबाल || पढ़ि पाती, उत्तर लिखे, गीत कवित्त बनाय ।
सब तजि हरि भजिबो भलो, कहि हिय विप्र पठाय ।। अर्थात् मीराँबाई का पत्र लेकर सुखपाल नामक ब्राह्मण सं० १६१६ में मेवाड़ से अाया। पीछे मीरींबाई ने पत्र में क्या लिखा और गुसाई तुलसीदास ने उसके उत्तर में क्या लिख भेजार यह भी निश्चित रूप से पता लगा लिया
१ मीराबाई का पत्र इस प्रकार का कहा जाता है :
श्री तुलसी सुखनिधान, दुख हरन गुमाई । बारहिं बार प्रणाम करू, अब हगे सोक समुदाई ।। घर के स्वजन हमारे जेते, सबन उपाधि बढ़ाई। माधु-संग अरु भजन करन, मोहि देत कलेस महाई ।। बालपने. ते मोरा कीन्हीं गिरधर लाल मिताई। मो तो अब छूटत नहिं क्यों हूँ, लगी लगन बरियाई ।। मेरे मात पिता के सम हो, हरि भक्तन सुखदाई।
हमको कहा उचित करिको है, सो लिखियो समुझाई ।। ६ मीरा के पत्र के उत्तर में गुसाई तुलसीदास ने निम्नलिखित पद लिखा था
जाके प्रिय न राम वैदेही। सजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही। तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बन्धु, भरत महतारी। बलि गुरु तज्यो, कन्त ब्रज बनिता, भये सब मङ्गलकारी ।। नातो नेह राम सो मनियत, सुहृद मुसेव्य जहां लौं। श्रअन कहा आंख जो फूट, बहुक कहीं कहां लो॥ तुलसी सों सब भांति परम हिन, पूज्य प्रान ते प्यारो। जासों बढ़े सनेह राम पद, एतो मतो हमारो।।
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मीराँबाई
गया । परन्तु इस पत्र-व्यवहार की सत्यता पर विश्वास करना किसी प्रकार भी सम्भव नहीं है। बाबा बेणीमाधव दास ने अपने चरित-नायक की महत्ता प्रमाणित करने के लिए उस युग के सभी लब्धप्रतिष्ठ भक्तों और कवियों का तुलसी से संबंध स्थापित करने के लिए कथाएँ गढ़ी हैं जिनमें लगभग सभी की सभी स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर असंगत और असम्भव जान पड़ती है । महाकवि केशवदास एक ही रात में राम-चंद्रिका जैसे बृहत् महाकाव्य की रचना करके अस्सी घाट पर गुसाई जी के दर्शन के निमित्त पाते है; मुसलमान कवि रसखान को तीन वर्ष तक 'मानस' की कथा सुननी पड़ती है; टट्टी सम्प्रादाय के प्रवर्तक भक्त शिरोमणि महात्मा हरिदास को गुसाई जी से अपना पद शुद्ध कराने निधुवन और वृन्दावन छोड़कर अयोध्या आना पड़ता है और इतना ही नहीं स्वयं महात्मा सूरदास को ७६ वर्ष की बृद्धावस्था में अंधेपन और बुढ़ापे की उपेक्षा कर अपना सूरसागर दिखाने अपने से अवस्था में बहुत छोटे तुलसीदास जी के यहाँ काशी अाना पड़ता है । मेवाड़ जैसे सुदूर प्रांत में रहने अथवा मेवाड़ राजवंश की कुलवधू होनेके कारण ही मीरा पर बाबा जी की कुछ विशेष कृपा हुई कि उन्हें स्वयं परामर्श लेने काशी नहीं
आना पड़ा, वरन सुखपाल विप्र द्वारा एक पत्रिका भेज कर ही वे छुट्टी पा गई । सारांश यह कि सूर, मीराँ, हरिदास, केशव, रसखान और सम्राट अकबर
आदि सभी से गुसाई तुलसीदास को श्रेष्ठतर और महत्तर प्रमाणित करने के लिए ये सब कथाएँ गढ़ ली गई हैं, पर इनमें सत्य की मात्रा लेश भर भी नहीं है।
स्थान, काल और पात्र की दृष्टि से विचार करने पर यह जनश्रति असत्य और असंगत ठहरती है। यदि सच ही मीराँबाई को कभी ऐसे पत्र भेजने की
कुछ लोगों का मत है कि इस पद के साथ निम्न लिखित सवैया भी गुसाईजी ने लिखा था
सो जननी सो पिता सोइ भ्रात, सो भामिन सो हित मेरो। सोइ सगो सो सखा सोह सेवक, सो गुरु सो सुर साहिब चेरो॥ सो तुलसी प्रिय प्रान समान, कहां लो बताइ कहाँ बहुतेरो। जो तजि गेह को देह को नेह, सनेह सों राम को होय सबेरो।।
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जीवनी खंड
आवश्यकता पड़ी होगी, जैसा कि जनश्रुति में प्रसिद्ध है, तो वह समय सं०१५६० के आसपास अथवा उससे पहले ही हो सकता था जब कि उनके देवर राणा विक्रमादित्य का अमात्य वीजावर्गी उनपर अनेक अत्याचार कर रहा था। सं० १५६१ के पहले ही मीराँ ने मेवाड़ त्याग दिया था क्योंकि उस वर्ष चित्तौड़ में जो साका हुअा था उसमें मीराँबाई न थीं । अतः इस पत्र का समय अधिक से अधिक सं० १५६१ हो सकता है, परंतु 'गुसाई-चरित' में यह तिथि १६१६ दी गई है जब कि मीराँ सम्भवतः मेवाड़ में थी भी नहीं। यदि यह भी मान लिया जाय कि सं० १५६०-६१ के आसपास मीराँ ने कोई पत्र भेजा था तब भी इस जनश्रुति की संगति नहीं बैठ पाती क्योंकि उस समय तक तुलसीदास पैदा ही हुए थे, क्योंकि विद्वानों ने बहुमत से उनका जन्म सं०१५८६ स्थिर किया है। यदि तुलसीदास जी का जन्म सं०१५५४ भी मान लिया जाय जैसा कि बाबा बेणीमाधव दास ने लिखा है तब भी सं०१६६० तक उन्होंने कोई ऐसा कार्य नहीं किया था जिससे मेवाड़ जैसे सुदूर प्रांत में उनकी कीर्ति पहुँच सके । यदि मीराँ को सचमुच ही ऐसा पत्र भेजना था तो वे पास ही में महाप्रभु वल्लभाचार्य, गुमाई विठ्ठलनाथ, महात्मा सूरदास, गुसाई हित हरिवंश,श्री हरिदास अथवा ऐसे ही किसी और महात्मा के पास भेज सकती थी जिन्होंने उस समय तक काफी कीर्ति प्राप्त कर ली थी और मेवाड़ के पास ही ब्रजमंडल के निवासी थे। कुंवर कृष्ण ने बाबा वेणीमाघ वदास के कथन को सत्य और सुसंगत प्रमाणित करने के लिए अपने निबंध 'मीराँबाई-जीवन और कविता में यह अनुमान लगाया है कि 'जब ब्रज-भूमि में मुगल पठानों के रण-वाद्य बजने लगे तो सम्भवतः सं०१६१२-१३के आसपास (मीराँ) पुनः चित्तौर की ओर रवाना हुई ।...... सम्भवतः इसी समय उन्होंने सुखपाल के हाथ पत्रिका भेजी होगी जो उन्हें ( गुसाई तुलसीदास जी को) सं०१६१६ के बाद मिल सकी थी। इस अनुमान में कुछ भी सत्य नहीं है क्योंकि मीराँ बृदावन से मीधे द्वारका नली गई थीं। उनके फिर मेवाड़ लौट आने का
१ पारपद् निबंधावली द्वितीय भाग (हिन्दी परिषद्, प्रयाग 1वश्वाालय द्वारा प्रकाशित) प्रथम निबंध।
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मीराँबाई
कोई प्रमाण नहीं मिलता । यदि यह भी मान लिया जाय कि सं०१६१२-१३ के श्रासपास मीरौं फिर मेवाड़ लौट आई थीं, तब भी उनपर 'स्वजनों द्वारा अत्याचार किये जाने का कोई प्रमाण नहीं मिलता जिससे प्रेरित होकर वे इस प्रकार का पग गुसाई जी के पास भेजतीं । जैसा कि आगे चलकर विचार किया गया है, सं० १६११ में चित्तौड़ में मीराँ के गिरधर नागर की मूर्ति प्रतिष्ठित कराई गई थी, फिर उनके साथ दुव्र्यवहार कैसे हो सकता था। सारांश यह कि ये सभी अनुमान असंगत है और मीराँबाई के परमार्थी पत्रव्यवहार में लेश मात्र भी। सत्य नहीं है, केवल गुसाई तुलसीदास की महत्ता 'प्रमाणित करने के लिए उनके भक्तों द्वारा कल्पित जान पड़ती है। . इसी प्रकार मीरों के रैदास की शिष्या होने की जनश्रुति भी केवल रैदास की महत्ता बढ़ाने के लिए गढ़ी जान पड़ती है। इस जनश्रुति का मूल श्राधार मीरों के नाम से प्रसिद्ध कुछ स्फुट पद है:
१. मेरो मन लागो हरि जी सं, अब न रहूँगी अटकी । गुरु मिलिया रैदास जी, दीन्हीं ज्ञान की गुटकी' ।।
मी० शब्दा. वे० प्रे० पृ० २५ २. गुरु रैदास मिले मोहिं पूरे, धुर से कलम भिड़ी ।
सतगुरु सैन दई जब पाके, जोत में जोत रली ॥ ३. रैदास मंत मिले मोहिं सतगुरु दीन्हा सुरति सहदानी !
४. मीरा ने गोविन्द मिल्या जी, गुरु मिलया रैदास ॥ और गुजरात में मीरों का एक पद प्रसिद्ध है:
झाँझ पखावज वेणु बाजिया, मालरनो झनकार ।
काशी नगर ना चोक मा मने गुरु मिलिया रोहिदास ॥ परंतु प्रियादास की टीका में मीरों को रैदास की शिष्या नहीं लिखा गया है, वरन् उनकी पितामही सास राणा सांगा की माता काली रानी रतकुंवरि को प्रियाहास ने संत रैदास की शिष्या लिखा है। यदि मीरा भी रैदास की शिष्या २१ घूट। २ बसन्त चितौर मांझ रानी एक झाली नाम नाम विन काम वाली, पानि शिष्य भई है।" प्रियादास की टोका में रैदास के सम्बंध में मिलता है।
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जीवनी खंड
होती तो प्रियादास इसका उल्लेख करना कभी न भूलते रघुराजसिंह रचित भक्तमाला' में भी मीराँ रैदास की शिष्या नहीं है, केवल इन पदों में ही मीराँ रैदास की शिष्या जान पड़ती है जो सम्भवतः रैदास के शिष्यों की रचनाएँ है। गुजरात में रविदासी सम्प्रदाय का बहुत अधिक प्रभाव पहले भी था और अब भी है। जब मीराबाई की कोर्ति गुजरात में बहुत अधिक फैलने लगी क्योंकि गुजरात में मीराँ के पदों का उतना ही प्रचार है जितना संयुक्त प्रांत में तुलसी और सूर के पदों का तब अपने गुरु का महत्व घोषित करने के लिए रैदास के शिष्यों ने सम्भवतः मीरों के नाम से इस प्रकार के पद लिखकर प्रचलित करा दिए।
स्थान और काल की दृष्टि से मीराँ. रैदास की शिष्या नहीं हो सकती। रैदास काशी के निवासी और संत कबीर के समकालीन थे और उनका समय सं० १४५५ से १५७५ के अासपास माना गया है। रैदास की मृत्यु के समय मीरों की अवस्था अधिक से अधिक १८ वर्ष की हो सकती थी और उस समय तक उनके पतिदेव भी जीवित थे । अतः सं० १५७५ के पहले तक मीरों का काशी के चौक में संत रैदास को गुरु रूप में प्राप्त करना असम्भव जान पड़ता है और १२० वर्ष की बृद्धावस्था में रैदास का काशी से मेवाड़ की यात्रा करना तो एक दम असम्भव कल्पना है । अस्तु, स्थान और काल के विचार से मीरों और रैदास का एक दूसरे के सम्पर्क में आना सम्भव ही नहीं था। फिर सिद्धांत की दृष्टि से मीरौं रैदास की शिष्या नहीं हो सकतीं। 'चौरासी वैष्णवन को वार्ता' से स्पष्ट है कि मीराँ की प्रकृति बहुत ही स्वतंत्र और उदार थी । कितना ही प्रयत्न करने पर भी वल्लभाचार्य के शिष्य उन्हें अपने साम्प्रदाय में न ला सके थे। नच तो यह है कि मीरा की भक्ति-भावना साम्प्रदायिकता की सीमा से बहुत परे थी। यह सम्भव है कि अपनी उदार
और विनम्र भावना के कारण उन्होंने सभी सम्प्रदाय वालों की सत्संगति की होगी और बहत सम्भव है कि अपनी पितामही सास झाली रानी के पास पाने जाने वाले रैदास के शिष्यों के सम्पर्क में भी वे श्राई हों, और उनसे प्रभावित भी हुई हो, परंतु किसी सम्प्रदाय-विशेष अथवा गुरु विशेष की शिष्या बनकर रहना उनकी प्रकृति के अनुकूल न था।
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४४
मीराबाई
मीरों के संबंध में और भी कितनी जनश्रुतियाँ प्रचलित है । ये सभी कथाएँ न जाने किन-किन प्रशस्त और संकीर्ण भावनाओं से प्रेरित होकर लिखी गई थीं कि इनमें सत्य और असत्य, देवत्व और मनुजत्व, कवित्व ओर
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face की परस्पर विरोधी भावनाओं का सम्मिश्रण मिलता है । एक ओर तो मीराँ भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य प्रेमिका, रास निपुणा ब्रज - गोपी की अवतार मानी जाती हैं, दूसरी ओर काशी नगर के चौक में संत रैदास को अपना गुरु बनाती हैं; एक ओर तो साक्षात् गरुड़ वाहनारूढ़ भगवान् श्रीकृष्ण ही उन्हें जगाने के लिए आते हैं, दूसरी ओर उन्हें एक साधारण-सा परामर्श लेने के लिए सहस्रों मील दूर काशी को पत्र वाहक दौड़ाना पड़ता है । अस्तु, सभी जनश्रुतियों पर सहसा विश्वास कर लेना बुद्धिमान व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं है । उन्हें स्थान, काल, पात्र की कसौटी पर कसकर स्वीकार करना चाहिए ।
४
आधुनिक खोज - मीराँबाई के जीवन चरित्र सम्बंधी सबसे उपयोगी सामग्री आधुनिक काल के खोजों में प्राप्त हुई है। मीराँबाई के पितृकुल, श्वसुरकुल तथा उनके जीवन चरित के सम्बंध में जनश्रुतियाँ बिल्कुल ही मौन थीं; आधुनिक खोज से इन पर पूर्ण प्रकाश पड़ा। राजस्थान के इतिहास के साथ ही साथ मीराँबाई का इतिहास भी आधुनिक युग की खोज है, जिसका प्रथम सम्बद्ध रूप कर्नल जेम्स टाड (Colonel James Todd ) ने अपने 'एनाल्स ऐन्ड ऐन्डीक्विटीज़ ॉ राजस्थान' ( Annals and Antiquities of Rajasthan ) में उपस्थित किया । इस पूर्व ग्रंथ में राजपूती वीरता और गौरव का सच्चा रूप तो अवश्य मिलता है, परंतु इसमें कुछ ऐतिहासिक भ्रांतियाँ भी मिलती हैं; मीराँबाई का इतिहास इसका एक उदाहरण है । मेवाड़ के पराक्रमी राणा कुम्भकर्ण (कुम्भा ) ने अपनी अनेक विजयों के उपलक्ष में एक जयस्तम्भ अथवा कीर्तिस्तम्भ बनवाया था । उसी के पास एक ही ऊँची कुर्सी पर आदि वाराह और कुम्भस्वामी के दो मंदिरपास ही पास
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अवनी खंड बने मिलते हैं। इनमें बड़ा आदि वाराह का मन्दिर राणा कुम्भा का और छोटा कुम्भस्वामी का सन्दिर मीराँबाई का का जाता है । सम्भवतः इसी के आधार पर कर्नल टाड ने मीराँ को राणा कुम्भा की रानी स्थिर किया। टाड ही के आधार परवाजेटियर में भी मीराँबाई रावदूदा जी की पुत्री और राणा कम्भा की रानी लिखी गई है; और हिन्दी साहित्य के प्रथम इतिहास लेखक शिवसिंह सेंगर तथा मोरों के प्रथम जीवन चरित लेखक कार्तिकप्रसाद खत्री ने भी मीराँबाई को राणा कुम्भा की रानी माना था। इस भ्रांति के निराकरण होने के बहुत दिनों बाद तक लोगों को इस बात पर विश्वास बना रहा कृष्णलाल मोहनलाल झवेरी ने १६१४ ई० तक में ( यद्यपि १८८८ में मुं० देवीपसाद ने इसभ्रांति का निराकरण कर दिया था) मारों को राणा कुम्भा की रानी माना है और उसका समय स०५४६० से १५२७ तक स्थिर किया है: और१९३३ तक में बंगाल के प्रसिद्ध सिनेमा-निर्देशक देवकी बोसने अपनी फिल्म कृति
1. Kumbha married a daughter of the Rat or of Merta, the fitrst of the clans of Marwar. Mira Bai was the most celebrated princess of her time for beauty and romantic piety.
Annals and Aniiquities of Rajsthan. 2. Rao Jodha, the eldest son of Ranmal, born in 1415 succeeded in 1444 and died in 1488. He was a man of great vigour and capacity, and a very successful ruler...... .. His eldest son was Satal, who succeeded him, the sixth was Bika, the founder of Bikaner state and the fourth was D.da who established himself at Merta (whence the Mertiya sect of Rathor takes its name ), gave his daushter Mira Bai in marriage to Rana Kumbha and was himself the randfather of the heroic Jaimal etc.
(Jodhpur Gazetteer) ३ मीराबाई का विवाह सं० १४७० के करीब राना मोकलदेव के पुत्र राना कुम्भकर्ण चित्तौर नरेश के साथ हुआ था। स० १४१५ में ऊदाराना के पुत्र ने रानी को मार डाला। [शिवसिंह सरोज प० ४७५] . ४ 'माइलस्टोन्स इन गुजराती लिटरेचर' के पू० ३१-३५ में कृष्णलाल मोहनलाल झवेरी ने मीरा को राणा कुम्मा की रानी बनाने के दो कारण दिये हैं। १ का के नाम से प्रसिद्ध पुछ पद्यों में मीराबाई का उल्लेख मिलता है। यथा :
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मीराँबाई 'राजरानी मीरौं' में मीरों को राणा कुम्भा की रानी के रूप में ही चित्रित किया है।
इस भ्रांति का निराकरण सबसे पहले मुं• देवीप्रसाद ने किया था जिन्होंने मारवाड़ और मेवाड़ में 'दरयाफ्त' कर माराँबाई का एक प्रामाणिक जीवनचरित लिखा। इसमें कितनी हो नई बातों का उल्लेख किया गया है जो प्रियादास की टीका और टाड के राजस्थान में नहीं थी। फिर महाराणा सांगा नामक इतिहास ग्रंथ के रचयिता हर विलास सारदा ने भी टाड के मत का खंडन किया और मीराँबाई को महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज की पत्नी
साधु पो ङ्गति पाई, जाकी पूरन कमाई । टेक साधु की सङ्गत सन्त के वचन अवधड़ रही वताई ।। धना, सेन, रैदास नाम नीसरी मीरा बाई ।
कहत कबीरा सुन मेरे मनवा ज्योत में ज्योत मिलाई । और भी-नारायण सु लग रहो भाई।
गनका गीध अजामिल तारचो और तारयो मीराबाई ।। कबीर की मृत्यु १५७९ सं० में हुई थी अतः मीरा की मृत्यु इनसे पहले ही हो जाना चाहिये अमारी का समय कार के साथ ही पड़ता है। गुजरात में ऐसी प्रसिद्धि है किमी नरसी मेहता की समकालीन थी । नरसी मेहता का जन्मकाल सं० १४७० के
आसपास माना जाता है, अस्तु मीरों का समय विक्रम की १५ वो और १६ वीं शताब्दी ठहरता है। परन्तु उपयुक्त दोनों पद कबीर की रचनाएँ नहीं है, उनके किसी भक्त की रचना जान पड़ती है। दूसरे मीरा नरसी की समकालीन नहीं थी उनसे लगभग सौ वर्ष पीछे हुई थीं।
। सो यह विलकुल गलत है क्योंकि राणा कु.भा. तो मीराबाई के पति कुवर गेजराज के परदादा थे और मीरांवाई के पैदा होने से २५ या 30 बरस पहिले मर चुके थे। मालूम नहीं कि यह भूल राजपूताने के ऐसे बड़े तवारीख लिखने वाले से क्यों कर से गई है ।...............मीराँबाई का नाम मेडतनी है और महाराणा कुंभा जी का इंतकाल सं० १५२५ में हुआ है उस वक्त तक मीराबाई के दादा दूदा जी को मेड़ता मिला ही नही था इसलिये मोबाई राणा कुम्भा की राणी नहीं हो सकी।"
[मोरांबाई का जीवन चरित्र प ० ३१-३२ !
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जीवनी खंड
निश्चित किया। कर्नल टाड ने इतनी असंगत बात लिखी थी कि उसका निराकरण बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था। चौरासी वैष्णवन की वार्ता से मीरों का समय निश्चित करना कुछ कठिन न था। परंतु जान पड़ता है कि लोगों ने इस ओर विशेष ध्यान हा नहीं दिया । फिर आगे चलकर मीराबाई के नाम से प्रसिद्ध कुम्भस्वामी के मन्दिर में स० १५०५ का एक प्रशस्ति मिलती है जिसके अनुसार यह निश्चिा हो जाता है कि यह मंदिर भी उन्हीं राणा कुम्भा का बनवाया हुआ है जिन्होंने कार्तिस्तम्भ और आदि बाराह का मंदिर बनवाया था । जान पड़ता है कि मासाई इसा मंदिर म पृजापाट और भजन किया करती थी, इसी कारण जनतामें वह माराबाई का मंदिर प्रसिद्ध होगया।
मीराँबाई के इतिहास की खोज करनेवालों में महामहोपाध्याय डा. गौरीशंकर हीराचंद अोमा का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। मीरों के श्वसुरकुल और पितृकुल का विस्त त और अत्यंत प्रामाणिक विवरण उन्होंने अपने 'उद-पुर राज्य का इतिहास' और 'जोधपुर का इतिहास में दिया है। 'उदयपुर राज्य का इतिहास' पृ० ३५८-५६ पर मासूबाई के सम्बंध में वे लिखते हैं :
"कुवर भोजराज और उसकी स्त्रा मारौं बाई-राणागा का ज्येष्ठ कुंवर भोजराज था,जिसका विवाह मेड़त के राव बारमदेव के छोटे भाई रत्नसिंह की पुत्री माराँबाई के स.थ स० १५७३(१५१६ ई.)मं हुआ था । परतु कुछ वर्षों
1. Col. Todd nas stated THAT Miran Bai to be the queen of Kumbha. This is an error. Kumbha was killed in S. 1524 (A.D. 1467), while miran's grandfather Duda, became Raja of Merta atter that year Miran's father Ratan Singh was killed in the battle of khanua, 59 years after Kumbha's death Miran Bai was married to prince Bhojraj in S 1573 (AD. 1516) Miran sai was born at 1555 (AD 1494) and died in S 1603 (AD 1546) at Dwarka (Kathi awar Jat which place she had been residing for several years..
(Maharana Sanga page 95.96 Ajmer 1918) २ कुम्भश्वामिन पालय व्यरचयधामका १: ।
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Acha
४८
मीराबाई
बाद महाराणा की जीवित दशा में ही भोजराज का देहांत हो गया, जिससे उसका छाटा भाई रत्नसिंह युवराज हुया।" 1. XX . XX
XX "मीराँबाई मेड़ते के राठोड़ राव दूदा के चतुर्थ पुत्र रत्नसिंह की जिसको दूदा ने निर्वाह के लिए १२ गांव दे रक्खे थे, इकलौता पुत्री थी । उसका जन्म कड़की गाँव में विक्रमो सं० १५५५(१४६८ ई.)के श्रासपास होना माना जाता है। बाल्यावस्था में हो उसको माता का देहांत हो गया, जिससे राव दा ने उसे अग्ने पास बुलवा लिया और वहां उसका लालन-पालन हुअा। विक्रमी सं० १५७२ (१५१५ ई०) में राव दूदा के देहांत होने पर वीरमदेव मेड़ते का स्वामा हुश्रा । गद्दा पर बैठने के दूसरे साल उसने उसका विवाह महाराणा सांगा के कंवर भोजराज के साथ कर दिया। विवाह के कुछ वर्षों बाद युवराज भोजराज का देहांत हो गया। यह घटना किस संवत् में हुई यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हुश्रा, तो भी सम्भव है कि यह विक्रमी स० १५७५ (१५८ ई०) ओर १५८० (१५२३ ई०) के बीच किसी समय हुई हो।"
मासूबाई के पितृकल के सम्बध में आज तक जितनी खोज हो सकी है उसके अनुसार वे राव दूदा को वंशज ठहरती हैं । जोधपुर के संस्थापक राव जोधा जी का छः रानियों में पाँचवीं सोणगिरी रानी चम्पा के दो पुत्र बरसिंह
और राव दूदा थे। राव दूदा बड़े ही पराक्रमी थे । छोटो अवस्था में ही उन्हों ने राठौरों के परम शत्रु मेवा संधल का वध किया था जिसका पराक्रम अजेय समझा जाता था। सं० १५१८ में अपने सहोदर बड़े भाई बरसिंह के साथ उन्होंने मेड़ता और उसके पास प.स के सैकड़ों गाँव विजय कर अपने पिता के राज्य में मिलाया। सं० १५४५ में मरते समय राव जोधा ने मेड़ता की जागार रानी चम्पा के दोनों पुत्र-वरसिंह और गव दूदा-को दिया फलतः सं० १५४५ में बरसिंह जोधावत ने मेड़ता राज्य की संस्थापना की। कहा जाता है कि बरसिंह और राव दूदा दोनों भाइयों में पटी नहीं और राव ददा अपने सौतेले भाई बीका जी के पास बीकानेर चले गए । बरसिंह बड़े ही लड़ाके थे और आस-पास के मुसलमानी रियासतों में वे प्रायः लूट-मार किया
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जीवनी खंड करते थे। सं० १५४८ में अजमेर के शासक मल्लू खाँ ने धोखे से बरसिंह को बंदी बना लिया ! यह समाचार पाते ही राव दूदा अपने ज्येष्ठ पुत्र बीरम देव को मेड़ता का राज्य सँभालने के लिए छोड़कर जोधपुर के महाराज सातलदेव की सहायता से पीपाड़ के पास मल्लू खाँ को परास्त किया । बरसिंह कारामुक्त तो अवश्य हुऐ परन्तु कुछ ही दिनों बाद सं० १५४६ में उनकी मृत्य हो गई। कहा जाता है कि कारागृह में ही मुसलमानों ने उन्हें जहर दे दिया था । बरसिंह की मृत्यु के उपरांत मेड़ते का श्राधा राज्य राव दूदा को मिला और आधे भाग पर बरसिंह के पुत्र सीहाजी का अधिकार रहा । सीहा जी निर्बल शासक थे और उनमें अजमेर तथा नागौर के मुसलमान शासको से युद्ध करने की सामर्थ्य न थी। अतएव सं० १५५२ में ये सम्पूर्ण मेड़ता अपने चाचा राव दूदा के लिए छोड़ स्वयं रीया चले गए।
राव दूदा के छः पुत्रों में राव वीरमदेव सबसे बड़े थे जिनके ग्यारह पुत्रो में सबसे बड़ा चित्तौर का रक्षक वीरश्रेष्ट जयमल था। दूदाजी के चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह थे जिन्हें गुजारे के लिए बारह गाँव मिले थे। इन्हीं बारह गाँवों में से एक कुड़की नामक गाँव में मीराँबाई का जन्म हुआ जो अपने पिता की इकलौती बेटी थीं । बचपन में ही मातृहीन हो जाने के कारण मीराँ अपने पितामह राव दूदा के साथ मेड़ता में ही रहने लगीं जहाँ उनसे छोटे चचेरे भाई जयमल भी रहते थे । राव दूदा चतुर्भुज भगवान् के भक्त एक परम वैष्णव थे । मेड़ते में उनका बनवाया हुअा चतुर्भुज जी का प्रसिद्ध मंदिर अब तक मौजूद है । सं० १५७२ में राव दूदा की मृत्यु के पश्वात् बीरमदेव भेड़ता के शासक हुये जिन्होंने सं० १५७३ में मीराँबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुवर युवराज भोज के साथ कर दिया। सं० १५८४ में खनवाँ के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय हुई और उसी युद्ध में मीरों के पिता रत्नसिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए। _ 'भक्त नामावली' के सम्पादक राधाकृष्ण दास मेवाड़ में मीराबाई के नाम से प्रसिद्ध मन्दिर को मूर्तिशून्य देख, उनके इष्टदेव गिरधर लाल की मूर्ति की खोज करते हुये थामेर पहुँचे और वहाँ उस मूर्ति को श्री जगत
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मीराँबाई
शिरोमणि जी के नाम से प्रतिष्ठित पाया । कहा जाता है कि जब राजा मानसिंह ने चित्तौर विजय किया तब इन्हें (श्री गिरधर लाल की मूर्ति को) साथ लाए थे और अपने पुत्र कुवर जगतसिंह की अकाल मृत्यु पर 'जगत शिरोमणि' के नाम पर इनकी स्थापना की थी । हूँढ़ते ढूँढ़ते श्री गरुड़ जी की संगमरमर की मूर्ति की चौकी पर एक लेख खुदा मिला-"स. १६११ फागु सुदी सातां भाव संध का (१) सुत्रधार वोहीथ ईसर की से" और उन्हीं गरुड़ जी के चौखट पर बाहर की ओर एक दूसरा लेख भी मिला“स ० १७१६ मि० सावन सुदी ८........ दास से बेटा......दुबे नैण"। इन लेखों के आधार पर सम्पादक ने यह अनुमान लगाया कि स० १६११ में चित्तौड़ में मीराँबाई के इष्टदेव की मूर्ति स्थापित की गई और स० १७१६ में वही ति अामेर में प्रतिष्ठित हुई । मु देवी प्रसाद को मीराँबाई के गिरधर लाल की मूर्ति मेड़ता में चतुर्भुज जी के मन्दिर' में मिली थी। इन दोनों मूर्तियों में मेड़ता की मूर्ति ही मागवाई की अपनी मूर्ति जान पड़ती है। स० १६११ के गिरधरलाल की जो मूर्ति मीराँबाई के मन्दिर में चित्तौड़ में स्थापित हुई थी, यह सम्भवतः मीराबाई की अपनी मूर्ति नही थीं, वरन् उसी प्रकार की नव-निर्मित कोई दूसरी ही मूत थी। स० १६११ में मीराँ सम्भवतः मेवाड़ में नहीं द्वारका में थीं; और मेवाड़ में उस भक्ति और प्रेम की प्रतिमूर्ति मीराँ के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करने के लिए तत्कालीन महाराणा उदयसिंह ने मीराँबाई से पूजा-स्थल में, जहाँ कभी उनके गिरधर लाल की मूति प्रतिष्ठितः थी, एक नई मूति की स्थापना का होगी। कहा भा है कि
कह गोरख कहँ भरथरी, कहँ गोपीचंद गौड़।
सिद्ध गयाँ ही पूजिया, सिद्ध रहाँ की ठौड़ ।। . जनश्रुतियों में किसी राणा द्वारा मीराँ पर अत्याचार किए जाने की कथा
१ मीराँबाई मेड़ते में जिस महल में रात को गिरधर लाल जी की मूरति को शृङ्गार करके उसके आगे गाया बजाया श्रीर नाचा करती थी वह अब चतुर्भुज जी के मन्दिर में शामिल है और गिरधर लाल जी की वह मूरनि भी इसी मन्दिर में मौजूद है।
[ मीराँवाई का जीवन चरित्र पृ० १७ ]
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जीवनी खंड
५१
मिलती है । मीराँ के मेवाड़-निवास के संक्षिप्त काल में तीन राणा हुएमहाराणा सांगा (सं० १५८४ तक) राणा रत्नसिंह (सं० १५८४-८८)
और राणा विक्रमादित्य (सं० १५८८-१५६२)। अब प्रश्न यह उठता है कि इन तीन राणाओं में किस-कितने कब-कब क्या-क्या अत्याचार किए ? इतिहासकों का मत है कि राणा विक्रमादित्य ने हो मीरों को सारे कष्ट दिए थे । महाराणा सांगा अपने विविध युद्धों में इतने व्यस्त रहा करते थे कि इन घरेलू तथा छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने का उन्हें समय भी न मिलता था । खनवाँ के युद्ध में पराजित होने के कुछ ही दिनों बाद सं० १५८४ में महाराणा का मृत्यु हो गई। राणा रत्नसिंह के समय में भी मीराँ पर अधिक अत्याचार नहीं हुए, सम्भव है कि लोक लजावश साधु-संतों की संगति में कुछ बाधा पहुँचाई गई हो । रत्नसिंह एक प्रजावत्सल और सुयोग्य शासक थे, परन्तु सं० १५८८ में बूंदी के राव सूरजमल से कुछ झगड़ा हो जाने के कारण उनकी मृत्यु हो गई और राणथम्भौर से लाकर राणा विक्रमादित्य मेवाड़ के राजसिंहासन पर बिठाए । विक्रमादित्य की अवस्था उस समय चौदह वर्ष की थी ( जन्म सं० १५७४) । कहा जाता है कि राणा विक्रमादित्य ने मीरों को बहुत कष्ट दिए । विकमादित्य के समय में सारे सामंत और सारी प्रजा उनसे असंतुष्ट थी । जान पड़ता है कि एक बालक और साथ हा निर्बल शासक पाकर उसके अमात्य बीजवर्गी ने राणा की ओट ले सभी सामतों का अपमान किया होगा और उसी ने मीराँ पर भी अत्याचार किए होंगे। प्रसिद्ध भी है कि
बीजावर्गी बानियो, दूजी गूजर गौड़ ।
तीजो मिले जो दाहमो, करे टापरो चौड़। मीराँ पर जो जो अत्याचार किए गए वह एक चौदह-पंद्रह वर्ष के बच्चे की सूझ नहीं हो सकती, चाहे वह बच्चा राजदरबार में ही क्यों न पला हो । अस्तु, राणा को प्रोट लेकर बीजावर्गी ने ही मीराँ पर अत्याचार किए थे। मीरों को जो विष दिया गया था, वह भी इसा बीजावर्गी की करामात थी। मु. देवीप्रसाद ने लिखा है, "अाखिर जब राणा जी ने देखा कि रोक-टोक से कुछ
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५२
मीराबाई
फायदा न हुश्रा तो अपने मुसाहब की सलाह से जो बीजावर्गी जात का महाजन था, मीराबाई के मारने की तजबीज की, पहिले फूलों की डालियों में सांप-विच्छ छुपा-छुपा कर भेजे और फिर एक प्याला जहर हलाहल का तैयार करके उसी महाजन को दिया कि भाभी जी को पिला ग्रावे । “अागे फिर लिखा है कि “ मीराँबाई ने उस मुसाहब को सराप दिया कि तेरे कुल में
औलाद हो तो माया न हो और जो माया हो तो औलाद न हो । कहते हैं कि इस सराप का असर कुल कौम पर पड़ा। जोधपुर में जो बीजावर्गी बनिये हैं वे भी यही कहते है कि मीराँबाई के सराप से अब तक हमारी औलाद और आमदनी में तरक्की नहीं होती है। 'मेवाड़ के बीजावर्गी तो तीन तेरा हो गए हैं और जब ही से राजों में इस कौम का ऐतबार जाता रहा है और कहीं किसी बीजावर्गी को राज का काम नहीं मिलता।"
अस्तु, साधारण लोगों में जो प्रसिद्ध है कि राणा ने मीराँ पर अत्याचार किए, वह सत्य नहीं है। वास्तव में महाजन जाति का बीजावर्गी ही इन सब अत्याचारों के मूल में था।
मीराँबाई के नाम के सम्बंध में कुछ विद्वानों का अनुमान है कि यह नाम नीराँ का वास्तविक नाम न था केवल संतों द्वारा दिया गया उपनाम मात्र था जो अागे चलकर इतना अधिक प्रचलित हो गया कि मीराँ का वास्तविक नाम एकदम विस्मृत हो गया । इस अनुमान का कारण 'मीराबाई' नाम की असाधरणता है । डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के मतानुसार 'मीराँ, शब्द का प्रयोग 'कबीर-ग्रंथावली' में तीन स्थानों पर और दाद की बानी में एक स्थान पर मिलता है, अन्यत्र कहीं भी इस शब्द का प्रयोग नहीं मिलता । 'मीराँ' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए डा० बड़ाथ्वाल इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह शन्द फारसी का है, संस्कृत का नहीं । अस्तु, उनका यह अनमान अनुचित नही है कि मीरों की भक्ति भगवान से प्रभावित होकर किसी संत-- विशेषकर मुसलमान संत-ने उन्हें यह नाम दिया हो।
१ मीराबाई का जीवन-चरित्र पृ० ११-१२ । २ वही
पृ० १३ ।
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जीवनी खंड
मीरों जैसी माधुर्य भाव की भक्ति करने वाली को मीराँबाई अर्थात् 'भगवान् की पत्नी' नाम दिया जाना असम्भव नहीं है, परन्तु जो बात सम्भव नहीं जान पड़ती वह यह है कि मीराँ ने इस नाम को अंगीकार किया और केवल अंगीकार ही नहीं किया वरन् अपने पदों में मीराँ नाम की छाप भी लगाई। फिर एक
और भी प्रश्न खड़ा होता है कि मीराँ को यदि यह नाम किसी संत द्वारा दिया गया होगा तो पर्यास यश मिलने के पश्चात् ही दिया गया होगा, पहले नहीं; अतएव यह नाम मिलने से पहले मीराँ ने जो पद लिखे थे, जो रचनाएँ की थीं, उसमें किस नाम की छाप लगी थी और उन पदों का क्या हुआ ?
रही मीराँ नाम की असाधारणता-तो यह नाम साधारण हे अथवा आसाधारण इसका विचार इस दृष्टि से नहीं करना चाहिए कि भारतीय साहित्य में यह नाम और शब्द नहीं मिलता; भारतीय साहित्य में रैदास नानक
और पीपा श्रादि शब्द और नाम ही कहाँ मिलते हैं ? यह नाम तो असाधारण तभी कहा जा सकता है जब उस समय अथवा उससे पहले के राजपूत समाज में इस प्रकार का न मिले । यदि यह कहा जाय कि मीरौं शब्द का मूल संस्कृत नहीं फारसी हैं, तो राजपूतों के नाम सभी संस्कृत मूल के ही होते ये ऐसा कोई नियम नहीं है । राजपूतों के सैकड़ों नाम असाधारण हैं और उन सब नामों का सम्बंध संस्कृत मूल से जोड़ना असम्भव-सा है। उदाहरण के लिए नैणसी की ख्यात से कुछ नाम देखिए-भूणाग सी, कान्हरण देव, बाप्पा रावल, खीवाँ, कीता, अळू, चूडा, काधल, माँजा, कल्ला, शेखा, बल्लू, कम्मा, कचरा, डूंगर सिंह इत्यादि । राजपूतों में कितनी ही जातियाँ शक और सिथियन मूल की हैं और उनके नाम भी संस्कृत मूल के नहीं मिलते। रणथम्भौर के पराक्रमी राणा हमीर का नाम भी कहा जाता है कि फारसी 'अमीर' शब्द का रूपांतर है अस्तु, राजपूतों के नामों की असाधारणता देखते हुए 'मीरौं' नाम की असाधारणता बहुत कम हो जाती है ।
उस समय के राजपूत-समाज में मीराँ नाम असाधारण तो नहीं जान पड़ता। राजपूत स्त्रियों का नाम इतिहास-ग्रंथों तथा ख्यातों में बहुत कम मिलता है, इससे कहना कठिन ही है कि मीरा नाम साधारण या अथवा असा
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मिराबाई
धारण; परंतु पुरुषों के नामों पर ध्यान देने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि मीराँ नाम असाधारण नहीं था। नैणसी की ख्यात में 'मेरा' नाम लगभग आधे दर्जन व्यक्तियों का मिलता है। मंडोर के राणा मोकल को राणा खेता के पासबानिये खातण के पुत्र चाचा व मेरा ने मारा । नरसिंह के पुत्र सूरा के वंश में सूरा के तृतीय पुत्र कल्ला के पुत्र का नाम भी मेरा था । इसी प्रकार बावसूई के चौहानों में सीहा रूदा के पुत्र का नाम भी मेरा या । ऊपरकोट के सोढ़ों के घंश में धारावर्ष के पुत्र दुर्जनसाल की वंशावली में भी 'मेरा' नाम मिलता है। इस प्रकार राजपूतों में 'मेरा' नाम असाधारण न या । यदि बालक का नाम 'मेरा' रखा जा सकता है तो कन्याओं का मीरा, अथवा मीराँ नाम असाधारण नहीं कहा जा सकता।
अस्तु, मीराँबाई का यह नाम संतो द्वारा दिया गया उपनाम मात्र नहीं जान पड़ता, वरन् यह उनका प्रकृत नाम था।
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तीसरा अध्याय मीराँबाई की जीवन-सम्बंधी तिथियाँ मीरों की जन्म-तिथि के सम्बध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है । जो लोग मीराँ को राणा कुम्भा की रानी मानते थे अथवा भक्ति-भावना को पैतृक सम्पत्ति समझकर उन्हें प्रसिद्ध भक्त और योद्धा वीर जयमल मेड़तिया की कन्या मानते थे, उनके मतों तथा तिथियों पर विचार करना ही व्यर्थ है, क्योंकि 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' तथा आधुनिक खोज से यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो चुका है कि मीरों का जन्म सं० १५५५ और १५६० के बीच किसी समय हुआ था। पता नहीं मिश्रबंधुओं ने किस प्रकार यह भूल की कि उन्होंने अपने 'विनोद' में मोरों की जन्म तिथि सं० १५७३ स्थिर की
और रामचंद्र शुक्ल ने भी न जाने कैसे इस तिथि का अनुमोदन किया। सं० १५७३ तो सर्वसम्मति से मीरों के विवाह की तिथि है। जिन कुँवर भोजराज से मीरों का विवाह होना कहा जाता है, उनकी मृत्यु सं० १५८० के अासपास अथवा कुछ पहले ही हो चुकी थी। अतः १५७३ वि० को मीरों की जन्म-तिथि मानना ठीक नहीं है।
यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि मीराँबाई के प्रथम प्रामाणिक चरित्र-लेखक मंशी देवी प्रसाद ने कर्नल टाड और कार्तिकप्रसाद खत्री के मत का खंडन करते हुए भी मीराँ की जन्म-तिथि का निश्चित उल्लेख नहीं किया। फिर भी यह बात निश्चित-सी है कि वे मीरों की जन्म-तिथि सं०१५५०
और १५५५ के बीच में मानते थे । कर्नल टाड की 'गलती' बताते हुए वे लिखते हैं कि राणा कुम्भा मीराँबाई के पैदा होने से २५ या ३० वर्ष पहिले मर चुके थे,' और राणा कुम्भा की मृत्यु-तिथि उन्होंने सं० १५२५ मानी
१ मीराबाई का जीवन चरित्र १.० ३१ ।
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मीराबाई है, अतः मीरों का जन्म सं० १५५०-५५ के बीच किसी समय हा होगा। राजस्थान के अन्य इतिहासकार हरविलास सारदा और गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने एक मत से मीराँ की जन्म-तिथि सं०१५५५ के आसपास निश्चित की है और डा० रामकुमार वर्मा तथा परशुराम चतुर्वेदी ने भी इसी तिथि को स्वीकार किया है। परन्तु इस तिथि को स्वीकार करने में एक अापत्ति यह है कि विवाह के समय मीराँ की अवस्था १८ वर्ष की आती है जो देश-काल को देखते बहुत अधिक जान पड़ती है। मुसलमानों के अत्याचार के कारण ही मध्य युग में बाल-विवाह की प्रथा चल पड़ी थी और कहीं-कहीं तो अपनी लज्जा बचाने के लिए बालिका-बध की प्रथा भी प्रचलित हो गई थी। मीरा के जन्म के कुछ ही दिनों पहले सं० १५४८ में गणगौर के मेले से १४० कुमारी राठौरकत्याओं का हरण हुआ था जिनकी रक्षा के लिए जोधपुर के महाराव सातलदेव तथा मीराबाई के पितामह रावदूदा ने मुसलमानों से घोर युद्ध किया था। सातल देव उसी युद्ध के घावों से स्वर्गगामी हुए थे, परंतु मरने के पहले उन्होंने सभी कुमारियों को मुक्त करा लिया था। ऐसे वातावरण में यह कैसे सम्भव था कि राव दूदा और बीरमदेव १८ वर्ष की अवस्था तक अपनी कन्या को कुमारी ही रखते। फिर सं० १५५५ मेंमीरों का जन्म मानने पर उनके पति कुँवर भोजराज की जन्म-तिथि सं०१५५३ के आसपास अथवा कुछ पहले ही माननी होगी। इस प्रकार महाराणा सांगा, जिनका जन्म सं०१५३६ (१२ अप्रैल सन् १४८२ ई०) में हुअा था, १४ वर्ष की अवस्था में ही एक संतान के पिता बन जाते हैं जो सम्भावना से दूर जान पड़ता है। फिर जब पुरुष होकर भी महाराणा सांगा का विवाह १४ वर्ष से भी कम अवस्था में हो गया था, तब यह कैसे सम्भव हो सकता है कि बालिका होकर भी मीराँ १८ वर्ष तक अविवाहिता रहतीं। वे भी तो एक बड़े वंश की इकलौती बेटी थीं। अस्तु, सं० १५५५ के आसपास मीराँ का जन्म मानना संगत नही जान पड़ता।
कन्हैयालाल मुंशी और वियोगी हरि ने मीरों की जन्म-तिथि सं०१५५७ के आसपास मानी है, जिसके संबंध में भी वही आपत्ति खड़ी हो जाती है
१ Gujrat and its Literature 1935 A. D.
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जीवनी खंड
परंतु कुछ कम मात्रा में | 'भक्तमाला' में मीराँ की विवाह के समय की अवस्था १२ वर्ष लिखी है और अनाथनाथ वसु ने ११ वर्ष स्थिर की है। सम्भवतः इसी के आधार पर मेकालिफ ने मीरों की जन्म-तिथि १५६१ स्थिर की है जो सं० १५५५ अथवा १५५७ की अपेक्षा सम्भावना के अधिक निकट है। तनसुखराम मनसुखराम त्रिवेदी ने 'वृहत् काव्य दोहन' भाग ७ की भूमिका में मीराँ की जन्म-तिथि सं०१५५० और १५६० के बीच मानी है
और कवर कृष्ण, विष्णुकमारी 'मंजु' और डा० धीरेन्द्र वर्मा मीरा का जन्म सं. १५६० में मानते हैं। सभी बातों पर सम्यक विचार करने पर मीरों की जन्म-तिथि सं० १५५६-६० के आसपास ठीक जान पड़ती है।
मीरों के विवाह की तिथि सं० १५७३ निश्चित-सी है, केवल अनाथनाथ वसु सं० १५६७ में मीरों का विवाह मानते हैं । उनके विधवा होने की तिथि अभी तक निश्चित नहीं हो सकी है। मुं० देवीप्रसाद कुवर भोजराज की मृत्यु सं० १५७३ और १५८३ के बीच किसी समय मानते हैं और गौरीशंकर श्रोमा सं० १५७५ और १५८० के बीच किसी समय । मेवाड़ के ऐतिहासिक विभाग में इस सम्बंध में कोई सूचना नहीं मिलती । सम्भवतः यह दुर्घटना सं० १५८० के आसपास किसी समय हुई थी। ____ मीरों के मेवाड़-त्याग की तिथि सं० १५६० के अासपास है । सं०१५६१ में चित्तौर में जो शाका हुअा था उसमें १३००० महिलाओं ने जौहर किया था। उस समय मीराँ चित्तौर में होती तो उन्हें भी जौहर अवश्य करना पड़ता, क्योंकि एक तो वे विधवा थीं, दूसरे राणा तथा अन्य कटुम्बी उनकी मृत्यु चाहते भी थे । अतएव निश्चित रूप से मीराँ सं० १५६१ से पहले ही मेवाड़ छोड़ मेड़ता जा चुकी थीं, जहाँ उनके चाचा बीरमदेव और भाई जयमल उनका बहुत आदर करते थे। परंतु मेड़ता में भी मीराँ अधिक दिन न रह सकीं। सं० १५६५ में जोधपुर के राव मालदेव ने बीरमदेव से मेड़ता छीन लिया और वे भाग कर अजमेर चले गए । मीराँ को उस समय विवश होकर मेड़ता भी छोड़ना पड़ा और तब वे सम्भवतः वृंदावन की ओर तीर्थयात्रा के लिए चल पड़ी । अस्तु, सं० १५६५-६६ में मीराँ वृंदावन आई और
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५८
मीराँबाई
वहाँ प्रख्यात भक्त तथा विद्वान् रूप गोस्वामी के दर्शन किए। वृंदावन से मीराँ द्वारका की ओर कब और क्यों गईं इसका कुछ भी पता नहीं है, परंतु इतना तो निश्चय रूप से कहा जा सकता है कि सं० १६०३ से पहले ही वे द्वारका पहुँच गई थीं; क्योंकि प्रायः सभी इतिहासकारों ने सं० १६०३ में द्वारका में मीराँ की मृत्यु निश्चित किया है । सं० १६०३ में मीराँ की मृत्यु नहीं हुई जैसा कि श्रागे विचार किया जाएगा, परन्तु वे उस समय तक द्वारका अवश्य पहुँच गई होंगी । वृंदावन में वे काफी दिनों तक रही होंगी क्योंकि वृंदावन उन्हें बड़ा प्रिय था । वे स्वयं लिखती हैं:
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श्राली महाँने लागे वृंदावन नीको ॥ टेक ॥
घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा, दरसण गोविंद जी को ॥ निरमल नीर बहुत जमुना में, भोजन दूध दही को || रतन सिंघासन श्राप बिराजे, मुकट धरयो तुलसी को ॥ कुंजन-कुंजन फिरत राधिका, सबद सुणत मुरली को ॥ मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिना नर फीको || और 'भक्त नामावली' में भी लिखा मिलता है:
ललिता हू लह बोलि के, तासों हौ प्रति हेत । श्रानंद सों निरखत फिरै, वृन्दावन रस खेत ॥
फिर उस 'रस खेत' वृंदावन को छोड़ वे द्वारका क्यों चली गई, इसका कुछ कारण नहीं मिलता । प्रियादास ने अवश्य इस ओर संकेत किया है कि 'राना की मलीन मति देखि बसी द्वारावती, परन्तु राना की मलीन मति से मीरों के वृंदावन - निवास में क्या बाधा पड़ सकती थी, यह बात समझ में नहीं । सम्भव है कि वृंदावन के समान द्वारका को भी गिरधर लाल का प्रिय स्थान जान कर मीराँ तीर्थ-यात्रा के विचार से गई होंगी और वहीं - रम गई होंगी । कारण चाहे जो भी हो सं० १६०० के आसपास अथवा कुछ पीछे मीराँ वृंदावन से द्वारका चली गई और मृत्यु पर्यन्त वहीं रणछोड़ जी के मन्दिर में निवास करती रहीं ।
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जीवनी खंड
५६
मीराँ के निधन की तिथि मुं० देवीप्रसाद ने सं० १६०३ मानी है । वे
लिखते हैं :
'राठोड़ों का एक भाट जिसका नाम भूरदान है, गाँव लूणवे, परगने . मारोठ इलाके मारवाड़ में रहता है । उसकी जबानी सुना गया कि मीराँबाई का देहांत सं० १६०३ में हुआ था और कहां हुआ यह मालूम नहीं ।' [ मीराँबाई का जीवन चरित्र पृ० २८ ]
इसी मौखिक साक्ष्य पर मीराँ की मृत्यु सं० १६०३ में निश्चित की गई और अन्य इतिहासकार हरिविलास सारदा, गौरीशंकर हीराचंद श्रोमा भी इसी तिथि को प्रमाण मानते हैं । दूसरी ओर वेलवेडियर प्रेस द्वारा प्रकाशित 'मीराँबाई की शब्दावली और जीवन-चरित्र' में इसका खंडन किया गया है और आधार रूप में दो जनश्रुतियों का सहारा लिया गया है । वे जनश्रुतियाँ सम्राट् कदर का तानसेन के साथ मीराँबाई के दर्शनों के लिए थाना और मीराँ तथा गोसाई तुलसीदास के बीच पत्र-व्यवहार है । मीराँ का निधन सं० १६०३ में मानने पर ये दोनों जनश्रुतियाँ सत्य सिद्ध हो जाती है क्योंकि सं० १५६६ में जन्म ग्रहण करने वाला अकबर सं० १६०३ तक मीराँ के दर्शनों के लिए नहीं जा सकता था और सं० १५८६ में पैदा होने वाले चतुर्दश वर्षीय बालक तुलसीदास के साथ मीराँ का परमार्थी पत्र-व्यवहार असम्भव था । परंतु वे जनश्रुतियाँ उस ग्रंथ में प्रमाणिक और सत्य मानी गई हैं । अस्तु, उस ग्रंथ के लेखक मीरों का निधन सं० १६२० और १६३० के बीच किसी समय मानते हैं जैसा कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने उदयपुर दरबार की सम्मति से निर्णय किया था । 'बृहत् काव्य दोहन' में भी इसी आधार पर हरिश्चंद्र की दी हुई तिथि मान ली गई है और डा० रामकुमार वर्मा भी इसी तिथि का अनुमोदन करते हैं ।
परंतु जैसा कि पहले लिखा जा चुका है सम्राट अकबर का तानसेन के साथ मीरों के दर्शनार्थ श्राना और मीराँ तथा तुलसीदास जी का परमार्थी पत्र-व्यवहार — इन दोनों ही जनश्रुतियों में सत्य की मात्रा लेश भर भी नहीं है; इसलिए इन जनश्रुतियों के सहारे मु० देवीप्रसाद की तिथि का खंडन
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मीराँबाई
नहीं किया जा सकता। फिर भी सम्भवतः मीरों की मत्यु स० १६०३ में नहीं हुई थी । 'व्यास-बाणी' तथा 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में मीराँ-सम्बंधी अवतरणों पर विचार करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि मीराँ स० १६२२ के बाद तक भी जीवित थी । सं० १६०३ तक मीरों की अवस्था ४५ वर्ष की भी नहीं पहुँचती। गुजरात में मीरों की प्रसिद्धि देखते हुए यह असम्भव जान पड़ता है कि वे इतनी कम अवस्था में मरी होंगी । वियोगी हरि सं०१६२५ के आसपास मीराँ का निधन मानते हैं, और कुवर कृष्ण सं. १६३० के अासपास । मत्युतिथि सं० १६३० मानने पर मीरों की अवस्था भी ७० के आसपास पहुंच जाती है जो इस कीर्ति के लिए पर्याप्त है और किसी प्रकार अधिक भी नहीं कही जा सकती।
एक प्रश्न अब यह खड़ा होता है कि भरदान भाट ने जो तिथि बताई थी उसमें उसका कोई स्वार्थ तो था नहीं, उसने भी यह बात किसी आधार पर कही होगी. यद्यपि उस आधार का निर्देश नहीं किया गया। वहुत सम्भव है कि इस तिथि का सम्बन्ध प्रियादास की टीका में वर्णित उस प्रसंग से है जिसके अनुसार मेवाड़ के राणा ने मीराबाई को मेवाड़ लौटा लाने के लिए ब्राह्मणों का एक दल भेजा था । ब्राह्मण जब मीरों को लौटा लाने में समर्थ नहीं हुए तब सम्भवतः उन्होंने अपनी मर्यादा बचाने के लिए उनके मूर्ति में अंतान होने की कथा गढ़ ली जो मेवाड़ और मारवाड़ में स्वीकार कर ली गई। अस्तु, राजस्थान में मीरा के अंतान होने की तिथि सं० १६०३ प्रसिद्ध हो गई और सं० १६११ में बड़े धूमधाम से मीराँबाई के नाम से प्रसिद्ध मंदिर में उनके इष्टदेव श्री गिरधर लाल की मूर्ति की स्थापना हुई जैसा कि राधाकृष्ण दास की खोज से स्पष्ट है। इसी प्रकार मीरों का सं० १६०३ से पहले ही द्वारका पहुँच जाना अधिक सम्भव जान पड़ता है। अस्तु, मीराँ की जीवन-सम्बन्धी अावश्यक तिथियाँ इस प्रकार है :
जन्म-तिथि सं० १५५६६० वि० विवाह
सं० १५७३ वि० वैधव्य
सं० १५८० वि० के आसपास
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मेवाड़ निवास
मेवाड़-त्याग मेड़ता - निवास
मेड़ता-त्याग
जीवनी खंड
सं० १५७३ से १५६० वि० तक
सं० १५६० वि० के आसपास
सं० १५६० से १५६५ वि० तक सं० १५६५ वि०
वृंदावन-यात्रा
सं० १५६५-६६ वि०
रूप गोस्वामी से भेंट सं० १५६६-६८ वि० के बीच
द्वारका-गमन
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६१
सं० १६०० वि० के आसपास
मृत्यु
सं०
१६३० वि के अासपास
इसके अतिरिक्त मेवाड़ में गिरधर लाल की मूर्ति की स्थापना सं० १६११ वि० ।
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Achar
चौथा अध्याय
संस्कार और दीक्षा मीराँबाई के पदों में उनकी अलौकिक भक्ति भावना, अपूर्व भावोद्रेक और गम्भीर रहस्योन्मुखी प्रतिभा का अद्भुत संयोग देखकर कुछ महानुभावों ने तो उनमें पर्व जन्म का कोई संस्कार पाया और कुछ न उस युग के कितने ही सिद्धि प्राप्त संतों और महात्माओं में से किसा एक अथवा अनेक को शिक्षा
और दीक्षा का प्रभाव माना । जो लोग उनमें किसी पूर्व जन्म का संस्कार मानते थे, उन्होंने उस मधुर भाव की साकार भक्ति स्वरूपा को द्वापर युग के वदावन-विहारी भगवान् श्रीकृष्ण की सखी किसी व्रज-गोपी का अवतार माना
और जो इसे शिक्षा और दीक्षा का प्रभाव मानते थे उन्होंने क्रम से उन्हें संत रैदास, गासाई विठ्ठलनाथ, चैतन्य देव और जीव गोस्वामी की शिष्या प्रमाणित किया। __ अवतार की कल्पना कवित्वपूर्ण और सुदर तो अवश्य है, परंतु वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उसका महत्व कम है । पर यदि अवतार की कल्पना केवल जन्म गत सस्कारों को पुष्टि के लिए ही हुई हो तो मैं इससे पूर्ण रूप से सहमत हूँ। मीराँ के जन्मगत संस्कार ही उनकी अपूर्व भक्ति-भावना और काव्य-प्रतिभा के अनुकूल थे । बिना संस्कार के केवल शिक्षा और दीक्षा के सहारे आज तक कोई इतना बड़ा भक्त और कबि नहीं हुआ। कबीर, रैदास, जीव गोस्वामी प्रभृति संतों और महात्माओं के कितने हा दीक्षित शिष्य रहे होंगे' परंतु मीराँ जैसा भक्त और कवि तो उनमें एक भा नहीं हुआ । अस्तु भारतीयों का कवित्वपूर्ण शैली में चाहे उन्हें व्रज गोपा का अवतार माना जाय,चाहे पाश्चात्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उनमें प्रतिभा ( genius ) और संस्कार ( Intui tion ) का विकास समझा जाय, दोनों एक ही अर्थ के द्योतक हैं ।
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जीवनी खंड
परन्तु प्रतिभा और संस्कार होने पर भी शिक्षा और दीक्षा की आवश्यकता पड़ती है इसे किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता। परन्तु मीराँ को शिष्य रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य किसे प्राप्त हुआ था, इसका अभी निश्चय नहीं हो सका है। कितने ही सम्प्रदायवाले इन्हें अपने सम्प्रदाय में दीक्षित प्रमाणित करने का प्रयत्न करते आरहे हैं और इस सम्बंध में अनेक जनश्रुतियाँ और पद भी प्रचलित हो गए हैं, परन्तु उनपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता । रैदास सम्प्रदायव लों ने मीरों के नाम से कितने ही पद लिख कर उन्हें रैदास की शिष्या प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। बाबा वेणी माधव दास ने मीरा के पत्र द्वारा गोसाई तुलसीदास से दीक्षा लेने की कथा गढ़ी है और वल्लभ सम्प्रदायवालों ने उन्हें गुसाई विट्ठलनाथ से दीक्षित होना लिखा है । मेकालिफ ने इस आधार पर कि जिस समय मीराँ मारवाड़ और मेवाड़ में थीं, वहाँ रामानंदी साधुओं का बहुत अधिक जोर था, उनके रामानंदी सम्प्रदाय में दीक्षित होने की कल्पना की है और वियोगी हरि ने जीव गोस्वामी को मारों का दीक्षा गुरु प्रमाणित करते हुए लिखा है, "जीव गोस्वामी को इन्होंने ( मीराँबाई ने) अपना गुरु बनाया । इनके कुछ पदों से यह भी जान पड़ता है कि यह भक्त वर रैदास को चेली थीं। सम्भव है रैदास जी का बानी का प्रभाव इन पर पड़ा हो और उनको भी इन्होंने गुरु मान लिया हो, परन्तु सिद्ध गुरु श्री चैतन्यदेव के कृपापात्र जीव गास्मा ही थे।' साथ ही अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने चैतन्यदेव की प्रशसा में लिखा हुना मीराँबाई का एक पद भा उद्धत किया है जो 'राग कल्पद्रुम' प्रथम भाग पृ० ५५५ पर मिलता है । वह इस प्रकार है:
अब तो हरि नाम लौ लागी। सब जग को यह माखन चोरा नाम धरया वैरागी ॥ कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कहँ छोड़ा सब गोपी । मूंड़ मुड़ाइ' डोरि कटि बाँधी, माथे मोहन टोपी । मात जसोमति माखन कारन, बाँधै जाके पाँव । स्याम किसोर भयो नव गोरा, चैतन्य जाको नाँव ।।
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EY
मीराबाई
पीताम्बर को भाव दिखावे, कटि कोपीन कसै ।
गौर कृष्ण की दासी मारी, रसना कृष्ण बसै ॥ संत रैदास को गुरु प्रमाणित करने वाले पद संख्या में अधिक है और उनका प्रचार भी अधिक है, इसलिए अधिकांश विद्वान रैदास को मीराँ का गुरु मानते हैं । परन्तु जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, स्थान और काल के विचार से रैदास और मीरों का सम्पर्क सम्भव ही नहीं था, इसलिए मीरौं रैदास की शिष्या किसी प्रकार नहीं हो सकती थीं। अपने गुरु और सम्प्रदाय का महत्व बढ़ाने के लिए ही रैदास के शिष्यों ने ऐसे पद प्रचलित करा दिये थे। इसी प्रकार मीराँ का तुलसीदास जी से पत्र द्वारा दीक्षा लेने की कथा भी असत्य है और गढ़ी हुई जान पड़ती है। बल्लभ सम्प्रदाय में मीराँ का दीक्षित होना 'चौरासी वैष्णव की वार्ता' से ही असत्य प्रमाणित हो जाता है, क्योंकि कृष्णदास अधिकारी जब मीरा के 'गाम' पधारे थे उस समय मीराँ की भेंट लेना केवल इसीलिए अस्वीकार किया था कि वे बल्लभ सम्प्रदाय में श्रद्धा नहीं रखतीं । 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में किसी 'जैमल की बेन' का गुसाई विट्ठलनाथ की शिष्या होना लिखा है, परंतु यह बात पहले प्रमाणित की जा चुकी है कि वे मीराँ बाई के अतिरिक्त कोई अन्य 'बेन' रही होगी।
मेकालिफ का मत केवल अनुमान मात्र है उसके पीछे कोई तर्क अथवा प्रमाण नहीं है, अतः उस पर विशेष विचार की आवश्यकता नहीं है; परंतु वियोगी हरि का मत विचारणीय अवश्य है । उपासना और भक्ति भावना की दृष्टि से मीरों का मत जीव गोस्वामी के मत से बहुत साम्य रखता है; स्थान और काल के विचार से भी मीरों का जीव गोस्वामी की शिष्या होना सम्भव और संगत जान पड़ता है; केवल सुयोग्य लेखक ने जीव गोस्वामी की अवस्था का विचार नहीं किया। जीव गोस्वामी का जन्म सं० १५७० के अासपास अथवा कुछ बाद में ही हुआ था और इस प्रकार वे अवस्था में मीरा से दश या बारह वर्ष छोटे थे। यह सत्य है कि गुणी और विद्वान का गुण ही देखा जाता है, अवस्था नहीं देखी जाती, परन्तु गुरु करते समय तो
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जीवनी खंड
सभी बातों का विचार किया जाता है। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, सम्भवत: रूप के स्थान पर जीव गोस्वामी का नाम प्रसिद्ध हो गया हो, परंतु स्वयं रूप गोस्वामी भी मीरा के दीक्षा-गुरु नहीं हो सकते। जिस जनश्रति के सहारे मीराँ और रूप अथवा जीव गोस्वामी का सम्पर्क प्रमाणित किया गया है, उस कथा में तो मीराँ ही रूप अथवा जीव को शिक्षा देती दिखाई गई है। गोस्वामी जी ने जब मीरों से भेंट करने की प्रार्थना अस्वीकार की थी, उस समय मीराँ ने जो उत्तर दिया था, वह किसी प्रश्न का उत्तर न था, वरन् उनके अज्ञान और दम्म का उत्तर था। वह उत्तर क्या था, स्वयं गोस्वामी जी को एक शिक्षा थी कि 'महाराज तुम संसार को माधुर्य भाव की भक्ति का उपदेश देते हो, परन्तु तुम्हें स्वयं पुरुष होने का इतना दम्भ है कि तुम स्त्रियों का मुख देखना पाप समझते हो । यही क्या तुम्हाग राधा-भाव है ? यही क्या तुम्हारी मधुर भाव की भक्ति है?' यह करारा उत्तर पाकर गोस्वामी जी अपना सारा ज्ञान और वैराग्य भूल नंगे पाँव मीरों के दर्शन के लिए बाहर निकल आये थे। इतना सब होने पर ये मीराँ को दीक्षा किस मुख से दे सकते थे। अस्तु मीरा, रूप अथवा जीव गोस्वामी की भी शिष्या नहीं हो सकती थीं।
अपनी स्वतंत्र प्रकृति के कारण किसी सम्प्रदाय विशेष की शिष्या न होने पर भी मीराँबाई पर उस युग की विचार-धारा और भक्ति-उपासना-. पद्धति का बहुत प्रभाव पड़ा। मोरों के पदों में तान प्रभाव तो स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ते हैं। पहला प्रभाव संत कवियों और महात्माओं का था। जैसा कि मेकालिफ ने लिखा है मोरों के समय में राजस्थान में रामानन्दी साधुओं का बड़ा प्रभाव था। अस्तु, रामानन्दो साधुओं का मोरों पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा होगा यह निश्चित-सा है। फिर मीराँ की पितामही सास माली रानी रैदास की शिष्या थां। अतः उनके पास रैदास के शिष्यों का निरंतर समागम रहता होगा और उन्हीं के सम्पर्क से मोरों पर भी उनकी विचार-धारा का पर्यात प्रभाव पड़ा होगा। मेवाड़ और मेड़ता त्याग कर बूंदावन आने पर वहाँ की धार्मिक विचार-धारा से वे अवश्य प्रभावित हुई होंगी । बृंदावन उस
मी०५
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६६
मीराँबाई
समय सारे भारतवर्ष में कृष्ण भक्ति का सब से बड़ा केन्द्र था । एक ओर महाप्रभु बल्लभाचार्य का पुष्टि मार्ग गोपाल भक्ति का उपदेश दे रहा था, दूसरा और रूप, सनातन और जीव गोस्वामी माधुर्य भाव की भक्ति का प्रसार कर रहे थे; एक और मध्व सम्प्रदाय का जोर था, तो दूसरी ओर निम्बार्क - सम्प्रदाय का; कहीं राधाबल्लभ के गीत गाये जा रहे थे तो कहीं st सम्प्रदाय का प्रभाव था । गली-गली में, मंदिरों में भागवत् की कथा चलती रहती थी; सूरदास, नंददास तथा अष्टछाप के अन्य कावयों के पदों से मंडल गूंज रहा था । भक्ति भावना और कवित्व के ऐसे विशुद्ध वातावरण में पहुंच कर मीरों का संस्कार जान पड़ा होगा और वे भी भक्तिभावना में चू होकर ऊँचे स्वर में गा उठी होगी :
हाँने चाकर राखो जी, गिरधारीलाला चाकर राखो जी !! चाकर रहयूँ बाग लगायूँ, नित उठ दरसन पासू | वृन्दावन की कुंज गलिन में, गोविन्द लीला गाऊँ ॥ जान पड़ता है वृंदावन के उस वातावरण में रहकर मीरों के कंठ से विनय और लीला के पद फूट पड़े होंगे। उन पर भागवत का प्रभाव पर्याप्त मात्रा में पड़ा होगा । अंत में वृन्दावन से द्वारका पहुँच कर उनपर वहाँ के वात'वरण का प्रभाव पड़ा होगा और नरमी मेहता के प्रभाव से राधा-कृष्ण सम्बन्धी शृंगार के पद रचे गए होंगे। मीरों में संस्कार और प्रतिभा प्रधान थी केवल वातावरण विशेष के प्रभाव से विशेष प्रकार का संस्कार प्रधान हो उठता था ।
महात्माओं से भी कहीं
परन्तु संत-साहित्य, भागवत तथा संत अधिक प्रभाव उनपर अपने जाति, कल और धर्म का पड़ा । मीराँ एक प्रसिद्ध राठौर राजवंश की कन्या थीं और राजपूती वीरता के युग में पैदा हुई थीं । उम ममय प्रत्येक राजपूत वीरता की प्रमूर्त हुआ करता था और राजपूत कन्याओं में वीरता के साथ ही प्रेम का समुद्र भी लहराया करता था । एक ओर तो वे अपने वीर पतियों से कहती थीं :
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जीवनी खंड
६७
घोड़ा हीसे वारणे, वीर अखाड़े पोल ॥
कंकण बाँधो रण चढ़ो, वै वाग्या रण ढोल ।' और दूसरी ओर पति के रणन्याना करने पर प्रेम विह्वल हो वे अपनी अपनी सखियों से कहती थीं।
जो मैं होती बादली, अाभै जाय अडत ॥
पन्थ बहन्ता साजना, ऊहर छाँह कान्त ॥२ मीराबाई उन्हीं राजपूत स्त्रियों में से एक थीं और उन्हीं के संग खेली-कूदी और पली थीं । परम्परा से उन्हें भी वीरता और प्रेम की शिक्षा मिली थी। दैवयोग से उन्हें बचपन में ही गिरधारी लाल जैसा पति मिल गया। फिर क्या था, उस राजपूती हटधर्मी के साथ उन्होंने अपना प्रेम निबाहा । पद्मिनी के समान ही मारों का पातिव्रत अटल था, अंतर केवल इतना ही था कि पद्मिनी चित्तौर के महाराणा रनसिंह की रानी थीं और मीराबाई मोर-मुकुट पीताम्बर धारण करनेवाले नटनागर श्याम के रंग में रँगी थीं।
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१ बाहर घोड़े हिनहिना रहे है, और वीरगण ड्योढी में उपस्थित हैं । अब लो, यह कंकण बाँधो और युद्ध के लिए प्रस्तुत हो, मनो वह रण का बाजा बजने लगा।
२ यदि मैं कहीं बदली होती तो उड़ कर ऊपर. चली जाती और मार्ग में नाते हुए पति के ऊपर छाया किंर चलती!
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पाँचवाँ अध्याय
जीवन-वृत्त मीराँबाई की जीवन-गंगा तीन धाराओं में प्रवाहित हुई है। प्रथम प्रारम्भिक धारा उनके जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा और वैवाहिक जीवन से सम्बंध रखती है। दूसरी धारा में वे एक भक्त के रूप में प्रकट होती है जब कि अन्य ईश्वर-परायण भक्तों की भाँति समाज और वातावरण के संघर्ष में आकर अपने धर्म-हठ, भक्ति-भावना और तेजस्विता का परिचय देती हुई श्रागे बढ़ती है, और अंतिम धारा में माधुर्य भाव की भक्ति-भावना के चरम विकास पर पहुँच कर वे ब्रज-गोपी के अवतारी रूप में प्रतिष्ठित होती है और अपनी पावन स्वर-लहरी से संसार का शोक-ताप हरती हुई अनंत में विलीन हो जाती है। वास्तव में मीरों की जीवन-धारा भक्ति-भावना का क्रमिक विकास है।
मेड़ता के वीर शासक रण-बाँकुरे राठौर राव दूदा ने अपने चतुर्थ पुत्र राव रत्नसिंह को निर्वाह के लिए बारह गाँव दिए थे उन्हीं में से एक गाँव कुड़की में सं० १५५६.६० ई. के अासपास एक कन्या-रत्न का जन्म हुआ जो संसार में मोराँबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई। चंद्रकला के समान अपने घर को उजाला करता हुई वह बा लेका बढ़ने लगो । बचग्न में ही उसकी माता उसे छोड़ स्वर्ग मिधारों । पिता राव रनसिंह एक वीर सैनिक थे, युद्ध करना ही उनका ब्यवसाय था । अतः मोरौं अपने पितामह राव दूदा के यहाँ मेड़ता में अाकर रहने लगी । दूदा जी केवल तलवार के ही धनी नहीं थे, चतुर्भज मगवान् के भक्त एक परम वैष्णव भी थे। उन्हीं की छत्रछाया में रहकर मोराँबाई और उनके वीर बंधु, राव वीरमदेव के ज्येष्ठ पुत्र, वीर जयमल ने भक्ति और धर्म की शिक्षा पाई थी। बचपन से ही ये बालिका
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जीवनी खंड
और बालक राधा माधव के विवाह का खेल खेला करते थे और उसी खेल ही खेल में न जाने कब मीराँ ने अपने गिरधर लाल को वरण कर लिया था।
मृत्यु-व्यवसायी उन वीर राजपूतों के यहाँ शिक्षा-दीक्षा का कोई विशेष प्रबंध न था । बालक तलवारों के खेल ही खेल में मरना और मारना सीख लेते थे; बालिकाएँ गुड़ियों के खेल में ही प्रेम और वीरता की शिक्षा पा लेती थीं । गोरा और बादल, बाप्पा रावल और हम्मीर, पद्मिनी और कर्म देवी इत्यादि की वीर कहानियाँ राजस्थान के श्वास-प्रश्वास में प्रवाहित होती थीं । प्रचलित लोकगीत और रमते योगियों के उपदेश ही उस युग की पाठशालाएँ थीं। मीराँबाई भी उसी जलवायु में पली थीं और उसी पाठशाला से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी।
सं० १५७२ में राव दूदा की मृत्यु हुई और उनके ज्येष्ठ पुत्र राव बीरमदेव मेड़ता के शासक हुए । दूसरे ही वर्ष सं० १५७३ में बीरमदेव ने मेवाड़ के पराक्रमी महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुँवर भोजराज के साथ मीरों का विवाह कर दिया। मीरा ने अपने पारलौकिक जीवन और प्रेम का अाधार तो पहले ही पा लिया था, अब उन्हें अपने लौकिक जीवन और प्रेम के लिए भी एक
आधार मिल गया। परंतु उनका वैवाहिक जीवन बहुत ही संक्षिप्त रहा। विवाह के कुछ ही दिनों पश्चात् सं० १५८० के आसपास ही कुवर भोजराज की मृत्यु हो गई । केवल बीस वर्ष की छोटी अवस्था में ही मीराँ विधवा हो गई और उनके जीवन का वह लौकिक आधार छिन गया । अस्तु, उनके जीवन में लौकिक और पारलौकिक प्रेम के सामंजस्य की जो सम्भावना थी वह एकदम मिट गई । अब मीराँ का असीम स्नेह, अनंत प्रेम और अद्भुत प्रतिभा एक साथ ही गिरधारी लाल की ओर उमड़ पड़ी.।
लौकिक प्रेम की इतिश्री होने पर मीराँ ने पारलौकिक प्रेम की ओर ध्यान दिया और वे भगवान् कृष्ण की भक्त बन गई। भक्त जीवन की प्रमुख विशेषता यह है कि उसमें ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष की भेद-भावना का लोप हो
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मीराबाई
जाता है। ईश्वर के प्रति प्रेम प्रकट करने का सब को समान अधिकार है, चाहे वह स्त्री हो अथवा पुरुष, चाहे वह ब्राह्मण हो अथवा शुद्र, ईश्वर तो सब का समान रूप से है। इसी भावना से प्रेरित होकर स्वामी रामानंद ने भक्तों में जाति-पाँति की भावना ही मिटा दी थी। दूसरी ओर सनातन हिंदू धर्म और समाज में ऊँच-नीच और स्त्री-पुरुष में भेद की भावना प्रबल रूप से विद्यमान थी। अद्विजों को शिक्षा का अधिकार न था, स्त्रियों को परदे के भीतर रहने की आशा थी, पुरुष-समाज में निकलने का उन्हें अधिकार भी न था। इतना ही नहीं एक वर्ग अछूनों का हुया करता था जिसके स्पर्श मात्र से द्विज वर्ग अपवित्र हो जाया करता था। गाँव-गाँव, नगर-नगर में जातिवहिष्कृत व्यक्तियों का जीवन भार-स्वरूप हो रहा था। अस्तु. इन विरोधी भावनाओं और विचार-धारात्रों में संघर्ष की भावना बहुत अधिक थी और यह संघर्ष प्रत्यक्ष सामने आया। प्रत्येक संत और भक्त के सम्बंध में इस संघर्ष की अनेक कथाएँ कही जाती है। एक भक्त चाहे वह कितना ही प्रतिभासम्पन्न और सिद्धि-प्रास क्यों न हो, प्रबल हिन्दू धर्म और समाज के विरुद्ध एक बहुत ही निर्बल और तुच्छ प्राणी या, इसीलिए हिन्दू समाज के कितने अत्याचार उसे सहने पड़ते थे। संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुलसीदास
और नरसी मेहता इत्यादि सभा भक्तों को इस विरोध और संघर्ष में कष्ट उठाना पड़ा था, परन्तु इन विरोधों से उनकी भक्ति-भावना निरंतर बढ़ती ही गई, कभी पराजित होकर कम नहीं हुई। __ समाज और वातावरण के विरुद्ध जितना प्रबल विरोध मीराँबाई को सहना पड़ा था उतना शायद ही किसी भक्त के बाँट में पड़ा हो । बात यह थी कि मीराँ स्त्री थीं और साधारण स्त्रा नहीं, चित्तौड़ राजवंश की कुलबधू थीं, तिसपर भी अकाल में विधवा हो गई थीं। इसीलिए उनके ऊपर बंधन भी विशेष था। परम्परा से स्त्रियाँ परदे में रहती आई थीं, पुरुषों की दासी बनकर उनकी सभी अनुचित-उचित अाशात्रों का पालन करना उनका कर्तव्य हुश्रा करता था; उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता न थी। फिर विधवात्रों के ऊपर हिन्दू समाज का शासन और भी कटोर था। परन्तु मीरों उन स्त्रियों में न थीं।
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Acha
जीवनी खंड
उनकी अपनी एक त्वतंत्र सत्ता थी, वे अपने प्रियतन गिरधर नागर की दासी मीरी थी, उनको नाच-गा कर रिझाना ही उनका धर्म था, साधु-संतों से भगवद्वार्ता करना उनका प्रिय विषय था। अतएव उन्हें पुरुष-समाज का विरोध सहना पड़ा। वह पुरुष-समाज भी कोई साधारण न था, मेवाड़ की सारी राजशक्ति उसके पीछे थी। परन्तु बाबर और हुमायूँ जैसे मुगल सम्राटों का हृदय दहला देनेवाली यह राजशक्ति एक अबला भक्त मीराँबाई के धर्म और विश्वास को.हिला न सकी । बालक राणा की अोट लेकर मेवाड़ के अमात्य वीजावर्गी ने उस अबला भक्त पर क्या-क्या अत्याचार न किए, परन्तु मीराँ भी तो एक राजपूत कन्या थीं। आग की लपटों को सहर्ष आलिङ्गन करनेवाली बालाओं में मीरा अग्रगण्य थीं। अस्तु, सभी प्रकार के कष्टों को सहन करती हुई, विष का प्याला पीकर अमर हुई उस भक्त ने अपनी भक्ति-भावना को अक्षुण्ण रक्खा।
सं० १५६० के अासपास मीराँ बाई ने अपने चाचा बीरमदेव का निमंत्रण पाकर मेवाड़ का त्याग किया । परन्तु वह त्याग पराजित व्यक्ति का त्याग न था, वह एक विजयी का त्याग था जैसे भभवान् कृष्ण ने मथुरा का त्याग किया था। उस त्याग ने मेवाड़ को मुक्ति दी। अब मेड़ता में मीराँ के गिरधर नगर की प्रतिष्ठा हुई। परन्तु अब मीराँ के भक्त जीवन की अग्निपरीक्षा अथवा विष-परीक्षा हो चुका थी, उन्हें स्वच्छंद भाव से भक्ति साधना का वरदान मिल चुका था। राव बोरमदेव और वार जयमल दोनों ही मीराँ का अादर करते थे । यह क्रम चार-पाँच वर्षों तक चलता रहा । सं०१५६५ में जय राव मालदेव ने बारमदेव से मेड़ता छीन लिया, तब मारों के लिए एक अाश्रय को आवश्यकता हुई । स्त्रियों के लिए पितृगृह और पतिगृह वही दो श्राश्रय-स्थान हुआ करते हैं । पितृगृह में श्राश्रय का अभाव पाकर मीराँ अपने पतिगृह को चलीं। लौकिक पति और पतिगृह से तो उनका सम्बंध टूट ही चुका था, अतः व अपने पारिलौकिक पति गिरधर नागर के प्रिय कोड़ाक्षेत्र वदावन की अोर चली।
जिस समय मासूबाई बृंदावन में पहुँची, उस समय उनके गिरधर नागर को बंदावन छोड़े सहसों वर्ष बीत चुके थे। तब से उस समय तक न जाने
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७२
मीराबाई
कितने विदेशी आक्रमणों ने उस पुण्य-भूमि को रक्तरंजित बनाया था, न जाने कितने परिवर्तन पाए और चले गए, कितनी आँधियाँ आई और चली गई; फिर भी उस बृंदावन के कुंज-कंज में, गली-गली में उस नटनागर की स्मृति विद्यमान थी। मंदिर-मंदिर में भगवान् की कथा का पाठ होता था। कवि और गायकों के कंठ से उन्हीं लीलामय की लीला स्वर और तानों में फूट-फूटकर निकल रही थी। कोई नंद-यशोदा के वात्सल्य प्रेम पर मुग्ध था, तो कोई गोपियों के अनन्य प्रेम का स्वांग रच रहा था । प्रेम और लीला के ऐसे विशुद्ध वातावरण में अपने गिरधर नागर को खोजती हुई मीराँ भी वहाँ आ पहुंची।
मेवाड़ के कारावास तुल्य जीवन में रहते हुए मीराँबाई ने जिस स्वच्छंद भक्त-जीवन की कामना और कल्पना की होगी, उसका प्रत्यक्ष दर्शन पाकर बृंदावन को उन्होंने स्वर्ग से भी बढ़कर माना होगा। साधु-समागम का स्वच्छंद आनंद, भगवदार्ता श्रवण करने का परम सुख, बृंदावन की कंजगलियों में अपने गिरधर नागर की लीलाओं का गुणानुवाद करते हुए नाचने-गाने का स्वच्छंद अवसर पाकर उस भक्त-शिरोमणि के हर्ष का ठिकाना न रहा होगा । उस स्वच्छंद वातावरण में रहकर एक अभिनव मीराँबाई का जन्म हुअा। बृंदावन के उस पुण्य निवास ने भक्त मीराँ की काया पलट कर दी, उनकी विचार-धारा और भक्ति-भावना में एक अद्भुत परिवर्तन आ गया । निर्गुण-पंथी संतों के समागम से मीराँ ने संसार की नश्वरता और ईश्वर-भक्ति की आवश्यकता की ओर ही ध्यान दिया था और अपनी कवित्वपूर्ण प्रतिभा के आवेश में विरह के उत्कृष्ट पदों की रचना भी की थी परन्तु बूंदावन में आकर उन्होंने चैतन्यदेव की शिष्य-मंडली-रूप, सनातन और जीव गोस्वामी से आध्यात्मिक प्रेम का सिद्धांत पाया और सूर तथा अष्टछाप कवियों से विनय और लीला के पदों का आदर्श लिया। उनके नारी जीवन का जो उल्लास अब तक उनके अंतस्तल में सुषुप्ति अवस्था में मूञ्छित पड़ा था, वह अचानक एक ठोकर पाकर जाग उठा और अपने स्वच्छंद उल्लास में अचानक ही मीरौं गा उठी :
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जीवनी खंड
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मैं तो साँवरे के रंग राँची ।
साज सिंगार बाँधि पग घुँघुरू लोक-लाज तजि नाची ॥
३
७३
वृंदावन के निवास ने एक नूतन मीराँबाई को जन्म दिया जिसे हम मीराँ का अवतारी रूप कह सकते हैं । श्रवतार शब्द का प्रयोग वहाँ पौराणिक अर्थ में नहीं वरन् साहित्यिक अर्थ में है । द्वापर युग की ब्रज-गोपियों के अनन्य प्रेम-भक्ति के उच्च आदर्श का पूर्ण निर्वाह करने के कारण मीराँ को उनका श्रवतारी रूप माना गया है । इस अवतारी रूप का प्रथम दर्शन सम्भवतः उस समय होता है जब मीराँ ने माधुर्य भाव की भक्ति का उपदेश करनेवाले वृंदावन के प्रसिद्ध गोस्वामी के सामने इस बात की घोषणा की थी कि ब्रजमंडल में उनके गिरधर नागर के अतिरिक्त और कोई पुरुष ही नहीं है । यह घोषणा कोई मौखिक कथन मात्र न था, मीराँ ने इस सत्य को अपने जीवन में साक्षात् प्रत्यक्ष कर दिखाया था । इसीलिए तो वृन्दावन के विद्वान् गोस्वामियों के रहते हुए भी देवत्व का अभिषेक मीराँबाई ही पर किया गया ।
सं० १६०० के आसपास मीराँबाई ने वृन्दावन से द्वारका का प्रस्थान किया । द्वापर युग की गोपियों से भी जो न हो सका था उसे कलियुग की गोपी ने कर दिखाया । वहाँ रणछोर जी के मंदिर में भगवान् की मूर्ति के. सामने नाचना और गाना ही मीराँ की दिनचर्या थी । मीराँ की भक्ति भावना और कीर्ति एक धर्म-कथा के रूप में चारों ओर फैल गई । आसपास के गावों. से कुंड के झुंड लोग इस देवी के दर्शनों के लिए श्राने लगे थे । दूर-दूर से वैष्णव साधु इस अवतारी मीरों को देखने श्राते थे । गोस्वामी हित हरिवंश, हरिराम व्यास जैसे प्रसिद्ध वैष्णव मीराँ के प्रति श्रद्धांजलि प्रकट करते थे ।
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सं० १६३० के आसपास एक दिन मीरों के इस अलौकिक अस्तित्व का लोप हो गया, परंतु नश्वर शरीर के अंतर्ध्यान होने के पहले ही वे मर हो चुकी थीं; इसीलिए उनके मानव-जीवन के अंत को मृत्यु की संज्ञा न देकर अपने प्रियतम में विलीन होना कहा गया है। मीराँ का अंत भी उनके जीवन के अनुरूप रहा ।
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उपसंहार
भारतीय साहित्य में प्रेम और त्याग की मूर्ति नारी के दो उच्चतम श्रादर्श मिलते हैं-- एक है जनककुमारी सीता और दूपरी बरसाने की वृषभान-दुलारी राधा । सीता का पति-प्रेम बहुत ही ऊँचा है, इतना ऊँचा कि देव-भक्ति और ईश-भक्ति भी उममें छिप जाते हैं। दूसरी ओर राधा का कृष्ण-प्रेम भी इतना ऊँचा है कि उसके सामने लौकिक पति-प्रेम की कोई सत्ता ही नहीं रह जाती। एक ने कर्म की कसौटी पर पति-प्रेम को कसा, दूसरे ने हृदय की सात्विक भावनाओं को संसार से समेट कर भगवान् की ओर मोड़ा; एक ने प्रम का अादर्श उपस्थित किया और दूसरे ने प्रेम-भक्ति का । मीराँबाई ने अपने जीवन में राधा के उच्च आदर्श की अभिव्यक्ति की । राधा ने अपना प्रेम और विरह उस वृन्दावन में प्रदर्शित किया था, जहाँ मधुवन मे 'ललित-लबंग-लतापरिशीलन कोमल मलय समीर' बहता रहता था; जहाँ मधुकर निकर करम्बित' कुंज-कुटीर में कोयल कूकती थी. जपाँ कलकल नादिनी कालिन्दी की श्याम धारा श्रीकृष्ण का स्मरण कराती थी, जहाँ भगवान कृष्ण के सखा गोप और गोपा रास रचा करते थे। परंतु मीरों ने अपना प्रेम और विरह मेड़ता और मेवाड़ के राजभवन में प्रकट किया था, जहाँ ईष्या और द्वेषका साभ्राज्य था, मानापमान और लोक-निन्दा का भय था, जहाँ विष की भीषण ज्याला में प्रेम
और भक्ति के परीक्षा देनी पड़ती थी। फिर भी अपनी उत्कट प्रेम भक्ति से मीराँ ने उस मरुभूमि को भी मधुमय बना दिया । इसीलिए तो मीराबाई को राधा का अवतार माना गया है।
भगवद्भक्तों में मीरौं अग्रगण्य हैं। इतनी उच्च कोटि की भक्ति पौराणिक युग में सम्भवतः रही हो, ऐतिहासिक युग में इस भक्ति की कोई उपमा ही नहीं । निगुण पंथ के विद्वान् कवि सुदरदास ने भक्ति की तीन श्रेणियाँ उत्तम, मध्य और कनिष्ठ निश्चित की है। इनमें उत्तम श्रेणी की पराभक्ति
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जीवनी खंड से युक्त कोई मक्त दृष्टिगोचर नहीं होता । पुराणों में भी नारद ही एक ऐसे भक्त हैं । मध्य श्रेणी की प्रेम-लक्षणा भक्ति ही मीराँबाई की भक्ति है जिसका लक्षण कवि ने इस प्रकार लिखा है :
प्रम लग्यौ परमेश्वर सौं तब भूलि गयौ सब ही धरबारा । ज्यों उनमत्त फिरे जित ही तित नैकु रही न शरीर सँभारा ॥ स्वास उस्वास उठे सब रोम चलै दृग नीर अखंडित धारा॥ सुन्दर कौन करै नवधा विधि छाकि परयो रस पी मतवार |
न लाज कानि लोक की, न देव को कह्यो करै। न शंक भूत प्रेत की न देव यक्ष तैं डरै ॥ सुनै न कान और की, दृशै न और अक्षणा। कहे न मुक्ख और बात, भक्ति प्रेम लक्षणा ।
['सन्दर-सार से उद्धृत ] मीरों के जीवन पर विचार करने तथा उनके मधुर पदों का मनन करने पर जिस व्यक्ति की कल्पना की जा सकती है, वह प्रेम-लक्षणा के इस लक्षण से पूर्ण साम्य रखता है।
प्रेम के रस में मतवाली मीरों को इतना अवकाश ही न था कि वे कोई सम्प्रदाय स्थापित करती, अथवा शिप्य-मंडली बनाकर साधना और भक्ति का उपदेश करतीं । उनका सम्पूर्ण जीवन ही भक्ति का जीवन था, वे स्वयं भक्ति की साकार मूर्ति थीं, इसीलिए बिना किसी वंश अथवा शिष्य-परम्परा के अाज भी लोग उस देवा के प्रति अपनी श्रद्धांजलि प्रकट करते हैं और पश्चिमी भारत में आज भी एक समुदाय इस देवी को अाराध्य मानकर अपने को मीराबाई के पथ का पथिक मानता है।
एक आँख । 2. A small sect called 'Mirabais' acknowledging the leadership of the Rajput princess, is saib to be still in existence in Western India,
"The mystics' Ascentics and Saints of India by John Camp bell Oman (London J903) पृ० ३५, ९ से ११ लापन तक।
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मीराबाई सदाचार और नैतिक आदशों की उच्चतम सीढ़ी पर पहुंचे बिना उच्चतम कोटि की भक्ति प्राप्त ही नहीं हो सकती । मीराँ ने दोनों ही प्राप्त कर लिया था । उनका आचरण और चरित्र ठीक उसी प्रकार आदर्श और अद्वितीय था जिस प्रकार उनकी भक्ति । नाभादास, व्यास और ध्रुवदास ने मीराँ की भक्ति-भावना की प्रशंसा के साथ ही साथ उनके चरित्र की पवित्रता ओर निर्मलता का भी उल्लेख किया है । मीराँ केवल भक्त ही न थीं वे कवि थी, गायिका थीं, और सबसे बढ़कर एक शुद्ध, सरल और पवित्र हृदया मानवी थी।
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आलोचना खंड
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प्रथम अध्याय मीराँबाई की रचनाएँ
मुंशा देवीप्रसाद ने राजस्थान में जो हिन्दी पुस्तकों की खोज की उसमें मीरों की रचनाओ से सम्बंध रखने वाली चार पुस्तकों का पता लगा था जो निम्नलिखित हैं :
१. गीतगोविन्द की टीका - श्री जयदेव के प्रसिद्ध काव्य गीतगोविन्द की
भाषा टाका ।
२. नरसी जी का माहरा — गुजरात के प्रसिद्ध भक्त नरसी मेहता के भात भरने की कथा जो पूर्णतः पदों में लिखा गया है । विषय का वर्णन मारों की किसी मिथुला नाम की सुखी को सम्बोधित करके किया गया है ।
३. राग सोरठ पद - संग्रह - मीराँबाई, कबीर और नामदेव के पदों का संग्रह |
४. फुटकर पद-मीराँबाई आदि दस भक्तों के पदों का संग्रह | इनके अतिरिक्त मीराँबाई के कुछ और पदों का भी उल्लेख मिलता है । रामचंद्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य के इतिहास' में 'राग गोविन्द' नामक : एक और ग्रंथ का उल्लेख किया है। गौरीशकर हीराचंद श्रोता भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मीरों ने इस नाम का कविता का एक ग्रंथ लिखा था । इसके अस्तित्व के सम्बंध में अभी तक संदेह बना है | गौरीशंकर हीराचंदा ने यह भी लिखा है कि 'मीराँबाई का मलार' नामक राग अब तक प्रचलित है और बहुत प्रसिद्ध है । सम्भवतः इस राग की कुछ विशिष्ट रचनाएँ मीरों ने की होंगी । इनके अतिरिक्त भी कृष्णलाल मोहनलाल
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मीराँबाई झबेरी ने गुजरात में प्रचलित गर्वा गोतों में कितने ही गीतों को मीराँ की रचना स्वीकार की है।
मीराँ रचित 'गीतगोविन्द की टीका' अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है, अतएव कुछ विद्वानों की धारणा है कि सम्भवतः महाराणा कुम्भा रचित प्रसिद्ध 'रसिक-प्रिया टीका'को ही मीरा रचित मान लिया गया हो । ऐसा भी हो सकता है कि मेवाड़ पाने पर महाराणा कुम्भा की प्रसिद्ध टीका का परिचय पाकर मीराँबाई की कवि-प्रतिभा जग उठी हो और उन्होंने भी अपनी अलग टीका लिख डाली हो। परंतु मीराँ की उपलब्ध रचनाओंपर 'गीतगोविन्द'का प्रभाव इतना कम है कि सहसा यह विश्वास ही नहीं होता कि मीराँ ने कभी 'गीतगोविन्द, की टीका लिखी होगी, क्योंकि जयदेव की वह अमर कृति इतनी सरस
और मधुर है कि एक बार उसके प्रभाव में प्राजाने पर फिर उससे मुक्त नहीं हुश्रा जा सकता।
नरसी जी का माहरा' अथवा 'नरसी जी रो माहेरो' नामक ग्रंथ के कुछ अंश उपलब्ध अवश्य हैं परन्तु उसे मीराँ की रचना मानने में संकोच होता है । सच तो यह है कि मीराँबाई अपने गिरधर नागर में ही इतनी निमम थीं कि किसी अन्य विषय पर ग्रंथ-रचना करने का न तो उन्हें उत्साह रहा होगा न अवकाश ही । सम्भव है कि यह मीराँ की बहुत प्रारम्भिक रचना हो जबकि वे अपनी सखी सहेलियों में खेलती रहती थीं और उसी समय कभी अपनी किसी मिथुला सखा को सम्बोधन करके गुजरात के प्रसिद्ध कवि और भक्त नरसी मेहता की प्रशंमा में यह छोटा-सा ग्रंथ रच डाला हो । बोलचाल की राजस्थानी भाषा में इसी विषय पर किसी लकड़हारे की एक प्रसिद्ध रचना कही जाती है । सम्भव है उसी के आधार पर मारों ने अपनी बाल प्रतिभा के प्राबेश में इसकी रचना कर डाली हो । परन्तु साहित्यिक दृष्टि से इस ग्रंथ का विशेष महत्व नहीं है। ...' साहित्यिक दृष्टि से जिन रचनाओं का अधिक महत्व है वे हैं मीरों के फुटकर पद । इन फुटकर पदों का संग्रह सम्भवतः जनता में प्रचलित गीतों के आधार पर किया गया है। बंगाल के श्री कृष्णानंद देव व्यास के 'राग कल्प
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आलोचना खंड
८१
द्रुम' में सबसे पहले मीरों के पदों का संग्रह मिलता है जो संख्या में लगभग ४५ पद थे। ये पद चंगाल, गुजरात और राजस्थान में प्रचलित गीतों से संग्रह किए गए थे। सं० १६६० में मुंशी देवीप्रसाद को राजपूताने में हिन्दी पुस्तकों की खोज में दो ऐसे संग्रह मिले थे जिनमें अन्य भक्तों के साथ मीरों के पद भी संग्रहीत थे । ये संग्रह भी सम्भवतः जनता में प्रचलित गीतीं के आधार पर हुए थे और ऐतिहासिक दृष्टि से 'रागकल्पद्रुम' से कुछ प्राचीन थे । हिन्दी में केवल मोरों के ही पदों का सबसे पहला संग्रह नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ से 'मीराँबाई के भजन' नाम से प्रकाशित हुआ था जिसकी द्वितीयावृत्ति सं० १६७० में हुई थी । इस छोटी सी पुस्तिका में मीरों के नाम से प्रचलित कुछ थोड़े से पदों का संग्रह था जिनमें अधिकांश मीरों की प्रामाणिक रचनाएँ न थीं । इसी समय गुजरात में एक वृहत् काव्य-संग्रह ग्रंथ 'वृहत कांव्य दोहन' के नाम से दश जिल्दों में प्रकाशित हुत्रा जिसमें मीराँ के गुजराती पदों का संग्रह था । ये पद संख्या में दो सौ से भी ऊपर थे । इसके पश्चात् वेलवेडियर प्रेस, प्रयाग से 'मीराँबाई की शब्दावली' नाम का एक प्रामाणिक संग्रह ग्रंथ प्रकाशित हुआ जिसमें सब मिलाकर १६८ पद है । इन पदों में संतो की परम्परा से प्रभावित पद ही अधिक संख्या में मिलते हैं। अस्तु, यह संग्रह भी बहुत कुछ एकांगी हो गया है। इसके पश्चात् और भी कितने छोटे-बड़े संग्रह ग्रंथ प्रकाशित हुए जिनमें प्रमुख नरोत्तमदास स्वामी की 'मीराँ-मंदाकिनी' और परशुराम चतुर्वेदी की 'मीराँबाई की पदावली' हैं। अंतिम पुस्तक बड़े परिश्रम से सम्पादित है और हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित हुई है । जयपुर के पुरोहित हरिनारायण जी के पास मीराँ के लगभग ५०० पद संग्रहात हो गए हैं।
सब मिलाकर भी मीरों के नाम से प्रचलित पदों की संख्या अधिक नहीं -सम्भवतः गुजराती पदों को मिलाकर भी संख्या चार सौ के ही लगभग पहुँचेगी; परन्तु इन थोड़े से पदों में भी मीरों के रचित पदं सम्भवतः कम ही हैं। अधिकांश पदों की प्रामाणिकता में बहुत संदेह है । मीरों के जीवन-काल की घटनाओं से सम्बद्ध पदों के सम्बंध में पहिले कुछ विचार किया ज
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मीराबाई
चुका है और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि उनमें अधिकांश पद मारों की रचनाएँ नहीं है, परंतु कुछ विशेष कारणों से मीरों के नाम से प्रचलित हो गई हैं । अन्य पदों के सम्बन्ध में भी हमें बहुत कुछ इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है । मीरों का प्रभाव क्षेत्र गुजरात से लेकर बंगाल तक रहा है, अत: एक प्रांत में मीराँ के सम्बंध में जो रचनाएँ होती थीं वे अन्य क्षेत्र में मीरों की रचना समझ ली जाती थीं। इसका एक उदाहरण 'साहित्य-रत्नाकर' नामक संग्रह-ग्रंथ में मिलता है, जिसमें देव-रचित दो कवित्त मीरों की रचनाएँ मान ली गई हैं । सम्भव है इस प्रकार के और भी कितने उदाहरण हों। इस विस्तृत प्रभाव-क्षेत्र के कारण एक ही पद भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न रूप धारण कर लेता है।
परंतु मीराँ की पदावली में अप्रामाणिक पदों की मिलावट का सबसे बड़ा कारण यह है कि उत्तर-पश्चिम भारत में मीराँ माधुर्य-भाव की भक्ति की प्रतीक है, जिस प्रकार कबीर निर्गण भाव की भक्ति के । पीछे के संतो ने जिस प्रकार 'कहै कबीर सुनो भाई साधी' लिखकर कितने ही निर्गण पदों को कबीर की रचना में शामिल कर दिया, उसी प्रकार 'मीराँ के प्रभु गिरधर नागर' लिखकर कितने ही लीला और मधुर भाव के पद मीरों के नाम से प्रचलित करा दिए गए जो मौखिक-परम्परा से प्रचार पाकर अाज मीराबाई की रचनाएँ समझी जाने लगी हैं । श्राज मीराँ के नाम से सैकड़ों पद मिलते हैं वे सभी उस मधुर भाव की प्रतिमा मीराँ की रचनाएँ नहीं हैं, वरन् मीराँ की भक्ति-भावना के प्रति श्रद्धा रखने वाले एक समुदाय की रचनाएँ हैं जिनमें मीराँ प्रतीक रूप में विद्यमान हैं । अतः वैज्ञानिक दृष्टि से मीराँ के नाम से प्रसिद्ध अघिकांश पद अप्रामाणिक अवश्य हैं, परन्तु भावना की दृष्टि से उन सभी पदों को मी की रचना मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि प्रतीक रूप में वे मीराँ की ही रचनाएँ हैं; केवल शब्द-रचना भीराँ की नहीं है।
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दूसरा अध्याय
भक्तियुग और मीराँ हिन्दी के भक्त कवियों में मीराँबाई का एक विशिष्ट स्थान है। इस महान् कवि के प्रति हिन्दी संसार की उदासीनता अद्भत अवश्य है, परंतु आश्चर्यजनक नहीं : जिसकी कविता में साहित्यिक कृत्रिमता का लेश भी नहीं, जिसने जनसमुदाय को आकर्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया; केवल अपनी भक्तिभावना के उल्लास में भक्ति और प्रेम के मधुर गीत गाए, अपने विरह-विधुर हृदय का भार ही इलका किया, जिसकी कोई शिष्य-परम्परा नहीं, जिसका कोई पंथ अथवा सम्प्रदाय नहीं, उसके प्रति यदि हिन्दी संसार उदासीन है तो कोई
आश्चर्य की बात नहीं है। परंतु हिन्दी प्रांत के बाहर हिन्दी के इस मधुर कवि का सबसे अधिक मान और प्रचार है-गुजरात और बंगाल में मीराँ के पद घर-घर गाए जाते हैं; राजस्थान की तो मीराँबाई सर्वस्व ही हैं। फिर सूर, तुलसा, कबीर और विद्यापति के युग की भक्ति-भावनात्रों का जैसा शुद्ध और संदर स्वरूप मीरों के पदों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं दुर्लभ और दुष्प्राप्य है।
भारत की धार्मिक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर सर्वप्रथम हमें धर्म के वाह्य प्राचारों और उपकरणों के दर्शन होते हैं जो वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में कर्म-कांड के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका प्रारम्भ ऋग्वेद की उन ऋचाओं से माना जा सकता है जिनमें उषा, वरुण, इंद्र, मरुत्, अग्नि इत्यादि प्रकृति की दैवी शक्तियों की प्रशस्तियाँ मिलती हैं, वही अथर्ववेद में बहुत नीचे उतर कर जादू और टोना के रूप में परिणत हो गया है और इसका चरम विकास ब्राह्मण ग्रंथों में होता है जहाँ विविध संस्कारों तथा यज्ञों
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मीराबाई का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है । दूसरी ओर उपनिषदों में इन बाह्य श्राचारों
और उपकरणों का उपहास किया गया है ( देखिए श्वान उद्गीथ-छांदोग्योपनिषद् ) और धर्म के प्रांतरिक पक्ष पर अधिक जोर देकर ब्रह्मशान और
आत्मज्ञान की आवश्यकता प्रमाणित की गई है। आगे चलकर धर्म की इन वाह्य और आंतरिक प्रवृत्तियों के समन्वय का भी प्रयत्न किया गया । परंतु जहाँ इन दोनों पक्षों के समन्वय और सामंजस्य का प्रयत्न किया जा रहा था, वहाँ गौतमबुद्ध ने इन-दोनों का विरोध करके एक लौकिक धर्म की व्यवस्था की जिसमें कर्म-कांड का घोर विरोध था, साथ ही उपनिषदों के ब्रह्मज्ञान और
आत्मज्ञान की भी उपेक्षा की गई थी। यह मानव-याचरण और जीवन का धर्म था, वह पुरुषार्थ और कर्म का मार्ग था। अभी तक इन सभी धार्मिक प्रवृत्तियों में मानव-हदय का सम्पर्क नहीं हो सका था, केवल बुद्धि (ज्ञान) और क्रिया (कर्म) इन्हीं दो को प्रधानता दी गई थी। इसी समय एक ऐसी धार्मिक प्रवृत्ति का उदय हुअा जो अद्भुत और अभूतपूर्व था। इस प्रवृत्ति में कर्म-कांड के प्रति कोई आस्था नं थी, ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान के प्रति कोई आकर्षण न था और साथ ही बौद्धों के सेवा, दया और प्रेम के धर्म से पूर्ण संतोष भी न था। इसमें भगवान् के प्रति दृढ़ श्रास्था थी, उनकी दया, करुणा और भक्तवत्सलता पर पूर्ण विश्वास था और उनसे व्यक्तिगत निकट सम्बंध स्थापित करने की उत्कट इच्छा थी। यह व्यक्तिगत हृदय का धर्म था जिसे विद्वानों ने भक्ति-धर्म की संज्ञा प्रदान की है।
इस भक्ति-धर्म का कब और कैसे उदय हुया, इसका निश्चित ज्ञान नहीं है, परंतु इसकी सर्वप्रथम स्पष्ट व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है जहाँ स्वयं भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण ने ज्ञान और कर्म के साथ ही साथ भक्ति का उपदेश किया था। परंतु जिस भक्ति-धर्म ने एक विस्तृत जन आंदोलन का रूप धारण किया, वह भगवद्गीता का ज्ञान-कर्म-समन्वित भक्तियोग न था, वरन् नारद भक्ति-सूत्र तथा भागवत का विशुद्ध भक्ति मार्ग था।' इस विशुद्ध भक्ति
नारद ने भक्ति को 'स्वयंप्रमाण माना है। यह भक्ति, ज्ञान और कर्म से स्वतंत्र है. पूर्ण शांति और पूर्ण आनंद इसकी दो विशेषताएं है।
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आलोचना खंड
1
भावना का वास्तविक स्वरूप जिसने सर्वप्रथम साधारण जनता को आकृष्ट किया, वह आलवार कवियों का मधुर गान था । दक्षिण भारत के तमिल प्रांत में ईसा की सातवीं शताब्दी से लेकर दशवीं शताब्दी तक लगभग तीन सौ वर्षों के लम्बे समय में एक के बाद एक कवि-गायक पैदा होते गये। वे मंदिर-मंदिर में घूमकर अपने इष्टदेव की मूर्ति के सामने आनंद-विभोर हो काव्य-रचना करते और गाते रहते थे । इनमें कितने शैव भी थे और कितने वैष्णव । वैष्णव कवि-गायकों में बारह विशेष रूप से प्रसिद्ध हुए और उन्हीं बारह कवि - गायकों को अलवार' की संज्ञा प्रदान की गई । वे जाति-वहिष्कृत तथा शूद्रों को भक्ति का उपदेश करते थे और उनमें कितने ही स्वयं जाति-वहिकृत थे । इन्हीं बालवारों के मधुर संगीत में सबसे पहले विशुद्ध भक्ति-भावना प्रस्फुटित हो उठी थी, जिसने आगे चलकर मनीषियों और शास्त्रज्ञ विद्वानों को भी आकृष्ट किया । नाथ मुनि, यामुनाचार्य और रामानुजाचार्य भी इन लवारों से बहुत प्रभावित हुए थे । इस भक्ति भावना ने विद्वानों को भी कृष्ट किया इसीलिए इसका भी शास्त्र बनना श्रावश्यक हो गया और हृदय की एक मधुर भावना को लेकर कितने तत्वों का चिन्तन प्रारम्भ हो गया, शास्त्र बनने लगे, संहिताएँ लिखी जाने लगीं, पुराणों की सृष्टि हुई, न जाने कितने खंडन-मंडन प्रारम्भ हो गया । नारद भक्तिसूत्र में एक सूत्र हैं 'वादो नावलम्ब्य ः ' अर्थात् भक्त को वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, परन्तु इसी भक्ति को लेकर कितना वाद-विवाद उठ खड़ा हुआ उसकी कोई सीमा नहीं । कवि की एक सरल सुंदर भावना लेकर दार्शनिकों और धर्माचार्यों ने एक बृहत् आंदोलन प्रारंभ कर दिया जो धर्म के इतिहास में भक्ति आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध है ।
८५
१ १२ आलवारों के नाम इस प्रकार हैं: पायगैर, भूतात्त, पेयार, तिरुमलिसाइ, शठकोप अथवा नम्मालवार मधुर कवि, कुलशेखर, पेरियर, प्रन्दल, तोन्दरिपोद्धि, तिरुप्पनर, तिरूमंगाइ । इनमें अंदल स्त्री थी ।
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२ नम्मालवार की कृतियां तमिल प्रांत में वेद के समान श्रद्धा की दृष्टि से देखी जाती हैं | नाथ मुनि नम्मालवार के शिष्य कहे जाते हैं जिन्होंने आलवारों के ४००० पदों का संग्रह किया था।
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८६
मीराबाई
भक्ति-धर्म के प्रमुख प्राचार्य श्री रामानुज थे जिन्होंने शंकराचार्य के श्रद्वैतवाद का खंडन कर इसे एक ठोस दार्शनिक भूमि पर लाकर प्रतिष्ठित किया । उनके पश्चात् मध्वाचार्य, विष्णुस्वामी और निम्बार्क ने अपनी दार्शनिक विशेषताएँ प्रदर्शित कीं, परन्तु मूलरूप में उन सभी ने एक भक्तिधर्म को स्वीकार किया । इस प्रकार यह भक्ति-धर्म क्रमशः अधिक प्रचार पाने लगा । दक्षिण भारत में पूर्ण प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद इस भक्ति-धर्म ने उत्तर भारत की ओर अपनी विजय यात्रा श्रारम्भ की । निम्बार्क ने दक्षिण से आकर भगवान कृष्ण की लीला भूमि व्रज में अपना केन्द्र स्थापित किया | उन्हीं से प्रभावित होकर जयदेव ने बारहवीं शताब्दी के अंत में 'गीत गोविन्द' की अमर रचना की । निम्बार्क' की (शिष्य-परम्परा में माधवेन्द्रपुरी श्रौर ईश्वरीपुरी तथा अंत में चैतन्य महाप्रभु ने ब्रज और बंगाल में रस की धारा उमड़ा दी। इसी प्रकार दक्षिण से दीक्षित होकर स्वामी रामानंद ने काशी को अपना केन्द्र बनाया और उनके बारह शिष्य-मंडली ने मध्यदेश में भक्ति-धर्म का पूर्ण प्रचार किया । विष्णुस्वामी की शिष्य-परम्परा
वल्लभाचार्य ने ब्रज मंडल को अपना केन्द्र बनाया और पश्चिम भारत में भक्ति की मधुर धारा प्रवाहित कर दी । इस प्रकार दक्षिण से प्रारम्भ होकर यह भक्ति-धर्म क्रमशः भारत के कोने-कोने में फैल गया ।
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उत्तर भारत में भक्ति धर्म को अपने विकास पथ पर दो प्रमुख प्रवृत्तियों से संघर्ष लेना पड़ा था । एक था शंकराचार्य का अद्वैतवादी ज्ञान-मार्ग जो समस्त भारतवर्ष में पंडित-समाज में मान्य था और जिसने बौद्ध धर्म जैसे विस्तृत और विशाल धर्मं को जड़ से उखाड़ दिया था । यह अद्वैतवादी ज्ञानमार्ग उपनिषदों का ब्रह्मज्ञान ही था जिसे शंकराचार्य की अद्भुत प्रतिभा ने अत्यंत स्पष्ट और तर्कसंगत बना दिया था। दूसरा नाथ सम्प्रदाय का हठयोग मार्ग था जो बौद्धों के तांत्रिकवाद और वज्रियान शाखा के आधार पर एक प्रचलित मार्ग बन गया था । इससे सम्पूर्ण उत्तर भारत प्रभावित हो रहा था । इस मार्ग के प्रमुख आचार्य मछंदरनाथ ( मत्स्येन्द्र नाथ ) के शिष्य गोरखनाथ (गोरक्षनाथ ) थे, जिनका प्रभाव बहुत दूर तक फैला
हुआ
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अालोचना खंड
८७ था । महाराष्ट्र के प्रमुख संत ज्ञानेश्वरी गीता के रचयिता ज्ञानेश्वर इन्हीं की शिष्य-परम्परा में थे, पंजाब में पूरन भक्त गोरखनाथं का शिष्य था, गौड़ देश के राजा गोपीचंद और उसकी माता मयनावती गोरखनाथ के गुरुभाई हालीकपाव (जालंधरनाथ) के शिष्य थे । भतृहरि जैसा कवि और यशस्वी राजा भी गोरखनाथ से प्रभावित हुआ कहा जाता है । कथाओं में ऐसा भी प्रसिद्ध है कि मध्य युग का अर्ध-कल्पित वीर-नायक आल्हा भी गोरखनाथ का शिष्य था। उत्तर भारत के अद्विजों में इस योग का खूब प्रचार था। ईसा की बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जो विजेता मुसलमान उत्तर भारत में फैल रहे थे उनमें भी इस योग का प्रचार फैल रहा था। प्रसिद्ध मुसलमान यात्री इब्नबतूता, जिसने मुहम्मद तुगलक के शासन काल सन् १३३४ में भारत-यात्रा की थी, लिखता है कि उस समय योगियों का बहुत प्रभाव था। उनके अलौकिक चमत्कारों का वर्णन करते हुए वह लिखता है :
__ "योगीजन भी बड़े-बड़े अद्भुत कार्य कर डालते हैं। कोई-कोई तो कई मास पर्यंत बिना कुछ खाए-पिए वैसे ही रह जाते हैं; और कोई-कोई धरती के भीतर गड्ढे में बैठ ऊपर से चिनाई कराकर बायु के लिए केवल एक रंध्र छुड़वा देते हैं । वे कई मास तक, कुछ लोगों के अनुसार यूरे वर्ष भर, इसी प्रकार से रह सकते हैं।"
"मंजौर ( मंगलौर ) नामक नगर में मुझे एक ऐसा मुसलमान दिखाई दिया जो इन्हीं योगियों का शिष्य था । यह व्यक्ति एक ऊँचे स्थान पर ढोल के भीतर बैठा हुश्रा था। पचीस दिन पर्यंत तो हमने भी इसको निराहार और बिना जलपान के यों ही बैठे देखा परन्तु इसके पश्चात् वहाँ से चले आने के कारण फिर हमको पता न चला कि वह और कितने दिन इस प्रकार उपवास करता रहा।"
इसी प्रकार और भी योगियों के चमत्कार की बातें उस यात्री ने विस्तारपूर्वक लिखी हैं, जिनसे पता चलता है कि मुसलमान लोग भी इस योग से प्रभावित हो रहे थे । ऐसा था वह योग-मार्ग जिससे भक्ति-धर्म को संघर्ष लेना पड़ा। अद्वैतवाद और हठयोग के अतिरिक्त बंगाल में तांत्रिक उपासना और
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मीराबाई
शाक्त-धर्म का बड़ा प्रचार था। पंच मकारों की साधना का वह उन्मत्त मार्ग बड़ा ही घृणित था । भक्ति-धर्म को उससे भी संघर्ष लेना पड़ा था। चैतन्य महाप्रभु ने बंगाल में भक्ति-धर्म का डंका बजाया।
उत्तर भारत में भक्ति-धर्म ने अद्वैतवादी ज्ञान-मार्ग, हठयोग तथा तंत्रइन तीनों मतों के सम्पर्क में आकर तीन भिन्न स्वरूप धारण किये ! गिरिशृंग से उतरने वाली स्रोतस्विनी अपने प्रवाह-पथ में जिस प्रकार भिन्न-भिन्न भू-खंडों के सम्पर्क से भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करती है-पर्वतों से उतरते समय निर्भर के रूप में गिरिप्रांत को मुखरित करती जाती है। घने जंगलों में
आँख मिचौनी खेलती हुई वक्राकार माग से चक्कर काटती चलती है और समतल भूमि-खंड में आकर प्रशस्त मार्ग पर धीरे धीरे बहती हुई कमल, सेवार तथा छोटी-बड़ी लहरियों में शोभा पाती है, उसी प्रकार भक्ति की सरस स्रोतस्विनी ने भी तीन भिन्न स्वरूप धारण किये। ज्ञान के उच्च गिरिशृंग के सम्पर्क में आकर इस भक्ति-धारा ने सगुण लीलारूपी निर्भर का रूप धारण किया जिसमें मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् राम तथा नटनागर श्रीकृष्णचंद्र की सगुण लीला के सरस मधुर गान ने समस्त मध्यदेश को मुखरित कर दिया। एक ओर गुसाई तुलसीदास के भगवान् राम अपनी माया-स्वरूपा सीता से कहते हैं :
सुनहु प्रियाव्रत रुचिर सुसीला । मैं कछु करब ललित नर लीला॥ तुम पावक महँ करहु निवासा | जब लौं, करहुँ निसाचर नासा ||
दूसरी ओर सूरदास के बाल गोपाल बिना किसी से कुछ कहे ही अपनी ललित बाल-लीला दिखा रहे हैं :
हरि अपने आगे कछु गावत । तनक तनक चरनन सो नाचत, मनहीं मनहिं रिझावत ।। बाँह उँचाइ काजरी-धौरी गैयन टेरि बुलावत । कबहुँक बाबा नन्द बुलावत, कबहुँक घर में श्रावत || माखन तनक अापने कर लै तनक बदन में नावत । कबहुँ चितै प्रतिविम्ब खम्भ में लवनी लिए खवावत ।।
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अालोचना खंड
५९ दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरख अनन्द बढ़ावत ।
'सूर' स्याम के बाल-चरित ये नित देखत मन भावत ॥ दूसरी ओर योग-मार्ग के गहन कानन से चक्कर काटती हुई यह भक्ति-धारा संत कबीर की अटपटी बानी में फुट पड़ती है:
पिया मिलन की प्रास रहौं कब लौं वरी । ऊँचे नहिं चढ़ि जाय, मने लजा भरी ॥ पाँव नहीं ठहराइ चढ़ गिर गिर परूँ । फिरि फिरि चढ़ाउँ सम्हारि, चरन आगे धरूँ ॥ अंग-अंग थहराइ तो बहु बिधि डरि रहूँ। करम-कपट मग घेरि तो भ्रम में परि रहूँ॥ बारी निपट अनारि ये तो झीनी गैल है । अटपट चाल तुम्हारि मिलन कस होइ है ॥ छोरो कुमति विकार, सुमति गहि लीजिये । सतगुरु शब्द सम्हारि, चरन चित दीजिये ॥ अन्तर पट दे खोल शब्द उर लावरी ।
दिल बिच दास कबीर, मिले तोहि को बावरी ॥ और बंगाल प्रांत के शाक्त-धर्म एवं तंत्र-सम्मत पंच मकारों के स्थूल लौकिक जीवन के सम्पर्क में आकर यह भक्ति-धारा समतल मैदान में बहने वाली शैवाल-रंजिता मंदगामिनी सरिता की भांति जयदेव, चंडीदास और विद्यापति के पदों में कितनी सरस और मधुर हो उठी है। इन पदों में लौकिक जीवन की वह मधुर झंकार है, घरेलू स्नेह और प्रणय का वह परिचित वातावरण है जो सहसा दृष्टि को मुग्ध कर देता है। विद्यापति का एक पद देखिये :
सखि हे की पुछसि अनुभव मोय । सोइ पिरीत अनुराग बखानहत तिल नूतन होइ ॥ जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपित भेला । सोइ मधुर बोल श्रवनहिं सून लों श्रुति पथ परसन गेला ॥ कत मधु जामिन रभसे गमाअोलों ना बुमलों कैसन केली । लाख लाख जुग हिय हिय रखलों तौउ हिय जुड़न न गेली ॥ ..
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मीराबाई
कत विदग्ध जन रस अनुगमन अनभव काह न पेख ।
विद्यापति कह प्रान जुड़ाइत लाखे न मीलल एक ॥ एक ही मक्ति धाग के ये तीन स्वरूप एक दूसरे से कितने विलग और विचित्र हैं । गुसाई तुलसीदास के राम की ललित नर लीला देखकर मुग्ध होने की वस्तु है । वह इतनी मर्यादापूर्ण और महत् है कि उस पर देवता बंद के फूल ही बरसा करते हैं, ऋषि-मुनियों के मुख से धन्य-धन्य की वाणी मुखरित होती रहती है और वेद तथा ब्राह्मण वंदना करते नहीं थकते । बेचारे तुच्छ मानवों के लिये तो दास्य भाव की भक्ति करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह जाता। गुसाई तुलसीदास ने भक्ति और सगुण लीला का अतिशय मर्यादित रूप उपस्थित किया । बात यह थी कि वे बड़े ज्ञानी और पंडित थे, शास्त्र, पुराण, दर्शन सबके पूर्ण ज्ञाता थे, इसीलिए उनके विनय के पदों तथा सगुण लीला के कथा-प्रसंगों में मर्यादा का बहुत अधिक ध्यान रखा गया है । सूरदास की कृष्ण लीला में यद्यपि मर्यादा की इस सीमा तक पहुँचने का प्रयास नहीं है, फिर भी उसमें मर्यादा का भाव अवश्य है और वह उसी सीमा तक है जिससे ललित नर -लीला करने वाले भगवान कृष्ण ईश्वर नहीं बनते, वरन् मानव ही रहते हैं । इसके विपरीत कबीर और विद्यापति की भक्ति में न लीला का भाव है न विनय का; वहाँ तो भगवान् उनका अत्यंत निकट प्रेमी है जिसकी प्रेम की ही मर्यादा है, प्रेम की ही लीला है, प्रेम का ही विनय है । परंतु कबीर और विद्यापति की भक्ति-भावना में इतनी समानता होने पर भी उनकी मनोवृत्ति में बहुत अधिक अंतर है। कबीर का जब अपने प्रेमी से मिलन होता है, तब उस ग्रानंद का वर्णन करते हुए कवि गा उठता है:
गगन गरजि बरसै अमी, बादर गहिर गंभीर ।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी, भीजै दास कबीर ॥ यह श्रानंद कुछ अदुभुत सा है जो सहसा समझ में नहीं आता। गंगे के गुड़ के समान ही यह अनिर्वचनीय है। परंतु जब विद्यापति इसी श्रानंद का वर्णन करते हुए गा उठते हैं :
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यालोचना खंड
६१ अाजु रजनी हम भाग्ये पोहायनु, पेखनु पिय मुख चन्दा । जीवन यौवन सफल करि माननु, दस दिस भो निरद्दा ॥ अाजु हम गेह गेह करि माननु, अाजु मोर देह मेला देहा । श्राजु विही मोर अनुकूल होयल, टूटल सबहु संदेहा ॥ सोइ कोकिल अब लाखहि डाकउ, लाख उदय करु चन्दा । पाँच बान अब लाख बान हनु, मलय पवन बहु मन्दा ।। अब सो न जबहु मोह परिहोयत, तबहु मानव निज देहा ।
विद्यापति कह अलप भागि नह धनि धनि तु नव नेहा ।। तब उनका यह अानन्द हमारी समझ में आ जाता है, वह निर्वचनीय है; वह ऐसा सुख है जिसमें चिड़िया-रैन-बसेरा के समान कंकड़ पत्थर का छोटा सा घर अपना घर जान पड़ता है और अंत में चिता की अग्नि में जल जाने वाला यह नश्वर शरीर अपना शाश्वत् शरीर जान पड़ता है । यह वही सुख है जैसा कवि 'प्रसाद' ने लिखा है:
मिल गये प्रियतम हमारे मिल गये । यह अलस जीवन सफल अब हो गया । कौन कहता है जगत है दुःखमय यह सरस संसार सुख का सिन्धु है, इस हमारे और पिय के मिलन से,
स्वर्ग आकर मेदिनी से मिल रहा ।। और यह वही सुख है जिसके सम्बन्ध में जायसी ने लिखा है कि :
होतहि दरस परस भा लोना; धरती सरग भवहु सब सोना । कबीर का आनन्द जितना ही अस्पष्ट और रहस्यपूर्ण है, विद्यापति का संयोगसुख उतना ही स्पष्ट और तीन है । इसी प्रकार अपने परम प्रिय के विरह में न्याकुल होकर जब कबीर कह उठते हैं :
बिरह-कमंडल कर लिए वैरागी दोउ नैन । माँगत दरस मधूकरी, छके रहें दिन रैन ।।
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६२
मीराबाई तब इस बिरह में उस तीव्र वेदना के दर्शन नहीं होते जो विद्यापति के विरह में ध्वनित होता है:
सखि हे हमर दुखन नहिं और ।
इ भर बादर माह भादर सून मन्दिर मोर ।। भक्ति के ये तीनों भिन्न स्वरूप हमें मीराँ में एक ही स्थान पर मिल जाते है। एक ओर गुसाई तुलसीदास और सूरदास के विनय के पदों में अपना कंठ मिलाकर मीराँ उसी धुन में गा उठती हैं :
राम नाम रस पीजे मनुश्रा राम नाम रस पीजे । तज कुसंग सतसंग बैठ नित हरि चरचा सुण लीजे ।। काम क्रोध मद लोभ मोह , चित से बहाय दीजे ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजे ।। अथवा हरि तुम हरो जन की भीर ॥ टेक ||
द्रोपदी की लाज राख्यो तुम बढ़ायो चीर ।। भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप सरीर ।
हरिनकस्यप मार लीन्हों धरयो नाहिंन धीर ॥ इत्यादि । दूसरी ओर सूरदास के कृष्ण-लीला के पदों से समानता करती हुई वे लीला के पद गा उठती हैं:--
कमल दल लोचना तेंने कैसे नाथ्यो भुजंग । पैसि पियाल काली नाग नाथ्यो फण फण नित करन्त ॥ कूद परयो न डरयो जल माहीं और काहू नहिं संक । मीरों के प्रभु गिरधर नागर, श्री वृन्दावन चन्द ।। छाँडो लँगर मोरी बहियाँ गहो ना। मैं तो नार पराये घर की, मेरे भरोसे गुपाल रहो ना ॥ जो तुम मेरी बहियाँ गहत हो, नयन जोर मोरे प्राण हरो ना। वृन्दावन की कुंज गली में, रीत छोड़ अनरीत करो ना ।। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल चित टारे टरोना ।।
अथवा
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आलोचना खंड
६३
तीसरी और कबीर और रैदास के निर्गुण पदों में रस की धारा उमड़ाती हुई
मीराँ गा उठती हैं :
अथवा
अथवा
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सखी री मैं तो गिरधर के रंग राती ॥ टेक ॥
पंचरंग मेरा चोला रंगा दे, मैं मुरमट खेलन जाती ।
कुरमट में मेरा साईं मिलेगा खोल डम्बर गाती ॥ चंदा जायगा सुरज जायगा जायगा धरण अकासी । पवन पाणी दोनों ही जायँगे, अटल रहे अविनासी ॥ सुरत निरत का दिवला सँजाले, मनसा की कर बाती । प्रेम हटी का तेल बना ले, जला करे दिन राती ॥ जिनके पिय परदेस बसत हैं, लिखि लिखि भेजें पाती । मेरे पिय मो माहिं बसत हैं, कहूँ न श्राती जाती ॥ इत्यादि ॥ चौथी र मीरां चंडीदास, विद्यापति तथा नरसी मेहता के मधुर भाव की भक्ति का श्रभिव्यंजना करती हैं :
तुम्हरे कारण सब सुख छोड्या, व मोहिं क्यूं तरसावो । विरह विथा लागी उर अंदर सो तुम प्राय बुझावो ॥ अब छोड़याँ नहिं बनै प्रभू जी, हँस कर तुरत बुलावो । मीरा दासी जनम जनम की, अंग सूँ ग्रंग लगावो ॥ कानुड़े न जारणी मोरी पीर,
हूँ तो बाल कुँवारी रे, कानुड़े न जाणी मोरी पीर ॥ टेक ॥ जल रे जमना श्रमे पाणीडांगया तां, बाहला कानुडे उडाड्या श्राछां नीर; उदयां फररररररर रे; कानुड़े ... १ ॥
भज मन चरण कँवल विनासी ।
जेता दीसे धरनि गगन बिच, तेताह सब उठि जासी ।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें; कहा लिए करवत कासी ॥
इस देही का गरब न करना, माटी में मिल जासी ।
यो संसार चहर की बाजी, सांझ पड़याँ उठि जासी ॥ इत्यादि ॥
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૨૪
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मीराँबाई
वृन्दा रे बन माँ वाले राम रच्यो छे सोल से फाटयाँ चर रर र रर रे;
गोपीनाँ तारण्यां चीर, कानुड़े... ॥ २ ॥
हूं वरणा गी कान्हा तमारारे नामनी रे, कानुड़े मायों के श्रमने तीर वाग्याँ अररररररर रे; कानुड़े ... ॥ ३ ॥ बाई मीरां के प्रभु गिरधर नागर, कानुड़े वाली ने फेंकी उँचे गीर; राख उड़े फर रर र रर रे; कानुड़े ... ॥ ४ ॥
[ अर्थात् कन्हैया मेरे प्रेम और विरह की पीड़ा को नहीं जानता और नहीं जानता मेरे कुमारी के प्रेम को । हम यमुना नदी से जल लाने के लिए गई थीं; वहाँ कन्हैया ने जल के छींटे उछाल कर हमें भिगो दिया। हमारे प्रियतम कन्हैया ने वृन्दाबन में रासलीला रची और सोलह सौ गोपियों के परि धान खींचे और उनके खींचने से हम लोगों के वस्त्र चर चर करके फट गए। हे कृष्ण मैं तुम्हारे नाम के पीछे पागल हो गई हूँ तुमने वाण चलाकर मुझे बेध दिया है और वे बाण मेरे हृदय में घुसते ही जा रहे हैं । ]
भक्ति के इन स्वरूपों के अतिरिक्त एक चौथा स्वरूप भी है । सागर के समीप पहुँच कर उस अनंत महासागर में विलीन होने की प्रबल उत्कंठा जो नदी की जलधारा में दिखाई पड़ती है वह प्रवल आवेग ही जल-धारा की प्रमुख विशेषता है । यह वेग तो धारा में निरंतर विद्यमान रहता है परंतु महा सागर के पास पहुँचकर उसका वेग अत्यन्त तीव्र हो उठता है । भक्ति का यह प्रबल वेग, अपने प्रियतम से मिलने की यह प्रबल उत्कंठा, जितनी तीव्र मीरों के पदों में मिलती है; उतनी और किसी भी भक्त और कवि के पदों में नहीं मिलती । बात यह है कि अपने प्रियतम के जितना समीप मीराँ पहुँच गई थीं, उतना और कोई भक्त नहीं पहुँच सका था । इसीलिए यह श्रावेग, यह उत्कंठा भी मीरों में तीव्रतम है। केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा:
मैं हरि बिनि क्यूं जिऊँ रे माइ ।
for कारण बौरी भई, ज्यूँ काठहि धुन खाइ ॥ खद मूल न संचरै, मोसि लाग्यो बौराइ |
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इस प्रकार मीराँबाई के पदों में उस युग की सभी प्रमुख भावनाओं की अत्यंत सुंदर व्यंजना मिल जाती है । मीरौं भक्ति-युग की प्रतिनिधि कवि है। यह प्रतिनिधित्व कितना महत्वपूर्ण और ब्यापक है, इसका कुछ आभास इसीसे मिल सकता है कि बंगाल से लेकर गुजरात तक और पंजाब से लेकर काशी तक एक अति विस्तृत भूमि-खंड में जितनी भी प्रकार की भक्ति-भावनाएँ प्रचलित थीं, लगभग उन सभी भावनाओं की एक ही अत्यंत सुंदर अभिव्यंजना मोरों के पदों में मिलती है । यह सच है कि मोनू के पद संख्या में बहुत ही कम हैं, अतएव, प्रत्येक भक्ति-भावना पर उनके अधिक पद नहीं मिलते, परंतु जो भी थोड़े पद उपलब्ध होते हैं, प्रभाव और सौन्दर्य में वे किसी से पीछे नहीं रहते।
भक्ति-धर्म के इतिहास में, हम पहले हो देख चुके हैं कि भक्तों के दो विशिष्ट समुदाय थे, एक ता कवि गायकां का, दूसरा प्राचार्यों का । पालवार कवि-गायक थे और रामानुज, मध्व, विष्णु स्वामा तथा निम्बार्क श्राचार्य थे । बालवारों के अंत: प्रदेश के भक्ति-भावना का उल्लास, प्रेम और भक्ति का अदम्य आवेश, उसकी धारा के समान फूट निकला था; उसमें सहजाद्रेक था, भाव-प्रवणता और था एक तीव्र आवेग जो सभी बाधाओं को ठेलता हुश्रा निरन्तर आगे ही बढ़ता गया । परन्तु आचार्यों के दार्शनिक चिन्तन में इस प्रकार का कोई आवेग नहीं था, उसमें तर्क था, विवाद था और यो मस्तिष्क का मथन और बालोड़न । रूपक की भाषा में कहा जा सकता है कि श्रालवारों का गान पहाड़ी नदा की भाँति सहज और स्वच्छंद था और श्राचायों के सिद्धांत इजानियरों की बनाई प्रशस्त राजमार्ग की भांति एक नहर थी जो उस नैसार्गक धारा से निकालकर जनता के शुष्क और नीरस हृदयों को अभिसिंचित करने के लिए बनाई गई थी। एक बार ज्ञान-विज्ञान की बाधाओं को ठेलकर हृदय का उल्लास निरिणी की जल-धारा की भाँति उमड़ पड़ा था तो दूसरी ओर यह हृदय का उल्लास ज्ञान-विज्ञान की सीमाओं
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मीराँबाई में बाँध कर साधारण जनता के उपयोग के लिए संचित किया गया था । उत्तर भारत में जिन कवियों श्रीर आचायों ने भक्ति की सरलधारा प्रवाहित की थी उनमें भी स्पष्ट दो वर्ग थे। प्राचार्यों में स्वामी रामानंद और महाप्रभु बल्लभाचार्य तो विशुद्ध प्राचार्य थे जिन्होंने बाद और तर्क से, उपदेश और निदेश से, शिक्षा और दीक्षा से लोगों को भक्ति का उपदेश किया, परंतु
चैतन्य महाप्रभु कवि गायक श्रेणी के प्राचार्य थे, जिन्होंने अपनी भक्ति भावना के प्रागेश से जनता को प्राकृष्ट किया था । इसी प्रकार भक्त कवियों में भी स्पष्ट दो वर्ग थे । एक वर्ग विशुद्ध कवि-गायकों का था और दूसरा वर्ग प्राचार्यों का। जयदेव, चंडीदास, विद्यापति और मीराँबाई अपनी भक्ति-भावना के उल्लास में रस की धारा उमड़ाने वाले विशुद्ध कवि गायक थे और गुसाई तुलसीदास, कबीर और नंददास भक्ति-धर्म का मार्ग प्रशस्त करने वाले कवि-प्राचार्य थे, विशुद्ध कवि-गायक नहीं । एक मध्य श्रेणी अंधे कवि सूरदास की थी जो वास्तव में कवि-गायक थे परंतु संसर्ग-दोष से उन्हें श्राचार्यत्व भी करना पड़ा।
भक्त कवियों में प्रमुख कवि प्राचार्य गोसाई तुलसीदास थे जिन्होंने • 'कलि कुटिल-जीव-निस्तार-हित' एक ऐसे 'मानस' की व्ययस्था की जिसके एक अक्षर के उच्चारण-मात्र से सभी पाप धुल जाते थे । यह सच है कि रामचरित मानस के प्रारम्भ में ही गोसाई जी ने स्पष्ट शब्दों में लिख दिया है कि :"स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा भाषा निबंध मति मंजुल मातनोति" परन्तु बालकांड में राम-कथा प्रारम्भ करने के पहले जो अति विस्तृत भूमिका दी गई है उसे पढ़कर कोई भी नहीं कह सकता कि यह कथा केवल 'स्वान्तः सुखाय, लिखी गई थी। सच तो यह है कि जनता को राम भक्ति के प्रति आकृष्ट करने का जितना सफल प्रयास रामचरित-मानस में मिलता है उतना शायद ही और कहीं मिल सके । कथा और प्रसंग से, तर्क और बुद्धि से,प्रतीत
और प्रमाण से, उपदेश और निदेश से, जितनी प्रकार भी सम्भव था, गुसाई तुलसीदास ने राम-भक्ति को सबसे अधिक सहज, सुलभ और फलदायक प्रमाणित किया। भक्ति-भावना का मार्ग प्रशस्त करने वाले वे एक अत्यन्त
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आलोचना खंड
દહ
सफल कवि आचार्य थे । ऊपर जिस रूपक का निर्देश किया गया है, उसकी भाषा में कहा जा सकता है कि जनता के लिए राम भक्ति को सुलभ बनाने वाले 'मानस' के रचयिता तुलसीदास एक सफल इञ्जीनियर थे । राम की भक्ति धारा को उन्होंने जिस कौशल से अपने रामचरित मानस में बाँधा है, उसका पूरा विवरण मानस-रूपक में मिलता है । कवि के शब्दों में ही देखिए: सुमति भूमि थल हृदय अगाधू | वेद पुरान उदधि धन साधू ॥ बरखहिं राम सुजस बर बारी । मधुर मनोहर मंगलकारी ॥ लीला सगुन जो कहहिं बखानी । सोइ स्वच्छता करइ मल हानी || प्रेमभगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई || सो जल सुकृत सालि हित होई । राम भगत जन जीवन सोई ॥ मेधा महिगत सो जल पावन । सलिल श्रवन मग चलेउ सुहावन ॥ भरेउ सुमानस सुथल थिराना । सुखद सीत रुचि चारु चिराना |
सुठि सुन्दर संवाद बर, विरचे बुद्धि विचार | तेइ एहि पावन सुभग सर, घाट मनोहर चारि ॥
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना । ग्यान नयन निरखत मन माना ॥ रघुपति महिमा अगुन बाधा | बरनब सोइ वर बारि श्रगाधा ॥ राम सीय जस सलिल सुधा सम । उपमा बीचि विलास मनोरम || पुरइनि सघन चारु चौपाई । जुगुति मंजु छंद सोरठा सुन्दर दोहा । सोइ बहु रंग रथ अनूप सुभाव सुभासा । सोइ पराग मकरंद सुवासा ॥ सुकृत पुंज मंजुल अलि माला । ज्ञान विराग विचार मराला ||
मनि सीप सुहाई || कमल कुल सोहा ||
धुनिवरे कबित गुन जाती । मीन मनोहर ते बहु भाँती ॥ इत्यादि इस प्रकार मनोहर घाट से बँधे सप्त-सोपान-संयुक्त निर्मल-जल, कमल, मुक्ता, मीन और मराल से सुशोभित एक परम पवित्र निष्कलुष मानस की व्यवस्था करना तुलसीदास जैसे कवि- इंजीनियर का ही कौशल है । इसी कारण तुलसीदास भक्तियुग के सबसे बड़े कवि श्राचार्य हैं । परन्तु मीराँबाई ने इस प्रकार का कोई कौशल नहीं दिखाया । वे एक विशुद्ध कवि-गायिका थीं;
मी० ७
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१८
मीराँबाई
उनकी भक्ति-भावना नैसर्गिक जल-धारा के समान स्वच्छंद भाव से प्रवाहित हुई है। जिस प्रकार गुसाई तुलसीदास भक्तियुग के सबसे बड़े कवि-आचार्य हैं, उसी प्रकार मीराँ उस युग की श्रेष्ठतम कवि-गायक हैं।
यहाँ सूर, तुलसी, कबीर और मीराँ का एक तुलनात्मक विवेचन अप्रासंगिक न होगा । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है सूरदास और तुलसीदास ने ज्ञान के गौरव-गिरिशृंग पर भक्ति की सरस धारा उमड़ाई थी अतएव उनकी कविता में भक्ति और ज्ञान का संघर्ष स्पष्ट रूप से मिलता है। जनता को भक्ति की ओर आकृष्ट करने के लिए भक्ति को ज्ञान से, सगुणोपासना को निगणोपासना से श्रेष्ठ प्रमाणित करने की परम अावश्यकता थी। तुलसीदास ने इस समस्या को पौराणिक ढंग से सुलझाया ! रामचरित मानस में न जाने कितनी बार भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ बतलाया गया है। कितनी बार तो स्वयं परब्रह्म परमेश्वर स्वरूप भगवान् रामचंद्र ने अपने श्रीमुख से ही भक्ति की श्रेष्ठता घोषित की है। उत्तरकांड में वे स्वयं कहते है कि : _ 'भगतिवंत अति नीचहु प्रानी । मोहि प्रान सम अस मम बानी ।' और लक्षाण को ज्ञान तथा भक्ति का उपदेश करते हुए वे कहते हैं; जाते वेगि द्रवौं मैं भाई । सो मम भगति भगत सुखदाई ।
सो सुतंत्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ज्ञान विज्ञाना॥ ज्ञान और विज्ञान सबको भगवान राम ने अपनी भक्ति के अधीन बतलाया । इसी प्रकार उत्तरकांड में गुरु, ब्राह्मण, पुरवासी, बन्धुगण तथा मुनि-समाज के सामने भगवान् ने उपदेश करते हुए कहा था :
ज्ञान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन महुँ टेका ॥ करत कष्ट बहु पावै कोऊ । भगति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ ।।
भगति सुतत्र सकल सुख खानी। ... ... ... ... ... और अंत में भक्ति की विशेषता बतलाते हुए कहा था :
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा । जोग न मख जप तप उपवासा ॥ सारांश यह कि भक्ति-मार्ग अत्यन्त सरल है; इसमें न योग साधना पड़ता है, न यज्ञ करना पड़ता है, न जप तप का काम है, न उपवास का । परन्तु भक्ति
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श्रालोचना खंड
६४
की सबसे बड़ी विजय सती-मोह प्रसंग में दिखाई गई है जो गुसाई तुलस दास की अपनी सूझ है । इस प्रसंग में सती ज्ञान की प्रतीक है और शिवजी भक्ति के । लीलाप्रिय भगवान् राम को सीता के वियोग में विकल देखकर सच्चे भक्त शिव जी तो पुलकित हो उठते हैं, परंतु ज्ञान की प्रतीक सती के हृदय में कितनी हो शंकाएँ उठती हैं :
ब्रह्म जो व्यापक विरज अज, अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत वेद ।। विष्णु जो सुर हित नर तनु धारी । सोउ सर्वज्ञ जथा त्रिपुरारी।
खोजइ सो कि अज्ञ इव नारी । ज्ञानधाम श्रीपति असुरारी॥ और इन शंकाओं से प्रेरित होकर जब वह राम की परीक्षा लेने जाती है, तब उसे अपने ज्ञान की तुच्छता का बोध होता है और फिर शंकर द्वारा परित्यक्त होकर, पिता द्वारा अपमानित होकर उसे अपना शरीर भस्म करना पड़ता है। इस प्रकार ज्ञान और भक्ति के संघर्ष में ज्ञान पराजित ही नहीं होता उसे अपना अस्तित्व ही मिटा देना पड़ता है। सती जब दूसरा अवतार धारण करके गौरी के रूप में जन्म लेती है तब वह भी शिव जी की ही भांति भक्त है, ज्ञानी नहीं । इस प्रकार एक पौराणिक कथा के रूप में तुलसीदास ने ज्ञान का मूलोच्छेद ही कर डाला।
दूसरी ओर सूरदास ने भी ज्ञान के ऊपर भक्ति की विजय दिखाई, जे भागवत की परम्परा में होते हुए भी कवित्वपूर्ण और सुंदर है । सूर ने भक्ति की प्रतीक गोषियों को समझाने के लिये शान के प्रतीक उद्धव को ला खड़ा किया और इस प्रकार भक्ति और ज्ञान का संघर्षदिखला कर भक्ति की विजय दिखाई । यह विजय तर्क की विजय नहीं थी जैसी कि शंकराचार्य ने अपने प्रतिद्वंद्वियों पर प्राप्त की थी वरन् यह भावना की विजय थी। तर्क की दृष्टि से भक्ति और ज्ञान में कोई संघर्ष ही नहीं। ज्ञान और भक्ति का अंतर स्पष्ट करते हुए सच्चे कवि हृदय सूर ने उद्धव से कहलवाया है :
हौ इक बात कहत निगुन की वाही में अटकाऊँ । वै उमड़ी वारिधि तरंग ज्यों जाकी थाह न पाऊँ ॥
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मीराँबाई
भक्ति-भावना समुद्र की एक तरंग के समान है जो अचानक ही उठ कर तटप्रांत को जलमय कर देती है। उसकी कोई सीमा नहीं कोई थाह नहीं, कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं । एक बार जग जाने पर वह कोई अवरोध नहीं मानती । दूसरी ओर ज्ञान एक ऊँचे पर्वत के समान है, उच्च, गम्भीर और गहन । ज्ञान के गहन मार्ग पर चलने वाले उद्धव भक्ति के इस तरल आवेग से अभिभूत हो गये, यही भक्ति की सच्ची विजय थी। कवि-हृदय सूर ने भक्ति की ऐसी कवित्वपूर्ण विजय दिखाई है कि हृदय मुग्ध हो जाता है। ___ परंतु मीराँ को ज्ञान से कोई मतलब ही न था। वह भक्त थीं, अतएव भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु से उनका कोई सम्बंध न था, संघर्ष न था, द्वेष न था ईर्ष्या न थी। भक्ति को ज्ञानसे श्रेष्ठ समझकर तो उन्होंने भक्ति की नहीं थी, इसीलिए भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित करने की उन्हें कोई श्रावश्यकता ही न पड़ी । जिस समय उद्धव गोपियों के पास श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आए उस समय मीराँ की गोपियों ने कोई तर्क नहीं किया, कोई उपालम्भ नहीं सुनाया, केवल अपने अंतरतम की पीड़ा सरलतम शब्दों में प्रकट कर दिया:
अपणे करम को वो छै दोस काकूँ दीजै रे ऊधो || अपणे॥टेक॥ सुणियो मेरी बगड़ पड़ोसण, गेले चलत लागी चोट । पहली ग्यान मान नहिं कीन्हौ मैं ममता की बाँधी पोट । मैं जाण्यं हरि नाहिं तजेंगे, करम लिख्यो भलि पोच । मीरों के प्रभु हरि अविनासी, परो निवारो नी सोच ॥
[ मीराबाई की पदावली पद स० १८४ प ० ८७ ] मीराँ की गोपियों ने मीरों की ही भाँति कुछ समझ बूझ कर तो प्रेम और भक्ति की नहीं थी वह प्रेम और भक्ति तो रास्ते चलते अचानक चोट लग जाने जैसी बात थी, उसके कारण यदि विरह व्यथा सहनी ही पड़ी तो दोष केवल अपने कर्म का है । भक्ति की मीराँने कितनी सुंदर व्याख्या की है'गेले चलत लागी चोट ।' जीवन-पथ पर चलते हए यह जो अचानक हृदय
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को चोट-सी लग गई है उसे ज्ञान से श्रीष्ट किस प्रकार कहा जा सकता है। इसीलिए मीराँ ने केवल अपने चोट का, अपनी व्यथा का ही वर्णन किया; ज्ञान से उसकी तुलना न की । इतना ही नहीं उस अनंत विरह-व्यथा से व्याकुल होकर कभी तो ये प्रेम करने की ही मनाही करना चाहती हैं । अपने गिरधर नागर से उपालम्भ-स्वरूप उन्होंने कहा भी है :
जो मैं ऐसा जाणती रे, प्रीत कियाँ दुख होइ ।
नगर ढिढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोह॥ सूर और तुलसी ने भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित किया तो कबीर ने भक्ति को योग और बाह्य आचारों से श्रेष्ठ बतलाया । योगियों का उपहास करते हुए तो कहते हैं :
मन न रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा। श्रासन मार मंदिर में बैठे, ब्रह्म छाडि पूजन लागे पथरा ॥ कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौलो, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा। जंगल' जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैले हिजरा। मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँच के होइ गैले लबरा।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवा बाँधल जैबे पकड़ा । यह डाँट-फटकार केवल फटकार ही नहीं है, इसके पीछे 'मन रंगाने के प्रति जो उत्कट विश्वास और दृढ़ श्रास्था है; उसकी उपादेयता और श्रेष्ठता में जो अटल विश्वास है वही कबीर की कविता की जान है । कबीर भक्ति को सभी मागों में सुलभ और श्रेष्ठ मानते हैं और उसीका उपदेश करते हैं, परंतु उनका ढंग न सूर जैसा कवित्व पूर्ण है न तुलसीदास जैसा पौराणिक, वह खंडन-मंडन की प्रकृति से पूर्ण एक सुधारक जैसा ढंग है, जिसमें व्यंग्य और उपहास की मात्रा कुछ अावश्यकता से अधिक हो गई है। फिर भी उनकी उक्तियों में बल है और है आत्मविश्वास । संतों की समाधि से श्रेष्ठ अपनी भक्ति की सहज समाधि का वे किस निन्द्वता से वर्णन करते हैं :
संतों, सहज समाधि भली। साँइ ते मिलन भयो 'जा दिन ते, सुरत न अंत चली ॥
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मीराँबाई आँख न म दूं, कान न सैंधू, काया कष्ट न धारूँ । खुले नैन मैं हँस हँस देखू , सुन्दर रूप निहारूँ ॥ कहूँ सो नाम सुनूँ सो सुमिरन, जो कछु करूँ सो पूजा । गृह उद्यान एक सम देखू , भाव मिटाऊँ दूजा ॥ जह जहँ जाऊँ सोइ परिकरमा, जो कछु करूँ सो सेवा ।
जब सोऊँ तब करूँ दंडवत, पू जू और न देवा ॥इत्यादि।। परंतु मीरों को योग से, बाह्य प्राचारों से, किसी से भी द्वाष नहीं, किसी से घृणा नहीं । जिससे लगन लगी है उससे मिलने के लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। जिससे उनका मन रंग गया है, उससे मिलने के लिये यदि कपड़ा रंगाना पड़े, पत्थर पूजना पड़े, श्रासन मारना पड़े यहाँ तक कि काशी में अारा से धड़ भी चिरवाना पड़े तो भी कोई आपत्ति नहीं । इसीलिए तो वे कहती हैं :
बाल्हा मैं बैरागण हूँगी हो।
जी जी भेष म्हारो साहब रीझे सोइ सोइ भेष धरूँगी हो । और अपने गिरधर नागर को संबोधित करके वे कहती हैं :
ऐसी लगन लगाय कहाँ तू जासी। तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है, तलफ तलफ जिय जासी ॥ तेरे खातर जोगणं हूँगी , करवत लूँ गी काली ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल को दासी ।। मीराँ ने अपनी भक्ति में इस सीमा तक आत्मसमर्पण कर दिया था कि किसी मत अशवा मार्ग से उन्हें कोई राग थान द्वष। अपनी सिद्धि प्राप्ति के लिये वे कोई भ ना स्वीकार करने को तैयार थो-जान, योग और कर्मकांड किसी के प्रति उपेक्षा का भाव उनमें न था । अाखिर ये सभी मार्ग तो उन्हीं के पास पहुँचने के लिये हैं फिर किसी के प्रति घृणा क्यों ? जिस मार्ग से प्रियतम के देश तक पहुंचने को सुविधा हो मोरों उमो को स्वोकार करने को प्रस्तुत है। परकीया साधना से लेकर योग साधना तक सब साधना उन्हें स्वीकार है । वे लिखती हैं :
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आलोचना खंड
१०३
चला वाही देस प्रीतम पावाँ, चलाँ वाही देस । कहो कुसुम्बी सारी रँगावाँ, कहो तो भगवा भेस ॥ कहोतो मोतियन माँग भरावाँ, कहो छिटकावाँ केस ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सुनियो विरद नरेस ॥ यह जो कर्म-कांड और हठ-योग, ज्ञान और भक्ति मार्गों की संकीर्णताओं को दर हटाकर मीराँ केवल अपने गिरधर नागर के प्रति आसक्त हैं, यह उन्हीं जैसे उदार कवि हृदय की विशेषता है । जिस युग में भक्तगण ज्ञान, योग और कर्म-कांड की निन्दा कर अपने मार्ग-विशेष की श्रेष्ठता प्रमाणित करने में ही अपने कवि-कर्म की सफलता समझते थे, उसी युग में समस्त संकीर्णताओं का उल्लंघन कर विशुद्ध भक्ति-भावना का श्रादर्श उपस्थित करना मीराँवाई के ही बाँट में पड़ा था।
भक्ति काव्य और साहित्य की सब से बड़ी विशेषता यह थी कि वह जीवन से बहुत निकट था । यों तो जीवन और साहित्य का इतना घनिष्ट सम्बंध है कि साहित्य का जीवन के निकट होना उसका आवश्यक गुण है, कोई विशेष गुण नहीं, परंतु मध्यकालीन भारतीय साहित्य के लिये यह सामान्य नहीं विशेष गुण ही मानना चाहिए । जहाँ पठन-पाठन और शिक्षा का अधिकार कुछ विशेष वर्गों के लिये ही सुरक्षित था, जहाँ श्राचार और व्यवहार में, जाति-जाति में, वर्ण-वर्ण में, मनुष्य-मनुष्य में भेद-भाव की स्पष्ट रेखाएँ खिंची हुई थीं वहाँ साहित्य का जीवन के साथ निकट सम्बंध हो ही कैसे सकता था। फिर जब से साहित्य-शास्त्र ने साहित्य और काव्य को प्रभावित करना प्रारम्भ किया और जब से साहिल्य-शास्त्र पर भी व्याकरण, दर्शन और न्याय शास्त्र की छाया पड़ने लगी तबसे केवल सहृदय ही काव्य के अधिकारी माने जाने लगे, शेष व्यक्तियों का काव्य में प्रबेश अनधिकार चेष्टा समझी गई । इसका फल यह हुआ कि साहित्य जीवन से निरंतर दूर ही होता गया। ऐसे वातावरण में भक्ति साहित्य का जीवन के अत्यंत
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१०४
मीराँबाई
निकट होना उसकी प्रमुख विशेषता समझी जायगी । बंगाल और मिथिला प्रांत में वैष्णव कवि जीवन के निकट अवश्य पहुँच गये थे परन्तु वे भी जीवन के इतना निकट नहीं पहुँच सके जितना मध्यदेश के महाकवि सूर, तुलसी, मीराँ और कबीर पहुँच सके थे। बात यह थी कि भक्त होते हुए भी वे कवि. गण नायिका-भेद की परम्परा से एक दम मुक्त न हो सके थे, परन्तु सूर, तुलसी, मीराँ और कबीर उस परम्परा से एकदम मुक्त थे। इनमें मीराँ और कबीर तो सभी साहित्यिक परम्पराओं से मुक्त थे ।
. गुसाई तुलसीदास ने सम्पूर्ण हिन्दू-समाज को रामचरित-मानस का विषय बनाया। क्षत्रिय जाति में प्रसिद्ध रघुवंश में जन्म लेकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् राम ने त्रैलोक्य-विजयी महापराक्रमी दुरन्तः राक्षसराज रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद, कबंध और विराध प्रभृति का हो बध नहीं किया, गो. ब्राह्मणों का प्रतिपालन भी किया; वशिष्ठ और विश्वामित्र, अत्रि और अगस्त, सुतीक्ष्ण और वाल्मीकि श्रादि महर्षिगणों को अपने शील धर्म से प्रसन्न कर उनके स्नेह भाजन भी बने; महाराज दशरथ और विदेहराज जनक के सत्य धर्म की रक्षा भी की; सुग्रीव और विभीषण, जामवंत और जटायु से मैत्रीधर्म का निर्वाह भी किया; निषाद और हनुमान की सेवा ग्रहण की; शवरी पर विशेष कृपाकर उसका अातिथ्य स्वीकार किया; जनकपुर के निवासियों और वन-यात्रा करते समय मार्ग में ग्राम-बंधुत्रों को अपने शील सौन्दर्य से मुग्ध किया; और माता, बंधु, पत्नी तथा प्रजा सबसे समुचित शील धर्म का निर्वाह कर वे हिन्दू समाज के प्रादर्श और आराध्य बने । सच तो यह है कि गुसाई तुलसीदास ने सम्पूर्ण हिन्दु-समाज को 'राममय' कर दिया।
सूरदास ने सम्पूर्ण हिन्दू जाति को नहीं केवल गोकुल गाँव के एक छोटे से समाज को लिया । गो,गोप और गोपियों के बीच मनमोहन श्याम ने जो रस की धारा उमड़ाई, वह केवल गोकुल तक ही सीमित न रह सकी, वरन् समस्त भारत उस रस में निमग्न हो गया । अंधे कवि सूरदार की दृष्टि उस व्यापक समाज की ओर नहीं गई जहाँ गुसाई तुलसीदास ने अपने भगवान् राम को
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अलोचना खंड
१०५. प्रतिष्ठित किया था, परन्तु गोकुल गाँव के सरल और सरस जीवन में ही सूर ने कुछ ऐसा माधुर्य भर दिया कि मुसलमान कवि रसखान भी उस सरल जीवन पर तीनों लोकों का राज्य निछावर करने को प्रस्तुत हो गया था।
मीरा ने न तो हिन्द-समाज को लिया, न गाँव अथवा घर के एक छोटे से समाज को। उस कवि-गायिका का क्षेत्र एक व्यक्ति तक ही सीमित रहा और उस व्यक्ति विशेष के भी केवल विरह-निवेदन की अोर मीरों की विशेष रुचि रही । इस सीमित दृष्टिकोण ने जहाँ उनकी व्यापक भक्ति भावना को क्षति पहुँचाई, वहाँ भावों की गहराई में मीराँ अद्वितीय प्रमाणित हुई। उन्होंने समस्त राष्ट्र और जाति को, गाँव और घर के सरल समाज को राममय और कृष्णमय नहीं किया, परंतु गिरधरनागर के प्रेम में उन्मत्त अपने व्यक्तित्व को ही इतना ऊँचा उठा दिया कि उनके मधुर संगीत पर, उनके एक-एक पद पर केवल हिन्दु समाज ही नहीं मानव मात्र मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता । सारांश यह कि जहाँ गुसाई तुलसीदास ने सम्पूर्ण हिन्दू-समाज को 'राममय' कर दिया, सूर ने गो, गोकुल और गोपियों को श्रीकृष्णमय बनाया वहाँ मीराँ ने व्यक्ति-व्यक्ति के हृदय में आध्यात्मिक प्रेम की लौ जलाई।
जीव और ब्रह्म का सम्बंध भारतीय दार्शनिक चिन्तन की एक प्रमुख समस्या रही है । उपनिषद् काल के ऋषियों ने इस सम्बंध में बड़ा गम्भीर चिन्तन
और मनन किया था और अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि वस्तुतः परमात्मा और जीवात्मा एक ही हैं उनमें कोई अंतर नहीं । इसी विचार-धारा का तार्किक विकास करते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य ने अतिवाद का प्रतिपादन करके यह मत स्थिर किया था कि वास्तव में जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं---'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।'-और यह जो
१ या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं । आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख नन्द की गाय चराय बिसारौं । कोटिन हू कलधौत के धाम करील के कुञ्जन ऊपर वारौं। रसखान कहै इन आँखिन से ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं ।।
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मीराँबाई प्रकट और प्रत्यक्ष भिन्नता दिखलाई पड़ती है, वह माया के कारण है । माया के आवरण से आच्छादित होकर जीव ब्रह्म से विलग हो जाता है । माया के इस अावरण ने निराकार को साकार, निर्गुण को सगुण, असीम को ससीम और अनंत को सांत बना दिया है । जो ज्ञानी हैं, जिन्हें निर्गण और निराकार असीम और अनंत का श्राकर्षण विशेष है, वे इस माया के आवरण को स्वीकार करना नहीं चाहते, इसे वे भ्रांति मानते हैं, अज्ञान समझते हैं। स्वप्न में अनुभव किए गए सुख और दुःख जैसे असत्य हैं, यह माया जगत भी ठीक वैसा ही है । इसीलिए ज्ञानी पुरुष इस नाया के आच्छादन को भेद कर ब्रह्म में विलीन हो जाना चाहते हैं। परन्तु जो ज्ञानी नहीं हैं, जिन्हें निर्गण और निराकार असीम और आनंत के प्रति विशेष आकर्षण नहीं हैं, वरन् इस सगुण
और साकार प्राणी के प्रति जिनमें मोह और ममता है वे इस माया के प्रावरण को सत्य मानकर उसे स्वीकार करते हैं; वे ब्रहा में विलीन होना नहीं चाहते, ब्रह्म का सान्निध्य प्रात करना ही उनका चरम उद्देश्य होता है । भागवत पुराण में इस प्रावरण-विरहित ब्रा को कवित्व की भाषा में पुरुष की और माया के प्रावरण में आच्छादित जीव को लज्जा के यावरण में रहने वाली नारी की संज्ञा दी गई है। ब्रह्म पुरुष है, जीव नारी और इसी आधार पर माधुर्यभाव की भक्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हुई है।
हिन्दी साहित्य-संसार में मीराँबाई माधुर्य-भाव की भक्ति की प्रतीक हैं । मीरों को अपने नारीत्व का पूर्ण ज्ञान है, अपने लज्जा के प्रावरण के प्रति मोह है। उस श्रावरण-विरहित ब्रह्म की श्रेष्ठता स्वीकार करता हुई भी वे अपना आवरण छोड़ना नहीं चाहतीं। भागवत की प्रसिद्ध चीर-हरण-लीला का वर्णन करती हुई वे कहती हैं :
मट द्यो मेरो चीर, मोरारी, मोरारी रे झट द्यो मेरो चीर । ले मेरो चीर कदम चढ़ बैठो, में जल बीच उघाड़ी। ऊभी राधा अरज करत हे, हो चीर दीवो गिरधारी ।
प्रभु तोरे पाँव परूँगी। जे राधा तेरो चीर चहत हो. जल से हो जा न्यारी ।
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अालोचना खंड
जल से न्यारी काना कभुवे न होवंगी, तुम हो पुरुष हम नारी ।
लाज मोहुँ अावत भारी ।। तुम तो कु वर नंदलाल कहावो, में ब्रजभान दुलारी। मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, तुम जीते हम हारी।
चरन पर जाउँ बलिहारी ॥
. [बृहत् काव्य दोहन भाग ७ मीरां के पद नं०११२ ] श्रावरण-विरहित ब्रह्म-रूपी पुरुष मुरारी की जीत हुई और माया के प्रावरण से बाच्छादित जीव-रूपी नारी राधा ने अपना पराजय स्वीकार किया, परंतु उस जीव का भी कितना अटल निश्चय है "जल से न्यारी काना कभुवे न होवूगी तुम हो पुरुष हम नारीलाज मोहूँ श्रावत भारी ।" नारीत्व की मर्यादा का कितना सुंदर चित्रण है।
वहीं नारीत्व की मर्यादा मीरों की भक्ति और कवित्व का मूल रहस्य है । जीव की नारी भावना को लेकर और भी कितने कवियों ने माधुर्य-भाव की भक्ति-धारा प्रवाहित की है, परन्तु उन कवियों ने नारीत्व की मर्यादा का ध्यान नहीं रखा, नारी जीवन की पवित्रता और महानता का चित्र उपस्थित नहीं किया। उन्होंने केवल उच्छखल नारी-प्रकृति का ही चित्र उपस्थित किया । उन कवियों · लगभग सभी के सभी पुरुष थे, इसी कारण सम्भवतः उन्होंने नारी-जीवन की पवित्र मर्यादा का निर्वाह नहीं किया; परन्तु उनमें जो स्त्री कवि भी हुई हैं, उन्होंने भी परम्परा के वशीभूत होकर नारी-प्रकृति की पवित्रता और मर्यादा का ध्यान नहीं रखा। मीराँबाई ने उस परम्परा की अवहेलना कर नारी-ज वन की जो एक मर्यादा स्थापित की, वह भारतीय साहित्य में अद्वितीय है । वृंदावन में गौएँ चरानेवाले मुरलीधर श्याम से बे प्रार्थना करती हैं :
मने चाकर राख जी, मने चाकर राखो जी। चाकर रहतूं बाग लगासं, नित उठ दरसण पासू । बिन्द्राबन की कंज गलिन में, तेरी लीला गासं ॥
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मीराँबाई
चाकरी में दरसण पाऊँ,सुमिरण पाऊँ खरची। भाव भगति जागीरी पाऊँ,तीनों बाताँ सरसी ।। मोर मुकट पीताम्बर सोहै, गल बैजन्ती माला । बिन्द्राबन में धेनु चराबे, मोहन मुरली वाला ॥ हरे हरे नित बन्न बनाऊँ,बिचबिच राखू क्यारी। सांवरिया के दरसण पाऊँ, पहर कुसुम्भी सारी ।। जोगी पाया जोग करण क,तप करणे संन्यासी । हरी भजन क साधू पाया,बिन्द्रावन के बासी ॥ मीराँ के प्रभु गहिर गभीरा सदा रहो जी धीरा । आधी रात प्रभु दरसण दैहै,प्रेम नदी के तीरा ।।
[मीरांचाई की पदावली पद सं० १५४ पृ० ७४-७५ ] नारी ने पुरुष से चाकरी मांगते हुए उसके उद्यान में मालिन बनने की प्रार्थना की । इसमें उसको कितने ही लाभ थे। अपने प्रियतम की प्रिय वस्तु को सँभालने और सजाने का रुचिर कार्य, फिर प्रातःकाल फूल अर्पित करते समय स्वामी का दर्शन, अवकाश के समय उद्यान के हरे-भरे कुजों में धूम-घूम कर प्रियतम की लीलाओं का सुमधुर गान, उनके लिये नई-नई क्यारियां सजाना,नए-नए फूल खिलाना और अंत में कुसुम्भी सारी पहन कर सांवलिया का दर्शन पाना-कितने अलभ्य लाभ हैं । कुसुम्भी सारी पहन कर 'सांवलिया' के दर्शन पाने की लालसा अपने प्रियतम पुरुष को आकर्षित करने के लिये नहीं है,वह तो केवल अपने संतोष के लिए है,अपनी सहज नारी प्रकृति की तृप्ति के लिए है। बंगाल के कवीन्द्र रवीन्द्र ने इसी सहज 'नारीप्रकृति का चित्रण करते हुए अपने एक गीत में लिखा है :
"श्रो मां ? अाज राजकुमार हमारे द्वार पर से ही निकलने वाले हैं, इस प्रातःकाले में अपना नित्य का अावश्यक कार्य कैसे कर सकती हूँ। मुझे मेरा केश बांधना सिखलाओ, आज मैं कौन-सा वस्त्र धारण करूँ, यह बतलाश्रो।
मां ! मेरी ओर श्राश्चर्यचकित होकर क्या देख रही हो ?
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आलोचना खंड
१०६
__ मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि वे राजकुमार मेरे वातायन की ओर एक बार भी दृष्टिपात न करेंगे; वे निमिष मात्र में ही मेरे दृष्टि-पथ से दूर चले जाएँगे, केवल वीणा की निरंतर क्षीण होती हुई स्वर-धारा ही बहुत दूर से सिसकती हुई मेरे पास तक था सकेगी। __ परन्तु राजकुमार मेरे ही द्वार पर से जाएँगे और मैं उस समय अपने संदरतम परिधान में मुसज्जित रहूँगी।"
मीराँ ने इसी सहज नारी-प्रकृति का जो भावमय चित्रण किया है वह कितना सरल है फिर भी कितना मधुर । नारी का पुरुष के प्रति जो एक स्वाभाविक याकर्षण है वह केवल एक आकर्षण मात्र है, एक कुतूहल है जिसमें किसी वासना का लेश नहीं, कोई कामना नहीं, जो स्वच्छंद होने पर भी पवित्र है। इसी स्वच्छंद और पवित्र नारी-भावना से मीराँ अपने गिरधर नागर का दर्शन करना चाहती हैं । फिर यह बाग लगाने की चाकरी मीराँ जैसी नारी को ही शोभा देता है । जो असंख्य अनगिनत नारियों का एक ही पुरुष है, जिसकी श्रद्धा और सेवा के लिए लक्षावधि नारियाँ अपनी भिन्न-भिन्न भावनाओं से प्रस्तुत हैं, वहाँ यह प्रेमपूर्ण भावप्रवण चाकरी कितनी अदभुत और अपूर्व है । मीरा ने ही पहले-पहल इस प्रेमपूर्ण चाकरी की कल्पना की थी और उनके साढ़े तीन सौ वर्षों बाद बंगाल के कवीन्द्र रवीन्द्र ने सम्भवतः उन्हीं से प्रभावित होकर इस चाकरी को वरण किया था। वे लिखते हैं :
1. O mother, the young Prince is to pass by our door ---how can I attend to my work this morning ? Show me how to braid up my hair; tell me what garment to put on
Why do you look at me amazed, Mother?
I know well he will not glance up once at my windows; I know he will pass out of my sight in the twinkling of an eye; cnly the vanishing strain of the flute will come sobbing to me from a far. . But the young Prince will pass by our door, and I will put on my best for the moment.
( Gardener VII Song.)
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मीराँबाई
सेवक-मेरी राजरानी ! अपने सेवक पर दया करो। 'राजरानी-सभा विसर्जित हो गई और मेरे सभी सेवक चले गये । तुम
इतनी देर में क्यों आए ? सेवक-जब आप सभी से छुट्टी पा जाती हैं, तभी तो मेरी सेवा का समय
होता है। मैं यह जानना चाहता कि आपके अंतिम सेवक के लिए,
कौनसा कार्य बच गया है।। राजरानी--जब इतनी देर हो गई तब तुम किस कार्य की सम्भावना
करते हो ? सेवक-मैं अपने अन्य कार्य छोड़ दूंगा । मैं अपना कृपाण और बर्थी धूल में
फेंकता हूँ। मुझे दूर राजदरबारों में न भेजिये, मुझे किसी नवीन अभियान पर जाने की आज्ञा न दीजिये, वरन् मुझे अपने पुष्पोद्यान
का माली बनाइये। राजरानी-उद्यान में तुम कौनसा कार्य करोगे? सेवक-अापके अवकाश समय की संवाएँ। आप प्रातःकाल जिस दूर्वादल
के कोमल पथ पर पद-संचार करती हैं मैं उसे हरा-भरा रखंगा, जहाँ अापके कोमल श्री चरणों से दलित होने की कामना वाले पुष्प श्रापके
चरणों का विनययुक्त स्वागत करेंगे। रवीन्द्र अपनी अधिष्ठात्री देवी के माली होना चाहते हैं और मीराँ अपने गिरधर नागर की मालिन । कला, संगीत और नाटकीय गुणों में रवीन्द्र का यह गीत अद्वितीय है परन्तु भावों की कोमलता और सहज मधुरता में मीरों के 2. Servant--Have mercy upon your servant, my queen !
Queen--The assembly is over and my servants are all gone. Why do you come at this late hour ?
Servant----When you have finished with others, that is my time. I come to ask what remains for your last servant to do.
Queen--What can you expect when it is too late ? Servant-I will give up my other work. I throw my swords and lances in the dust Do not send me to distant courts, do
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आलोचना खंड
१११ इस पद की कोई तुलना ही नहीं है । स्वच्छंद और पवित्र नारी-प्रकृति के उल्लास का यह मधुर संगीत हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।
जीवात्मा को नारी का रूपक मीरा के अतिरिक्त अन्य भक्तों और कवियों ने भी दिया है, परन्तु उन सभी ने जीवात्मा को नारी का रूपक मात्र माना, .जीवात्मा को नारी स्वीकार नहीं किया । इसका कारण यह था कि नारी के प्रति उनमें श्रद्धा और विश्वास का अभाव था। जिस प्रकार गुसाई तुलसीदास ने कामी पुरुषों की नारी के प्रति श्रासक्ति से भगवान् राम के प्रति अपनी
आसक्ति की तुलना की है, परन्तु वे स्वयं कामी पुरुषों की नारी-पासक्ति को घृणा की दृष्टि से देखते थे, उसी प्रकार 'राम की बहुरिया' कबीर ने रूपक की दृष्टि से जीवात्मा को नारी का स्वरूप तो अवश्य दिया परन्तु स्वयं नारी के प्रति श्रद्धालु न होने के कारण उसे नारी नहीं मान सके । नारी-जीवन के मुख्य दो पक्ष हैं--एक है उसका निर्वल पक्ष, दूसरा सबल । नारी का अबला. पन और असमर्थता, अशीच और अज्ञानता, बाह्य कोमलता और आवरण उसके निर्वल पक्ष हैं; दूसरी ओर उसका विश्वास और निश्चल प्रेम, करुणा
और क्षमा, धैर्य और कष्ट-सहिष्णुता उसके सबल पक्ष हैं । कवि प्रसाद ने 'कामायनी' में श्रद्धा से भी कहलाया है:
यह अाज समझ तो पाई हूँ, मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता, लेकर मैं सबसे हारी हूँ॥ यह नारी का निर्बल पक्ष है । दूसरी ओर वही श्रद्धा जब कहती है : not bid me undertake new conquests- But make me the gardener of your ffower garden
Queen--What will your duties be?
Servant--The service of your idle days. I will keep fresh the grassy path where you walk in the morning, where your foot will be greeted with praise at every step by flowers eager for death ( Gardener The first song ) १ कामिहिं नारि पियारि जिमि, लोभिहिं प्रिय जिमि दाम ।
त्यों रघुबीर निरन्तर प्रिय लागर्हि मोहिं राम ।।
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११२
मीराँबाई
महातरु छाया में ।
सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ॥ इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है ।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल फलकता है ॥ तब वह नारी - जीवन के सबल पक्ष की ओर संकेत करती है। मध्यकालीन संत कवियों ने नारी-जीवन का केवल निर्बल पक्ष ही देखा था । देखिये कबीर का नारी के प्रति कैसा भाव है :
चलो चलो सबही कहैं, पहुँचै बिरला कोय | एक कनक कामिनी, दुर्गम घाटी दोय ||
नारी की भाई पड़े, अंधा होत भुजंग । कबिरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग ॥
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इसी अश्रद्धा के कारण कबीर ने नारी की अज्ञानता, असमर्थता, बलापन और उसके बाह्य आवरण को ही नारी का सर्वस्व मानकर जीवात्मा पर केवल उन्हीं का आरोप किया । नारी के प्रांतरिक गुण -- उसकी लज्जा, करुणा, विश्वास और अटल प्रेम का आरोप करने का उन्हें ध्यान ही न रहा । श्रस्तु जीवात्मा की अज्ञानता को लक्ष्य करके कबीर कहते हैं :
जागु पियारी अब का सोवै । रैन गई दिन काहे को खोवै ॥ जिन जागा तिन मानिक पाया । तैं बौरी सब सोइ गँवाया || पिय तेरे चतुर, मूरख तू नारी । कबहुँ न पिय की सेज सँवारी ॥ इसी प्रकार नारी की अशुचिता का आरोप करके वे जीवात्मा से कहलवाते हैं :
मेरी चुनरी में परि गयो दाग पिया ।
पांच तत्त की बनी चुनरिया, सोरह से बंद लागे जिया । यह चुनरी मेरे मैके ते श्राई, ससुरा में मनुनाँ खोय दिया मलि मलि धोई दाग न छूटा, ज्ञान को साबुन लाय पिया | कहै कबीर दाग कब छुटि हैं, जब साहब अपनाय लिया ॥ और नारी के बलापन और असमर्थता का ध्यान रख कर वे कहते हैं :
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अालोचना खंड
११३
मिलना कठिन है कैसे मिलौंगी प्रिय जाय । सममि सोचि पग धरौं जतन से बार-बार डिग जाय ॥ ऊँची गैल राह रपटीली, पाँव नहीं ठहराय ।। लोक-लाज कुल की मरजादा, देखत मन सकुचाय ॥ नैहर-बास बसौं पीहर में, लाज तजी नहिं जाय ।
अधर भूमि जहँ महल पिया का, हम पै चढ़यो न जाय ॥ इत्यादि परंतु मीराँ की नारीत्व पर श्रद्धा थी, विश्वास था । इसीलिए उन्होंने नारी की अज्ञानता, असमर्थता और अबलापन की ओर ध्यान न देकर नारी का अटल प्रेम और विश्वास, सहनशीलता और त्याग देखा और प्रियतम के विरह में लज्जा को तिलांजलि देकर पिया के ऊँचे महल की ओर जाने का प्रयत्न नहीं किया, अभिसार की प्रवृत्त नहीं दिखाई, वरन् अपनी निश्चल भक्ति, व्यथा सहने की क्षमता और त्याग से भगवान को ही अपने निकट खींचने का प्रयत्न किया। विरह की व्यथा से व्याकुल होकर वे गा उठती है:
दरस बिन दूखन लागे नैन । जब के तुम बिछुरे प्रभु मोरे कबहुँ न पायो चैन । सबद सुणत मेरी छतियाँ काँपै, मीठेमीठे बैन । बिरह कथा का काहूँ सजनी, बह गई करवत ऐन ॥ कल न परत पल हरि मग जोवत, भई छमासी रैण ।
मीरों के प्रभु कबरे मिलोगे, दुख मेटण सुख दैण || इस कष्ट-सहिष्णुता में, इस व्यथा में कितना त्याग है, कितना अात्म-समर्पण है, वह भी माराँ स्पष्ट रूप में कह देती हैं :
तुमरे कारण सब सुख छाड्या अब मोहिं क्यूं तरसावी हो। बिरह बिथा लागी उर अंतर, सो तुम श्राय बुझावी हो ।
अब छोड़त नाहिं बन प्रभू जी, हँसि करि तुरत बुलावी हो। __ मीरा दासी जनम जनम की, अंग से अंग लगावी हो।
विद्यापति तथा बंगाल के वैष्णव कवियों ने भी जीवात्मा को नारी का रूपक दिया, परंतु नारी जाति के प्रति उनकी मी श्रद्धा अधिक नहीं थी।
मी.८
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मीराँबाई वैष्णवों के प्रतिनिधि कवि और आचार्य रूप गोस्वामी के सम्बंध में कहा जाता है कि उन्होंने मीरों से मिलना केवल इसलिए अस्वीकार किया था कि वे नारी थीं। इसी कारण नारी का सहज सुंदर चित्रण करने में वे वैष्णव कवि भी असमर्थ रहे । यद्यपि कबीर यादि संतों की भांति नारी की अज्ञानता, अशौच और असमर्थता को ही उन्होंने नारी-जीवन का सर्वस्व नहीं माना, परंतु वे भी नायिका-भेद के लक्षण-ग्रन्थों में वर्णित मान, अभिसार, पूर्वानुराग और विरह तक ही रह गए, नारी जाति के सरल विश्वास, अटल प्रेम और अद्भुत सहनशीलता का चित्र प्रस्तुत नहीं किया । अस्तु, विद्यापति जहाँ नायिका-भेद की परम्परा का अनुसरण करते हुए कहते हैं :---
नंदक नंदन कदमक तरु तरे धिरे धिरे मुरली बजाउ। समय संकेत निकेतन बइमल बेरि बेरि बोल पठाउ ।।
सामरी तोरा लागि अनुछन विकल मुरारि । जमुनक तीर उपवन उदवेगल फिरि फिर तत हिं निहारि ।
गोरस वेचन अवइत जाइत जनि जनि पुछे बनमारि ।। वहाँ मीराँ ने इस परम्परा की पूर्ण अवहेलना कर नारी जाति के सहज स्वाभाविक गुणों का ही चित्रण किया। अपने गिरधर के विरह में वे गा उठती है:
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ॥ टेक || गिरधर म्हारो साँचो, देखत रूप लुभाऊँ ।। रैण पड़े तब ही उठ जाऊँ, भोर गये उटि ग्राऊँ। रैण दिना वाके सँग खेलं , ज्यं ज्यं वाहि रिझाऊं | जो पहिरावै सोई पहिरूँ, जो दे सोई खाऊँ। मेरी उणकी प्रीत पुराणी, उण चिन पल न रहाऊँ ।। जहाँ बैटावै तितही बैठं, बेचै तो बिक जाऊँ । मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जाऊँ ॥ मध्ययुग में जहाँ संतों और वैष्णव कवियों को नारी के प्रति इतनी अश्वद्धा थी, वहाँ अाधुनिक महाकाव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नारी जाति के प्रति अत्यधिक श्रद्धा है । एक गीत में वे लिखते हैं :
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आलोचना खह
११५
"नारी ! तुम केवल भगवान् की ही अद्भुत कृति नहीं हो, वरन् मानवों की भी अद्भुत कृति हो; वे निरंतर अपने अंतरतम से तुम्हें सौन्दर्य की विभूति से भूषित करते रहते हैं। ___कविगण स्वर्णिम कल्पना के धागों से तुम्हारे लिए एक जाल-सा बुनते रहते हैं; चित्रकार निरंतर तुम्हारे स्वरूप ( बाह्य सौन्दर्य ) को अमरत्व प्रदान करते रहते हैं।
तुम्हें विभूषित करने, अाच्छादित करने, तुम्हें अत्यधिक अतुलनीय बनाने के लिए सागर मुक्ता देते हैं, खान सुवर्ण और वसंतोद्यान अपने पुष्प प्रदान करते हैं।
मानव-हृदय की वासना ने तुम्हारे यौवन को सदैव ऐश्वर्य प्रदान किया है।
तुम अर्द्ध नारी हो और अर्द्ध स्वप्न ।१ नारी आधी तो पंच तत्वों की बनी भौतिक मानवी है और आधी स्वप्न इसीलिए इस नारी से अभिसार करने स्वयं भगवान् को पाना पड़ता है। कबीर तथा वैष्णव कवियों ने अमिसार का सारा कार्य-भार नारी पर ही रखा था, परंतु रवीन्द्रनाथ को यह बात सह्य नहीं हुई। जो ईश्वर तथा मानव दोनों की ही प्रिय सृष्टि है, उसे अपने नारीत्व की मर्यादा और लज्जा की तिलांजलि देकर अभिसार के लिए ले जाना उसका अपमान करना है। इसीलिए त्वयं भगवान् ही इस नारी से अभिसार के लिए निकलते हैं। इतना ही नहीं, जब पुरुष
__ 1.0 Woman, you are not merely the handiwork of God, but also of men; these are ever endowing you with beauty from their hearts.
Poets are weaving for you a web with threads of golden imagery: painters are giving your form ever new immortality
The sea gives its pearls, the mines their gold, the summer gardens their flowers, to deck you, to cover you, to make you more precious The desire of men's heart has shed its glory over your youth. You are one-half woman and one-half dream.(Gardener LIX)
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मीराबाई
ब्रह्म जीवात्मा नारी के प्रेम के आकर्षण से अभिसार के लिए उसके द्वार पर श्रा पहुँचता है, तब भी नारी-सुलभ लज्जा से वह अपना प्रेम छिपा ले जाती है:
"जब मेरी शैया-घर का दीप बुझ गया, मैं प्रत्यूषकालीन पक्षियों के साथ उठ बैठी।
मैं अपने बिखरे अलकों पर एक नूतन माला डाले अपनी खुली खिड़की पर बैठ गई।
प्रभात के स्वर्णिम नीहारिका में नवयुवक यात्री राजमार्ग से पाया ।
उसके गले में मोतियों की माला थी और वाल सूर्य की किरणें उसके मुकुट पर पड़ रही थीं। वह मेरे द्वार पर आकर रुक गया और उत्कंठित स्वर में मुझसे पूछा, वह (प्रेमिका) कहाँ है ! ___ लज्जा के कारण मैं यह भी नहीं कह सकी कि वह मैं ही हूँ, यात्री, वह मैं ही हूँ।"
मोरों की नारी रवीन्द्रनाथ की नारी की भांति आधी स्वप्न नहीं है, वरन् वह सम्पूर्ण भौतिक नारी है; उसमें दुर्बलताएँ भी हैं और गुण भी। एक ओर तो वह नारीजनोचित भय से बादल देखकर ही डर जाती है :
.. बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी | दूसरी और उन्हीं बादलों के गर्जन में उसे अपने हरि के आने की आवाज सुनाई पड़ती है :
1. When the lamp went out by my bed I woke up with the early birds.
I sat at my open window with a fresh wreath on my loose hair.
The young traveller came along the road in the rosy mist of the morning.
A pearl chain was on his neck, and the sun's rays fell on his crown- He stopped before my door and asked me with an eager cry, "Where is she pa ____ For very shame I could not say, "She is I, young traveller, she is I"
Gardener
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आलोचना खंड
सुनी हो मैं हरि श्रावन की श्रावाज । म्हेल चढ़े मग जोऊँ मोरी सजनी, कब श्रावै महाराज ।। दादर मोर पपया बोले, कोहल मधुरे साज । उमग्यो इन्द्र चहूँ दिसि बरसे, दामिणि छोड़ी लाज । धरती रूप नवा नवा धरिया, इंद्र मिलण के काज । मोरों के प्रभु हरि अविनासी बेग मिलो महाराज ||
[गीराबाई की पदावली पद सं० १४१ प ० ६९-७० ] नारी-सुलभ लज्जा से मीराँ की नारी प्रायः स्वयं अभिसार के लिए नहीं निकलती, परंतु उसके लिए उसके प्रियतम भी अभिसार के लिए नहीं निकलते । मोरों उनकी 'जनम जनम की दासी' हैं, दासी के लिए उनका अभिसार उचित भी नहीं है । मीराँ ने नारी को वास्तविक नारी के रूप में देखा और उसके प्रेम और भक्ति का जितना यथार्थ और सुन्दर चित्रण उन्होंने किया वैसा साहित्य में अन्यत्र कहीं दुलभ है।
मीरों के पदों में सहज और स्वच्छंद नारी-प्रकृति का प्रेम और विरह अपूर्व है । पुरुष और नारी के बीच जो एक पवित्र और मर्यादापूर्ण प्रेम का बंधन है, वही प्रेम का बंधन मीराँ ने अपने गिरधर नागर के साथ स्थापित किया । इस सरल नारी-हृदय के प्रेम और विरह में जो सहज पवित्रता है, जो सरल गम्भीरता है, जो मुग्धकर सौन्दर्य है, वह हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। सरल-हृदया नारी को अपने प्रभु से मिलने की उत्कट इच्छा है, उनके विरह में वह अत्यन्त व्याकुल है, परंतु इस उत्कट अभिलाषा के रहते हुए भी वह सरला है, अनजान है, उसे पता नहीं कि कब और कैसे प्रियतम प्रभु से मिलना होता है । इसीलिए उसके साजन आकर चले भी जाते हैं और वह सोती ही रहती है:
मैं जाण्यो नहीं प्रभु को मिलण कैसे होहरी ॥ टेक ॥ श्राए मेरे सजना, फिरि गए अगना, मैं अभागण रही सोइरी॥ फारूँगी चीर करूँगल कंथा, रहूँगी वैरागण होइरी। चुरियाँ फोरूँ माँग बखेरूँ कजरी मैं डालँ धोइरी ।।
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११८
मीराँबाई
निसबासर मोहि बिरह सतावै, कल न परत पल मोइ री। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी, मिलि बिछरो मति कोइ री ॥
[मीरों० पदा० पद० सं० ४८] परन्तु इस सरलता से उसकी व्यथा कम नहीं होती, बढ़ ही जाती है । उसका विरह-दुःख कितना अधिक है, उसमें कितनी व्यथा है, कितनी ज्वाला है, उसका वर्णन मीराँ ने बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया है । सरल हृदय से निकली हुई मीराँ की स्पष्ट और सहज व्यथा में कितनी पवित्रता है, कितना गाम्भीर्य है। नारी-प्रकृति का इतना स्वच्छंद, फिर भी इतना पवित्र और मर्यादापूर्ण उल्लास किसी भी साहित्य की अमूल्य निधि है और हिन्दी साहित्य को मीराँ के इन पदों पर समुचित गर्व होना चाहिए।
गुसाई तुलसीदास ने भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित करने के लिए एक अद्भुत तर्क उपस्थित किया है। मानस के उत्तरकांड में गरुड़ के इस प्रश्न पर कि 'ग्यानहिं भगतिहिं अंतर केता' काकभुशुंडि ने उत्तर दिया :
भगतिहिं ग्यानहिं नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भवसंभव खेदा। नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर । सावधान सोउ सुनु विहंग वर ।। ग्यान बिराग जोग विग्याना । ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना । पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती । अबला अबल सहज जड़ जाती ।।
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो विरक्त मति धीर । न तु कामी जो विषय बस, बिमुख जो पद रघुबीर । सोउ मुनि ग्याननिधान, मृगनयनी बिधुमुख निरखि । बिकल होहिं हरिजान, नारि विष्नु माया प्रगट । इहाँ न पच्छपात कछु राखौं । वेद पुरान संत मत भाखौं। मोह न नारि नारि के रूपा । पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥ माया भगति सुनहु प्रभु दोऊ । नारि वर्ग जानहिं सब कोऊ ! पुनि रबुबीरहिं भगति पियारी । माया खलु नर्तकी बिचारी ।।
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११६
अालोचना खंड ज्ञान पुरुष है इस कारण वह माया नारी के प्रति आकृष्ट होता है, भक्ति नारी है इसलिए वह माया नारी के प्रति आकृष्ट नहीं होती । इसी कारण भक्ति ज्ञान से सरल और श्रेष्ठ है । गुसाई जी का तर्क चाहे कोई माने या न माने, परन्तु इतना तो मानना ही पड़ेगा कि ज्ञान पुरुष है और भक्ति नारी । पुरुष को अपनी बुद्धि का बल होता है, स्त्री को हृदय का; पुरुष किसी दूसरे पर निर्भर नहीं रहता, परंतु नारी को एक अवलम्ब अवश्य चाहिए । इसीलिए जहाँ ज्ञान रूपी पुरुष अपनी बुद्धि के अभिमान में कह उठता है :
अहं निर्विकल्पं निराकारूपं विभुर्व्याप्त सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणि ।
सदा में समत्वं न मुक्तिनबंधः चिदानंदरूपं शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ वहाँ भगवान पर अवलम्बिता भक्ति नारी गा उठती है :
म्हारो जनम मरन को साथी, थाने नहीं बिसरूँ दिन राती ।
तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है जानत मेरी छाती। इस भक्ति नारी का जितना सफल चित्रण मीराँ ने किया है उतना और कोई भक्त कवि नहीं कर सका। गुसाई तुलसीदास ने भक्ति को नारी तो अवश्य माना परन्तु नारी-भाव की भक्ति-भावना वे न कर सके । उनकी भक्ति भावना दास्य भाव की थी। 'मानस' में ने स्पष्ट लिखते हैं :
__ 'सेवक सेव्य भाव बिनु भंव न तरिय उरगारि ।' सेवक भी अपने स्वामी पर अवलम्बित रहता है, परन्तु वह अवलम्बन ठीक उसी प्रकार का नहीं है जैसा नारी का । सेवक को अपनी सेवा का बल है और बल है अपने स्वामो की दया और करुणा. का; नारी को अपने हृदय का बल है और बल है अपनी व्यथा सहने की क्षमता और त्याग का। पहले में दीनता का भाव भरा है, दूसरे में क्षमता है, त्याग और है महानता। नारद भक्ति सूत्र में लिखा है कि भगवान् का अभिमान से द्वेष भाव है
और दैन्य से प्रिय भाव ।' सम्भवतः इसीलिए भक्तों ने अपने विनय के पदों में अति दैन्य भाव प्रकट किया है। अस्तु, जब गुसाई तुलसीदास अपने भगवान से कहते हैं :
१. ईश्वरस्याप्यभिमान दोषित्वाद् दैन्यप्रियत्वाच्च । नारद भक्ति सूत्र ॥२७॥
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मीराँबाई
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माधव जू मो सम मंद न कोऊ ।
जद्यपि मीन पतंग हीनमति मोहिं नहिं पूजहिं ओक ।
X
X
मेरे व सारद अनेक जुग गनत पार नहिं पावै । तुलसीदास पतितपावन प्रभु यह भरोस जिय श्रावै ::
f
तब अपनी दीनता, पाप और असहाय श्रवस्था की दुहाई देकर गरीबनिवाज और भक्तवत्सल भगवान् से दया और करुणा की भिक्षा माँगना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है । सुरदास ने अपने विनय के पदों में अपने को अत्यंत तुच्छ, हीन और घृणित प्राणी के रूप में चित्रित किया है :
मोसम कौन कुटिल खल कामी ।
तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सबके अंतरजामी ॥ जो तन दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमकहरामी । भरि भरि द्रोह विषैौं धावत, जैसे सूकर ग्रामी ॥
X
X पापी परम अधम अपराधी, सब पतितन में नामी । सूरदास प्रभु अधम उधारन, सुनिए श्रीपति स्वामी ॥ परन्तु यह दीन भाव भगवान के कृपापात्र एक भक्त को शोभा नहीं देता । भगवान को अभिमान से द्वेष है, श्रात्माभिमान से नहीं । मीराँ ने अभिमान का त्याग अवश्य कर दिया था, क्योंकि अभिमान और अहंकार के रहते श्रात्मसमर्पण सम्भव ही नहीं है; परन्तु श्रात्माभिमान का त्याग नहीं किया । इसीलिए उन्होंने अपने को अत्यंत हीन और तुच्छ नहीं समझा। उनकी भक्ति भावना में दीनता और असमर्थता का लेश भी नहीं है । वह भगवान सर्वशक्तिमान है, श्रेष्ठ है, सब चराचर का स्वामी है इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु भक्त का भी एक स्वतंत्र अस्तित्व है, उसकी भी एक मर्यादा है । भक्त भगवान् पर अवलम्बित श्रवश्य है, परन्तु वह अवलम्बन उसी प्रकार का है जैसे लता तरु पर अवलम्बित है । मीरों की भक्ति भावना इसी
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अालोचना खंड
१२१ प्रकार की थी। आत्माभिमानिनी मीराँ अपने हरि की उपेक्षा नहीं सह सकतीं। वे कह उठती है:
माई म्हारी हरि न बूझी बात। पिंड मा प्राण पापी निकस क्यूँ नहिं जात ॥ और अपने अविचल प्रेम तथा भक्ति के विपरीत उन्हें जब भगवान के दर्शन नहीं मिलते तब उपालम्भ-स्वरूप वे कह उठती हैं :
जाश्री हरि निरमोहड़ा रे जाणी थारी प्रीत ।
लगन लगी तब और बात ही अब कछु अवली रीत ।। मीराँ ने भत्ति की, प्रेम किया, प्रेम में आत्मसमर्पण भी कर दिया, परन्तु अपने को तुच्छ और हीन नहीं बनाया। __ 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' में लिखा है कि जब सूरदास पहले पहल महाप्रभु वल्लभाचार्य की सेवा में उपस्थित हुए और महाप्रभु की आज्ञा से 'हौं हरि सब पतितन को नायक' तथा 'प्रभु मैं सब पतितन को टीको दो पद सम्पूर्ण करके सुनाए तब महाप्रभु ने कहा था 'जो सूर है के ऐसो घिधियात काहे को है।' यह बात सूरदास के हृदय में ऐसी चुभ गई कि उसी दिन से उन्होंने 'घिधियाना' छोड़ दिया। भक्त का काम घिधियाना नहीं है, भक्ति करना है, और मीरा ने भक्ति की थी। इसलिए उन्होंने अपने को दीन, हीन
और छोटा प्रमाणित करने का प्रयत्न नहीं किया, अपनी व्यथा और सहनशीलता के बल पर अपने हृदय-धन को प्राप्त करने की उनकी चेष्टा थी उनकी भक्ति भावना में एक उल्लास था, वह उल्लास जो सीधे हृदय से निकला था, जिस पर बुद्धि का कोई नियंत्रण नहीं, लोक-लज्जा का कोई भय नहीं; वह उल्लास जो स्वच्छंद होकर भी पवित्र था। वह भक्ति का उल्लास ही था, जिसमें मीराँ गा उठती हैं :---
पग घुघुरू बांध मीराँ नाची रे । मैं तो अपने नारायण की, आपहि हो गइ दासी है। लोग कहें मीराँ भई बावरी, न्यात कहें कुल नासी रे ॥ .
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૨૨૨
मीराँबाई
विष का प्याला राणा जी भेज्यो पीवत मीराँ हासी रे।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, सहज मिले अबिनासी रे ॥ वह ऐसा उल्लास था जो पावस-पयस्विनी की भाँति सब कुछ बहा ले जाने में समर्थ था, जिसमें बदनामी भी मीठी लगती थी । कवीन्द्र रवीन्द्र ने जिस भक्ति की उपेक्षा करते हुए लिखा है :--
ये भक्ति तोमारे लये धैर्य नाहिं माने, मुहूर्ते विह्वल हय नृत्य-गीत गाने, भावोन्माद मत्तताय, सेइ ज्ञानहारा उद्भ्रांत उच्छलफेन भक्ति-मद-धारा
नाहि चाहि नाथ। संत कबीर-भूमिका पृ० १९५ से उद्धन ] मीरा ने उसी 'ज्ञानहारा' भक्ति को स्वीकार किया था। जो भक्ति ज्ञान और कर्म से समन्वित है, वह विशुद्ध भक्ति नहीं है। वह ज्ञानी पुरुष के लिए उपयुक्त हो सकती है, परंतु भक्ति-प्राण नारी के लिये नहीं । मीराँ नारी थीं, भक्ति की प्रतीक थीं, इसी कारण उन्होंने इस 'ज्ञानहारा उद्भ्रांत उच्छलफेन भक्ति-पद-धारा' को अपनाया। मीराँ की भक्ति-भावना की यही महत्ता है।
१ राणा जी मुझे यह बदनामो लगे मीठी ॥ टेक ।। कोई निन्दो कोई बिन्द चो. मैं लूंगी चाल अपूठी ॥
[ मीराँ० की पदा० पद सं० ३६ पृ० १९]
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तीसरा अध्याय
मीराँ का काव्य - विषय - भक्ति
भक्ति युग के सभी भक्त कवियों का एक ही काव्य विषय था भक्ति, परंतु एक ही विषय होते हुए भी उसमें संकीर्णता और सीमितता का लेश भी नहीं है । रीतिकालीन कवियों का भी एक ही काव्य-विषय था शृंगार, परंतु वह कितना सीमित और संकीर्ण है । बात यह थी कि भक्त कवियों की काव्यपरम्परा सजीव थी, इसी कारण एक ही विषय भक्ति को अपनी रुचि वैचित्र्य, चिन्तन और भावना के कारण उन्होंने विविध प्रकार से अनुभव कर अगणित काव्य रूपों और शैलियों में प्रकाशित किया – किसी ने सबदी, साखी और रमैनी लिखी, किसी ने महाकाव्य और खंडकाव्य की रचना की, किसी ने पदों में रस की धारा उमड़ाई और किसी ने जनता में प्रचलित होली, धमार
र चाँचर की धूम मचा दी । रीतिकालीन कवियों की काव्य- परम्परा सजीव न थी, केवल प्राचीन संस्कृत साहित्य परम्परा का अंधानुकरण मात्र था, इसीलिए उसमें काव्य-रूप और शैली की विविधता नहीं मिलती, विषय की व्यापकला नहीं मिलती, मिलती है केवल एकरसता और एक ही कला का निर्जीव प्रदर्शन |
भक्ति काव्य की व्यापकता दिखाने के पहले भक्ति की स्पष्ट व्याख्या कर - लेना अत्यंत आवश्यक है। किसी भी पदार्थ से गाढ़ा प्रेम रखना भक्ति कहलाता है । भक्ति रसामृत - सिन्धु के अनुसार "हमारे इष्ट पदार्थों की श्रोर जो हमारा श्रांतरिक प्रेम रहता है, उसी उत्साहित प्रेम को भक्ति कहते हैं । " पत्नी का अपने पति के प्रति जो प्रगाढ़ प्रांतरिक प्रेम है वही उसकी पति-भक्ति है । परंतु किसी भी इष्ट पदार्थ के प्रेम को भक्ति नहीं कहते, केवल ईश्वर के प्रति
१ भक्ति योग [ मूल लेखक अश्विनीकुमार दत्त । हिन्दी अनुवादित पृ० १ ]
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१२४
मीराँबाई प्रगाढ़ प्रेम को ही भक्ति कहते हैं । इसीलिए शांडिल्य सूत्र में लिखा है "ईश्वर के प्रति अपूर्व अनुराग को भक्ति कहते हैं ।'' ईश्वर के अतिरिक्त अन्य इष्ट पदार्थों से जो प्रगाढ़ प्रेम होता है वह सामान्य भक्ति नहीं विशेष भक्ति है, जैसे देश-भक्ति और स्वामी-भक्ति इत्यादि; भक्ति तो केवल एक परमात्मा के ही प्रति होती है।
भक्ति के आश्रय, पालम्बन और भावना ये तीन प्रधान अंग हैं । भक्ति आश्रय है, भगवान बालम्बन और इन दोनों के बीच जो एक भावना का सम्बंध है वही भक्ति है। यह भावना का सम्बंध कई प्रकार का हो सकता है । सामाजिक जीवन में मानव-मानव के बीच जितने भी दृढ़ भावना-सम्बंध हो सकते हैं वे सभी सम्बंध भक्त और भगवान के बीच सम्भव हैं । अस्तु, अाश्रय तथा पालम्बन के प्रकृति-भेद से भक्ति भी कई प्रकार की हो सकती है। भगवान के प्रकृति-भेद से उसकी उपासना-पद्धति में भेद श्रा जाता है । ब्रह्म त्रिगुणात्मक है; सत्त्व गुण से भगवान के दया, दाक्षिण्य श्रादि की उत्पत्ति होती है और ऐसे सत्वगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना उसी के अनुरूप दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर आदि भावनाओं द्वारा होती है । रजोगुण से भगवान की शक्ति उत्पन्न होती है और ऐसे रजोगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना युद्ध द्वारा ही हो सकती है। असुरों और अत्याचारियों का नाश ही रजोगुण प्रधान ब्रह्म की भक्ति और उपासना हे । तमोगुण से भगवान शरीर धारण कर इच्छानुसार चतुभुज आदि रूप रखते हैं ऐसे तमोगुण-प्रधान ब्रह्म की उपासना पुष्प,माला,चंदन आदि उपहारों से की जाती है। सर्वसाधारण ऐसी ही भक्ति और उपासना किया करते हैं। इसी प्रकार श्राश्रय के प्रकृति-भेद से भी भक्ति-भावना में भिन्नता पाती है। सत्वगुण-प्रधान भक्त नवधा भक्ति करता है जैसा कि रामचरित मानस में भगवान राम ने शबरी को उपदेश किया था। नारद, हनुमान, ध्रव और प्रह्लाद आदि पौराणिक भक्त तथा सूर, तुलसी, मीराँ चैतन्य आदि भक्तगण इसी प्रकार की भक्ति
१ सा ( भक्ति ) परानुरक्तिरीश्वरे । २ देखिए आनंद मठ ( बंकिमचंद्र चटजी का उपन्यास)
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श्रालोचना खंड
१२५
करते थे । रजोगुण प्रधान भक्त भगवान से स्पर्द्धा की भावना रखता है और तामसी प्रकृति का भक्त भगवान से वैर-भावना का ही सम्बन्ध स्थापित करता है | रामचरित मानस का रावण इसी कोटि का भक्त था । वैर भी हृदय का एक सम्बन्ध है और स्नेह, प्रेम की ही भाँति श्रत्यन्त तीव्र भी है । इस प्रकार भक्ति विविध प्रकार की हो सकती है, परन्तु जिस भक्ति को साहित्य और काव्य में भक्ति की संज्ञा प्रदान की गई है वह केवल सत्वगुण प्रधान भक्त द्वारा सत्वगुण प्रधान भगवान की भक्ति है ।
थी कि उस 'अकल, नहीं सकता और जब
नहीं होता, तब तक
भक्ति काव्य की व्यापकता का मुख्य कारण यह था कि भक्त कवियों ने केवल अपनी भक्ति भावना का ही निरूपण और श्रभिव्यंजन नहीं किया, वरन् उन्होंने भगवान् के स्वरूप का, उनके विशिष्ट गुणों का भी निरूपण किया, उनकी दयालुता और भक्तवत्सलता के भी गीत गाए, भक्तों की महत्ता, कष्ट - सहिष्णुता और अटल निष्ठा की प्रशंसा भी की। इतना ही नहीं निर्गुणवादी संत कवियों ने सतगुरु को भी भक्ति का एक अंग माना और उनकी प्रशंसा भी जी खोल कर की। बात यह श्रीह, श्रभेद' भगवान का ज्ञान बिना गुरु के हो ही तक भगवान का ज्ञान नहीं होता, उसका साक्षात्कार सच्ची भक्ति भावना का उदय सम्भव ही नहीं है । इसीलिये तो कबीर ने गुरु का महत्व गोविन्द के समान अथवा कुछ अधिक और भक्तमाल के रचयिता नाभादास ने भक्त, भक्ति, ही शरीर के चार नाम माने है । इस प्रकार भक्त कवियों ने भगवान का वर्णन किया— उनकी नरलीला, उनकी सर्वव्यापकता, उनकी भक्तवत्सलता के गीत गाए; भक्तों का गुणगान किया; गुरु की वंदना की और अपनी भक्ति भावना की सरस धारा-सी उमड़ा दी। साथ ही कुछ भक्त कवियों ने इस भवसागर के अपने कुछ अनुभव भी बताए और लौकिक जीवों की कल्याण-कामना से प्रेरित हो उन्हें संसार की अनित्यता और उससे पार १- गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाँय, बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय । २-- भक्त, भक्ति, भगवन्त, गुरु, चतुर्नाम वपु एक ।
ही
स्थिर किया है'; भगवंत और गुरु को एक
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मीराँबाई
जाने के लिए चेतावनी और उपदेश भी दिए । इस प्रकार एक भावना, एक उल्लास मात्र को भक्त कवियों ने कितना व्यापक और सजीव बना दिया। मीराँ ने भी अपनी रुचि और भावना के अनुरूप भगवान का चित्रण किया, भक्ति की धारा उमड़ाई, भवसागर के अपने अनुभव - सुनाए और उपदेश तथा चेतावनी के अंग वर्णित किए।
मीरा के भगवान-मीराँ के भगवान उनके प्रियतम गिरधर नागर हैं जो कितने ही भिन्न-भिन्न रूपों में हमारे सामने आते हैं। उनका पहला स्वरूप निर्गुण ब्रह्म का है जो कबीर, नानक अादि संत कवियों के निर्गण निराकार ब्रह्म के बहुत निकट जान पड़ता है । वह दूर ऊँचे महल का रहने वाला है ।' वह गगन मंडल में सेज विछाकर सोने वाला प्रियतम है । उसके पास पहुँचने का रास्ता ऊँचा-नीचा और रपटीला है जिस पर पाँव भी नहीं टहरते,,जहाँ कोस-कोस पर पहरा बैठा हुआ है और पग-पग पर चोर-लुटेरों का भय है । परन्तु वह दूर ही नहीं है अत्यन्त पास भी है, स्वयं मीरों के हृदय में निवास करने वाला है, जहाँ से वह कहीं अाता जाता नहीं है; वह जीव-नारियों के साथ झुरमुट खेलने वाला प्रियतम है । मीराँ अपने
१ मीरा मन मानी सुरत सैल असमानी । २ गगन मण्डल में सेज पिया की केहि बिधि मिलणा होइ । ३ गली तो चारों बन्द हुई मैं हरि से मिल कैसे जाइ । ऊँची नीची राह रपटीली पाँव नहीं ठहराइ ॥ सोच-सोच पग धरू जतन से बार-बार डिग जाइ । ऊँचा नीचा महल पिया का,हमसे चढ़या न जाय । पिया दूर पन्थ म्हारो झीणों सुरत झकोला खाइ । कोस-कोस पर पहरा बैठ्या, पैंड पैंड बटमार । हे विधना कैसी रच दीनी दूर बस्यो म्हारी गाम । [मीरों की पदा० पद सं० १९३] ४ सखीरी मैं तो गिरधर के रङ्ग राती। पचरण मेरा चोला रग दे मैं झुरमुट खेलन जाती। झुरमुट में मेरा साई मिलेगा खोल अडम्बर गाती ।
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Anh
अालोचना खंड
१२७ 'साहिब' को नैनों में बसाना चाहती है जहाँ 'त्रिकुटी' झरोके से वे झाँकी लगाएँगी और 'सुन्न' महल में सुख की सेज बिछाएँगी । वे एक अद्भुत रहस्यमय भगवान है जिनका कोई रंग-रूप नहीं।
मीरों के गिरधर नागर का एक दूसरा स्वरूप योगी का है। उस योगी की खोज में मीरा ने भी योग ले लिया है। उसे न दिन में भूख लगती है न रात में नींद आती है; वह घर-घर अलख जगाती फिरती हैं । उस जोगी से प्रीति करने में दुःख-ही-दुःख है। फिर भी उससे प्रीति करनी ही पड़ती है क्योंकि वह अत्यन्त सुंदर है और बहुत ही मीठे शब्द बोलता है। वह
जिनके पिय परदेस बसत है लिखि-लिखि भेजै पाती। मेरे पिय मो माहिं बसत हैं, कहूँ न आती जाती॥ [ मीराबाई की शब्दावली पृ० १० ] अथवा
रमैया मैं तो थारे रंग राती॥ ओरा के पिया परदेस वसत हैं लिखि लिखि भेजें पाती। मेरा पिया मेरे हिरदै बसत हैं गूंज करूं दिन राती ॥ चूवा चोला पहिर सखीरी, मैं झुरमुट रमवा जाती। झुरमुट में मोहि मोहन मिलियाँ, खोल मिलू गल बाटी।
[ मीराँबाई की शब्दावली पृ० २०] १. नैनन बनज बसाऊँरी जो मैं साहिब पाऊँ। इन नैनन मेरा साहिब बसता डरतो पलक न लाऊँ रो। त्रिकुटी महल में बना है झरोखा नहाँ से झाँकी लगाऊँ री । सुन्न महल में सुरत जमाऊँ, सुख की सेज बिछाऊँ री। मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार बार बलि जाऊँ री। . २ जोगिया से प्रीत किया दुख हो । प्रीत कियाँ सुख ना मोरी सजनी जोगी मित न कोइ । रात दिवस कल नाहिं परत है तुम मिलियाँ बिनि मोइ । ऐसी सूरत या जग माहीं, फेरि न देखी सोइ । मीरा के प्रभु कब रे मिलोगे, मिलियाँ आँणद होइ ।। [ मीरा पदा० पद सं० ५७ ] ३. जाबा दे जाबा दे जोगी किसका मीत।
सदा उदास रहे मोरी सजनी निपट अटपटी रीत ।।
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मीराबाई योगी श्रासन मार कर अडिग होकर बैठा है जो न पाते दिखाई पड़ता है न जाते, वह किसी का भी मित्र नहीं । वह विचित्र योगी अधबीच ही में छोड़ कर चला गया, उसकी प्रीति दुःख का मूल है । मीराँ के भाग्य में ऐसा ही दुःख भोगना लिखा था, तभी तो उसकी प्रीति ऐसे योगी से जुड़ गई है। स्वयं मीराँ कहती हैं :
तेरो मरम नाहिं पायो रे जोगी। आसण मांडि गुफा में बैठो ध्यान हरी को लगायो । गल बिच सेली हाथ हाजरियो, अंग भभूति रमायो। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी भाग लिख्योसो ही पायो।
[ मीराबाई की पदावली पद सं० १८९] एक योगी का रूप गीता के योगेश्वर कृष्ण के लिए अद्भुत नहीं कहा जा सकता, फिर भी मीरों के इस सेल्ही, हाजरियों से युक्त योगी को गीता के कृष्णा से भिन्न ही मानना पड़ेगा। हीनयान सम्प्रदाय वाले बौद्ध भगवान बुद्ध को 'योगी' कहते थे । महायान सम्प्रदाय में योगी बुद्ध के स्थान पर बोधिसत्व की प्रतिष्ठा की गई परंतु वज्रियान सम्प्रदाय के बौद्धों तथा सिद्धों ने और उन्हीं के प्रभाव से नाथों ने अपने भगवान को योगी के रूप में स्वीकार किया। हठयोग, तंत्र तथा शैवागम के धार्मिक साहित्य में योगी शिव जी का पर्यायवाची शब्द है । नाथ सम्प्रदाय के प्रमुख श्राचार्य गोरखनाथ शैव माने जाते हैं और उनकी हठयोग-परम्परा के संस्थापक श्रादिनाथ स्वय
बोलत बचन मधुर से मान, जोरत नाहीं प्रीत । मैं जाएँ या पार निभेगी, छांड़ि चले अधबीच । मीरों के प्रभु स्याम मनोहर प्रेम पियारा मोत ॥ [ मी० पदा० पद सं०६१] कोई दिन याद करोगे रमता राम अतीत ॥ 'पासण मार अडिग होय वैठा, याही भजन की रीत।। मैं तो जाए जोगी सङ्ग चलेगा, छांड़ गया अथवीच । आत न दीसे जात नदीसे, जोगी किसका मीत । मीरा कहे प्रभु गिरधर नागर, चरणन आवे चीत ॥ [वही पद संख्या ५९]
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Achar
पालोचना खंड
१२६
शिव जी ही थे । मीरों के गिरधर नागर का जो योगी स्वरूप है उस पर स्पष्टतः नाथ सम्प्रदाय के योगियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। राजस्थान में नाथ सम्प्रदाय के योगियों का पर्याप्त प्रभाव था। डा. बड़थ्वाल का अनुमान है कि प्रसिद्ध योगी चरपट नाथ राजपूताने के निवासी थे। उनके पश्चात् सिद्ध धूंधलीमल और गरीबनाथ राजस्थान के प्रसिद्ध योगी हुए हैं जिनका उल्लेख नैणसी की ख्यात में मिलता है | सिद्ध धुंधलीमल का आश्रम धारणोद में था और उनके शिष्य गरीबनाथ ने अपना आश्रम लाखड़ी में स्थापित किया था । ऐसा जान पड़ता है कि मेवाड़ में आने से पहले मीराँ इन योगियों से प्रभावित हो चुकी थीं । ये योगी अपने भगवान को योगी के रूप में देखते थे । गीता के योगेश्वर कृष्ण से इन नाथ सिद्धों के योगी भगवान को मिलाकर मीराँ ने अपने गिरधर नागर को योगा रूप में चित्रित किया। ___मोरों के गिरधर नागर का तीसरा स्वरूप सगुण ब्रह्म का है। ब्रज को रक्षा के लिए गोवर्द्धन पर्वत धारण करने वाले भागवत के भगवान कृष्ण मोरों के गिरधर नागर हैं । इन गिरधर नागर की सभी विशेषताओं का एक ही जगह वर्णन मीराँ ने इस प्रकार किया है :
मेरो मन बसि गो गिरधर लाल सो ॥ टेक ॥ मोर मुकुट पीताम्बरो गल बैजन्ती माल । गउवन के सँग डोलत हो जसुमति को लाल ॥ कालिन्दी के तीर हा कान्हा गउवाँ चराय । सीतल कदम की छहियाँ हो मुरली बजाय ।। जसुमति के दुवरवाँ हो ग्वालिन सब जाय । बरजहु आपन दुलरवा हो हमसों अरमाय ॥ वृन्दाबन क्रीड़ा करै गोपिन के साथ ।
सुर नर मुनि सब यो हो ठाकुर जदुनाथ ।। १. योग प्रवाह-डा० पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल पृ० ७१ २. , , , पृ० ७३ मी०६
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१३०
मीराँबाई इन्द्र कोप घन बरखो मूसल जलधार । बूड़त ब्रज को राखेऊ, मोरे प्रान अधार ॥ मीराँ के प्रभु गिरधर हो, सुनिये चित लाय । तुम्हरे दरस की भूखी हो, मोहि कछु न सोहाय ।।
[मीरों की शब्दावली पृ०६] इन गिरधर नागर की सब से बड़ी विशेषता यह है कि वे अत्यंत सुन्दर और मनमोहन हैं। मीराँ उनके इस अपूर्व और अपरूप रूप पर मुग्ध हैं : निपट बँकट छबि अटके । मेरे नैना निपट बँकट छबि अटके ।।
देखत रूप मदन मोहन के पियत पियूख न मटके । बारिज भवां अलक टेढ़ी मनो, अति सुगन्ध रस अटके । टेढ़ी कटि टेढ़ी करि मुरली, टेढ़ी पाग लर लटके ।
मीराँ प्रभु के रूप लुभानी, गिरधर नागर नटके । जबसे मीरा ने उन गिरधर नागर की छबि देख ली है उसके नेत्र जैसे उन्हीं के हो गए हैं :
जबसे मोहिं नन्दनँदन दृष्टि पड़यो माई । तब से परलोक लोक, कछु ना सुहाई। मोरन की चन्द्रकला, सीस मुकुट सोहै। केसर को तिलक भाल, तीन लोक मोहैं | कुंडल को अलक झलक कपोलन पर छाई । मनो मीन सरवर तजि, मकर मिलन आई ।। कुटिल भकुटि तिलक भाल, चितवन में टौना।
खंजन अरु मधुप मीन, भूले मृग छौना ।। अथवा नैणा लोभी रे बहुरि सके नहिं श्राइ।
रूँम रूम नख सिख सब निरखत, ललकि रहे ललचाइ ।। 1 xx xx xx लोक कुटुम्बा बरजि बरजहीं, बतियाँ कहत बनाइ । चंचल निपट अटक नहि मानत, परहय गर बिकाइ ।।
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आलोचना खंड
5
"
भली कहीं कोई बुरी कही मैं सब लई सीसि चढाइ ।
मीराँ कहैं प्रभु गिरधर के बिन, पल भर रह्यो न जाइ ॥ गिरधर नागर की दूसरी विशेषता है उनकी लीलाप्रियता । वे नागर हैं और सभी गोपियों से लीला किया करते हैं । सूरदास भी भगवान की लीला पर मुग्ध है; परन्तु जहाँ वे भगवान की बाल लीला, गोचारण लीला, माखनचोरी लीला तथा प्रेम प्रणय लीला सभी पर मुग्ध हैं और सबका वर्णन करते हैं, वहाँ मीराँ भगवान की प्रेम लीला .पर ही मुग्ध हैं। __ यद्यपि सभी भक्तों के भगवान बहुत कुछ समान रूप से पतितपावन
और करुणानिधान हैं, फिर भी अपनी भावना और रुचि के अनुरूप भिन्नभिन्न भक्तों ने अपने भगवान में कुछ विशेष गुणों का आरोप किया है । किसी ने उनकी दीनबंधुता और भक्तवत्सलता देखी तो किसी ने उनकी लीलाप्रियता; किसी ने उनके शील और शक्ति की प्रशंसा की तो किसी ने उनके सौन्दर्य की । उदाहरण के लिए गोस्वामी तुलसीदास अपने भगवान राम के शील गुण पर मुग्ध होकर गा उठते हैं :
सुनि सीतापति सील सुभाऊ । मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ । x x x x
x x समुझि समुझि गुनग्राम राम के उर अनुराग बढ़ाउ ।
तुल सिदास अनयास राम पद, पाइहै प्रेम-पसाउ ॥ और सुदामा-चरित्र के रचयिता नरोत्तमदास अपने भगवान कृष्ण की करुणा का संदर चित्र खींचते हैं :
कैसे बिहाल विवाइन सो भये, कंटक जाल गए पग जोए । हाय महादुख पाए सखा, तुम अाए इतै न कितै दिन खोए । देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिकै करुनानिधि रोए ।
पानी परात को हाथ छुए नहिं, नैनन के जल सो पग धोए । तथा अंधे कवि सूरदास को भगवान कृष्ण की लीलाएँ ही अति प्रिय हैं। इन सबसे भिन्न माराँबाई अपने गिरधर नागर के रूप और सौन्दर्य पर ही
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मीराँबाई न्यौछावर हो गई हैं भगवान के शील और शक्ति, दया और करुणा की श्रीर मीरों की दृष्टि ही नहीं जाती; उनकी आँखों में तो श्यामसुंदर का रूप ही समाया हुआ है।
हमारो प्रणाम बाँके बिहारी को ॥ मोर मुकुट माथे तिलक विराजै, कुंडल अलकाकारी को। अधर मधुर पर बंसी विराजै, रीझ रिझानै राधा प्यारी को। यह छवि देख मगन भई मीराँ, मोहन गिरधर धारी को ॥
[ मीराबाई की पदा० प ० सं० २] और वे निस्संकोच भाव से अपनी सखियों ( समान भक्ति-भावना बालों) से कह उठती हैं :
ऐसे पिया जान न दोजे हो ।टेका चलो री सखो मिलि राखि के नैना रस पीजे हो । स्याम सलोनो साँवरो, मुख देखे जीजे हो । जोह जोइ भेष सो हरि मिले,सोइ सोइ भल कीजे हो । मीरों के गिरधर प्रभू , बड़ भागन रीझे हो ।
[ मीराबाई को शब्दावली ५० ६] यह भगवान के मोहन रूप पर रोमना नारी मीरों को ही शोभा देता है। माधुर्य भाव की भक्ति करने वाली मोरों के लिए अपने प्रियतम भगवान की सभी विशेषताओं को छोड़ उनका मधुर सौन्दर्य ही सबसे अधिक आकर्षक है।
अपने अपने भगवान् के सौन्दर्य चित्रित करने में विद्यापति, सूर और तुलसी ने भो कुछ उठा नहीं रखा, परन्तु मोराँ के रूप-सौन्दर्य के चित्रण में जो तन्मयता और सजीवता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। सूर और तुलसी ने एक तटस्थ कलाकार को दृष्टि से भगवान कृष्ण और भगवान राम का रूप-. चित्रण किया । साहित्य की नख-शिख-वर्णन-परम्परा का पालन करते हुए तुलसीदास ने गीतावली में राम का सौन्दर्य चित्रित किया है:
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अालोचना खंड
जानकीबर सुन्दर माई। इंद्रनील-मनि-स्याम सुभग अंग अंग मनोजनि बहु छबि बाई । अरन-चरन अँगुली मनोहर नख दुतिवंत कछुक । अरुनाई।
कंज दलनि/पर मनहु भौम दस बैठे अचल-सु-सदसि बनाई ।। और इसी परम्परा का पालन करते हुए सूर ने भी भगवान कृष्ण की छबि अंकित की है; परन्तु नारी मीरा ने पुरुष रूप भगवान् कृष्ण के जिस सहजबंकिम सौन्दर्य का चित्रण किया है:
बसो मेरे नैनन में नंदलाल । मोहनी मूरत सॉवली सूरत, नैना बने बिसाल । श्रधर सुधारस मुरली राजत,उर बैजन्ती माल । छुद्र घंटिका करि तट सोभित नूपुर सन्द रसाल ।
मीराँ प्रभु संतन सुखदाई, भगतवछल गोपाल ॥ उसमें जो तन्मयता और सजीवता है वह सूर और तुलसी के अलंकृत और परम्परागत वर्णनों में कहाँ मिल सकता है। __ इस प्रकार मीराँ कभी निर्गुण ब्रह्म की खोज करती है, कभी सगुण ब्रह्म रूप भगवान कृष्ण की 'सॉवली सूरत' पर बलिहारी जाती है; कभी 'निपट उदास रहने वाले योगी के लिए ब्याकुल हो उठती हैं, कभी गणिका,गीध
और अमामिल के तारने वाले की दुहाई देती हैं । सारांश यह कि मीरों की भगवान विषयक धारणा बहुत स्पष्ट न थी,जब जैसा प्रभाव-उन पर पड़ा, तब उसी के अनुरूप अपने भगवान की कल्पना कर लिया करती थीं। परंतु उनकी भक्ति भावना अत्यंत स्पष्ट और स्थिर थी। चाहे भगवान का जो भी स्वरूप हो, चाहे वह निगुण हो वा सगुण,योगी हो वा गिरधर नागर, मीरों की भक्ति-भावना सदैव एक सी है, उनकी विरह-वेदना उसी प्रकार तीव्र है; उनकी आत्मोत्सर्ग की भावना उसी प्रकार निश्चल है । भगवान का विषय बुद्धिगम्य है, चिन्तन-प्रधान है, ज्ञान और तर्क से सम्बद्ध है, इसीलिए मीराँ उस विषय में स्पष्ट नहीं हैं, न हो ही सकती हैं | दार्शनिक चिन्तन के इस दुर्गम और जटिल मार्ग में नारी की गति कहाँ ? परन्तु भक्ति
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मीराबाई
भावना का विषय है, हृदय का धर्म है, अतएव इस क्षेत्र में मीराँ अत्यंत बष्ट और स्थिर है।
मीरा की भक्ति-मीरों की भक्ति भावना के स्पष्ट दो रूप हैं (१) विनय और (२) विरह-निवेदन ।।
विनय के पद संख्या में बहुत ही कम हैं, सम्भवतः सब मिला कर एक दर्जन भी न होंगे जब कि विरह-निवेदन के पद संख्या में बहुत अधिक हैं और पद-रचना में भी अत्यंत उत्कृष्ट कोटि के हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना अनुचित न होगा कि विनय के पद मीरों की सच्ची भक्ति-भावना के द्योतक नहीं हैं, किसी विशेष अवसर पर विशेष प्रभाव द्वारा ही वे लिखे गए थे।
विनय के इन पदों में भगवान की सर्वशक्तिमत्ता तथा उनकी असीम दया और करुणा की प्रशंसा तो अवश्य मिलती है, परंतु भक्त की ओर से उस दैन्य भाव का अभाव है जो सूर और तुलसी के विनय पदों की विशेषता है । यह सच है कि विनय के इन पदों में मीराँ ने दास्य भाव की ही भक्ति प्रदर्शित की है', परंतु अपनी ओर अपने गिरधर नागर की दृष्टि आकर्षित करने के लिए अपने पातक और दैन्य की दुहाई नहीं दी। जब कि सूर और तुलसी अपने को सब पतितन को नायक' और 'पतितन को टोको' प्रमाणित करने में अपनी सारी कला और बद्धि लगा देते हैं, वहाँ मीरा अपने सहज विश्वास से केवल इतना ही कहती हैं :
तुम सुणौ दयाल म्हारी अरजी ॥ भवसागर में बही जात हूँ, काढ़ो तो थारी मरजी। यौ संसार सगो नहिं कोई साँचा सगा रधुबर जी ।।
भज मन चरण कमल अविनामी जेताइ दीसे धरणि गगन बिच तेताइ सब उठि जासी।
xxx xxx अर जो कर अबला कर जोरे, स्याम तुम्हारी दासी।। मीरां के प्रभु गिरधर नागर काटो जम की फांसी।
[ नीरांबाई की शब्दा० १० १-२ ]
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आलोचना खंड
१३५
मात पिता औ कुटम कबीलो, सब मतलब के गरजी।
मीराँ की प्रभु अरजी सुणलो, चरण लगावो थाँरी मरजी ॥ और भगवान के चरण-कमलों की अद्भुत विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाती हुई वे अपने मन से कहती हैं :
मन रे परसि हरि के चरण । सुभग सीतल केवल कोमल, त्रिविधि ज्वाला हरगा। जिण चरण प्रहलाद परसे, इंद्र पदवी धरण । जिण चरण ध्रुव छाटल कीणो, राखि अपणी सरण ।
जिण चरण ब्रह्मांड भेट्यो नख सिख सिरी धरण | इत्यादि कुछ पदों में मीराँ ने यज्ञामिल., गणिका, सदना कसाई इत्यादि भक्तों के तारने की कथा की ओर संकेत करके अपने ऊपर कृपा करने की भी प्रार्थना की है।
मी के विरह-निवेदन में जिस पीड़ा-दरद--का वर्णन है वह अत्यंत गम्भीर और अनिर्वचनीय है। मीराँ के बीसों पदों में यह व्यथा उमड़ी सी पड़ती है जैसे महासागर के अंतर का मथन और पालोड़न उसके उत्ताल तरंगों में उमड़ा पड़ता है । केवल दो उदाहरण पर्याप्त होंगे :
घड़ी एक नहिं श्रावड़े कि तुम दरसन बिन मोय तुम हो मेरे प्राण जी, का। जीवण होय ।। धान न भावे, नींद न आवे, बिरह सतावे मोहि । घायल सी घूमत फिरूँ रे, मेरो दरद न जाणे कोय ।। दिवस तो खाय गमाइयो रे, रैण गमाई सोय ।
प्राण गमायो झूरताँ रे, नैण गमाया रोय । १. सुन लीजे विनती मोरी, मैं सरन गही प्रनु तोरी ।।
तुम तो पतित अनेक उधारे, भव-मागर से तारे । में सबका तो नाम न जानों, कोइ कोइ भक्त बखानों ।
[मीराबाई की शब्दावली पृ० ७०]
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तथा
मीराँबाई जो मैं ऐसा जाणती रे, प्रीत कियाँ दुख दोइ । नगर ढंढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोई ॥ पंथ निहारो डगर बुहारूँ, ऊभी मारग जोइ । मीरों के प्रभु कबरे मिलोगे, तुम मिलियाँ सुख होइ।
[ मीरा० की पदा० पद सं० १.०२ ] हे री मैं तो दरद दिवाणी होइ दरद न जाणे मेरो कोइ । घाइल की गति घाइल जाणे, की जिण लाई होइ। जौहरि की गति जौहरी जाणे, की जिन जौहर होइ। सूली ऊपर सेफ हमारी सोवणा किस चिध होइ । गगन मंडल पै सेम पिया की किस विध मिलणा होइ । दरद की मारी बन बन डोलूँ, वैद मिल्या नहिं कोइ ।
मीरों की प्रभु पीर मिटैगी, जब वैद सवलिया होइ ।। मीरों के ये अति प्रसिद्ध पद अपनी स्पष्टता और विरह की गम्भीरता के लिए अद्वितीय हैं।
हिन्दी के कतिपय समालोचकों ने जायसी के विरह-वर्णन को हिन्दी काव्य में सर्वोत्कृष्ट ठहराया है, परन्तु जायसी का विरह-निवेदन मीराँ के इन गम्भीर पदों के सामने केवल ऊहात्मक और अतिशयोक्तिपूर्ण उक्तियाँ ही जान पड़ती हैं। दादू का विरह-वर्णन अवश्य उत्कष्ट बन पड़ा है, परन्तु जो व्यापकता और गम्भीरता मीराँ के पदों में है उसका लेश भी दादू के दोहों और पदों में नहीं मिलता । सीधे-सादे और स्पष्ट शब्दों में हृदय के अंतरतम की गम्भीर व्यथा का दर्शन करना हो तो देखिए मीराँ कहती हैं :
मैं बिरहिण बैठी जागें,जगत सब सोवै री भाली। बिरहिण बैठी रंग महल में, मोतियन की लड़ पोवै । इक बिरहिण हम ऐसी देखी, अँसुवन की माला पोवै । तारा गिण गिण रैन बिहानी, सुख की घड़ी कब आवै । मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, मिल के बिछुड़ न जावै ।।
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आलोचना खंड विरह-निवेदन के ये पद कुछ तो निर्गुण ब्रह्म के प्रति कहे गये हैं, कुछ योगी ब्रह्म के प्रति और शेष सगुण ब्रह्म गिरधर नागर के लिए हैं। निर्गण ब्रह्म के प्रति कहे गये पदों में अस्पष्टता और रहस्य-भावना अधिक है, परन्तु अन्य दो के प्रति कहे गए पदों में स्पष्टता और गम्भीरता है । जहाँ निर्गुण ब्रह्म के प्रति अपनी अस्पष्ट विरह-वेदना में मीराँ कह उठती हैं :
मीराँ मन मानी सुरत सैल असमानी ॥ जब जब सुरत लगे वा घर की पल पल नैनन पानी। ज्यों हिये पीर तीर सम सालत, कसक कसक कसकानी । रात दिवस मोहिं नींद न आवत, भावै अन्न न पानी । ऐसी पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी। ऐसा वैद मिले कोई भेदी, देस विदेस पिछानी। तासों पीर कहूँ तन केरी, फिर नहिं भरमों खानी। खोजत फिरों भेद वा घर को, कोई न करत बखानी।
[मी० पदा० पद सं० १५९] वहाँ अपने गिरधर नागर के प्रति उनका विरह अत्यंत स्पष्ट और तीब्र है :
तुमरे कारण सब सुख छाड्या, अब मोहिं क्यूँ तरसावौ हो। विरह बिया लागी उर अंतर सो तुम आय बुझावौ हो। अब छोड़त नहिं बणै प्रभु जी हँसि करि तुरत बुलावौ हो। मीराँ दासी जनम जनम की, अङ्ग से अङ्ग लगावौ हो ।।
[ मी० पदा० पद सं० १०४ ] जोगी के प्रति विरह-निवेदन में मीरों ने एक ओर तो उसकी उदास और अटपटी बानी की ओर संकेत किया है और दूसरी ओर भोलेपन को कोसा है जिसके कारण वह जोगी को वाँध न सकी :
जोगिया जी निसि दिन जोऊँ बाट ॥ पाँव न चालै पंथ दुहेलो प्राडा औघट घाट ! नगर श्राइ जोगी रम गया रे, मो मन प्रीत न पाइ ।। मैं भाली भोलापन कीन्हौ, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
[ मी० पदा० पद ० ४९ :
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१३८
मीराँबाई
उसी के भोलेवन के कारण तो प्रियतम श्राकर लौट भी गया और वह सोती ही रह गई । निद्रा से जाग कर मीराँ को अपना सारा शृंगार असह्य-सा हो उठा, वे कह उठती हैं :
मैं जाण्यो नहीं प्रभु को मिलन कैसे होइ' री । श्राए मेरे सजना फिरि गए अँगना मैं अभागण रही सोइ री। फारूँगी चीर करूँ गल कथा, रहूँगी बैरागण होइ री। चुरियाँ फोरू माँग बखेरु, कजरा मैं डालें धोइ री। निसिबासर मोहिं बिरह सतावै, कल न परत पल मोइ री। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी, मिलि बिछरो मत कोइरी॥
मी० पदा० पट सं० ४८ [ इस प्रकार जोगी की प्रीति केवल दुःख का मूल बनती है। वह रमता जोगी कहीं दिखाई भी पड़ जाता है तो उसी प्रकार उदास चला जाता है। उसे रोकने का कोई उपाय नहीं, वह अपने ही धुन में मस्त है । मीराँ उससे अनुनय करती हैं :
होगी मत जा मत जा मत जा, पाँइ परूँ मैं चेरी तेरी हौं । प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारो, हमकुँ गैल बता जा। अगर चॅदण की चिता बगाऊँ, अपणे हाथ जला जा। जल बल भई भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा। मीरों कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा।।
[मो० पदा० पद सं० ५०] मीरों की यह सरलता और इतना अात्मोत्सर्ग सचमुच ही अपूर्व है । भक्त तो
१--यही भाव विश्वकवि रवीन्द्रनाथ के एक गीत में इस प्रकार मिलता है :
Pe came and sat by my side but I woke not. What a cursed sleep it was, O miserable me !
He came when the night was still, he had his harp in his hands and any dream became resonant with its melodies.
___Alas, why are my nights all thus. lost ? Ah, why do I ever miss his sight whose breath touches my sleep. Gitanjali 26.
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आलोचना खंड
१३६
उस युग में एक से एक बढ़ कर हुए हैं, और उन्होंने बड़ी सरस भाषा में अपनी भक्ति भावना और विरह वेदना के गीत गाए हैं, परन्तु मोरों के इन पदों में जितनी हार्दिकता, सरलता और गम्भीरता भरी है उतनी शायद ही कहीं देखने को मिले ।
भक्ति भावना का विश्लेषण करने वाले याचार्यों ने भक्ति के क्रमिक विकास में नव भावनाओं अथवा सीढ़ियों का उल्लेख किया है जो नवधा भक्ति के नाम से प्रसिद्ध है । भागवत में एक ही श्लोक में इसका उल्लेख किया गया है
:
rajj कीर्तनं विष्णो, स्मरणं पादसेवनम् । प्रर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
server में सब से ऊँची साधना आत्मनिवेदन की है जिसमें भक्त भगवान के प्रति श्रात्मसमर्पण कर देता है ! मीराँ भक्ति की इसी चरम सीमा पर पहुँच कर कहती हैं :
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ।
गिरवर म्हांरो साँचो प्रियतम, देखत रूप लुभाऊँ । गा पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गए उठि आऊँ | चैन दिना वाके संग खेलूँ, ज्यू त्यूँ चाहि रिझाऊँ । मो पहिरावै सोई पक्षिरूँ, जो दे सोई खाऊँ मेरी उकी प्रीत पुराणी, उसा विनि पल न रहाऊँ । जहाँ बैठा तितही बैठूं बेचै तो बिक जाऊँ । के प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जाऊँ ।
1
[ मी० की पदा० पद सं० १७
इस पराकाष्ठा पर पहुँचकर भक्त अपनी भक्ति को गम्भीरता और जीवन के आनन्द अथवा विरह-वेदना की अतिशयता के कारण उन्मत्त सा हो उठता है । मीराँ भी इस प्रेम में एकदम पागल हो उठती हैं। मीराँ का उन्माद आनंदातिरेक के कारण नहीं विरह की वेदना के कारण है । अपने गिरधर नागर की प्रेम कटारी से वे घायल हो गई हैं :
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. १४०
मीराँबाई
श्राली साँवरो की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है। लागत बेहाल भई, तन की सुधि बुधि गई ;
तन मन व्यापो प्रेम, मानो मतवारी है। अथवा प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे मने लागी कटारी प्रेमनी रे ॥ और इस प्रेम की कटारी का घाव भी साधारण नहीं है । सूर ने ठीक ही कहा है 'जोइ लागे सोई पै जाने प्रेम बान अनियारो' और मीराँ भी इस घाव के सम्बन्ध में कहती हैं :
। घायल की गति घायल जाणे की जिन लाई होय
__ जौहरी की गति जौहरी जाणे की जिन जौहर होय ॥ इन घाव।की कोई दवा नहीं । इस घाव को अच्छा करने वाला वैद्य भी एक
मीरों की यह पीर मिटै जब वैद सँवलिया होय । परन्तु उस सँवलिया वैद' का मिलना असम्भव ही है । लेकिन मीरों को अपनी पीड़ा पर विश्वास है वे उस पीड़ा को लेकर उसकी प्रतीक्षा में बैट जाती हैं । रो-रोकर गा-गाकर अपने गिरधर नागर को बुलाती हुई मीरों वेदना में पागल हो उठती हैं। सब लोग तो पाते हैं केवल वही सँवलिया न जाने कहाँ छिपा है जो अाता ही नहीं | मीराँ व्याकुल हो कर, खीझ कर कह उठती है:
कोइ कहियो रे हरि श्रावन की, श्रावन की मन भावन की। वे नहिं आवत लिख नहि भेजत, बान पड़ी ललचावन की ।।
ये दोउ नैन कह्यो नहिं मानत, अँसुश्राँ बहैं जैसे सावन की । लीलामय भगवान को ललचाने की आदत पड़ गई है और मीरा की आँखे भी जैसे पागल हो गई हैं, किसी का कहना ही नहीं मानतीं, और आँसुत्रों की धारा बहती ही जाती है। कितनी मार्मिकता से दरद-दिवानी मीराँ ने अपनी व्यथा का वर्णन किया है। यह विरहोन्माद अात्म-निवेदन की चरम सीमा है और केवल मीराँ ही इस सीमा तक पहुँच सकी है।
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श्रालोचना खंड
भगवान और भक्ति के अतिरिक्त मोरों ने भगवद्भक्तों को कथा और लोला सम्बंधा पद भी गाए हैं। नरसी जी का माहरो, यदि मीराँ की ही प्रामाणिक रचना है तो उसमें भक्त नरसी मेहता के भात भरने की कथा लिखो गई है। मीरों के पदों में भगवान कृष्ण को अनन्य भक्त ब्रजगोपियों को भगवान के प्रति प्रपय लोलात्रों का बहुत सुन्दर वर्णन मिलता है। मोराँ की ही भाँति ब्रज-गोपियाँ भी भगवान् के जादू कर देने वाले सुंदर रूप पर अतिशय मुग्ध हैं इसलिये तो दधि बेचने जाकर गोपियाँ दधि का नाम भी भूल जाती हैं और श्यामसुंदर का ही रट लगाती जाती हैं :
या ब्रज में कछु देख्यो री टोना ।। टेक ।। ले मटुकी सिर चली गुजरिया, श्रागे मिले नन्द जी के छोना। दधि को नाम बिसरि ग यो प्यारा, ले लेहु रो कोई स्याम सलोना । बिन्द्रावन की कुंज गलिन में, आँख लगाइ गयो मन मोहना ॥ मीरों के प्रभु गिरधर नागर, सुन्दर स्याम सबर रस लोना ।
[ मी० पदा०पद सं० १७८] उन गोपियों के लिए पूरे ब्रज-मडल में केवल एक ही पुरुष मीराँ का गिरधर नागर था और वे सभी उस के अपूर्व मोहन रूप पर मुग्ध थीं और वह मनमोहन भी इन गोपियों से सभी प्रकार की लीलाएँ किया करता था। ये गोपियाँ कभी तो अपनी सहज नारी-प्रकृति के कारण उस मनमोहन से लजा करती है :
श्रावत मोरी गलियन में गिरधारी, मैं तो छुप गई लाज की मारी। और कभी धृष्ट मनमोहन से प्रार्थना करती हैं :
छाँडा लँगर मोरी बहियाँ गहो ना। मैं तो नार पराये घर की मेरे भरोसे गुपाल रहो ना। जो तुम मेरी बहियाँ गहत हो, नयन जोर मोरे प्राण हरोना । वृन्दाबन की कंज गलिन में, रीत छोड़ अनरीत करो ना ।।
[मी० पदा० पद मं० १७३
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१४२
मीराबाई और कभी अपनी प्रणय-लालसा के कारण अतिशय धृष्ट होकर कह उठती हैं :
वंशीवारे हो कान्हा मोरी रे गगरी उतार गगरी उतार मेरो तिलक सँभार । यमुना के नीरे तीरे बरसीलो मेह । छोटे से कन्हैया जी सो लागी म्हारो नेह । वृन्दावन में गउएँ चरावे तोर लियो गरवा को हार । मीरों के प्रभु गिरधर नागर तोरे गई बलिहार ।।
[राग कल्पद्रम द्वितीय भाग पृ० ५३ ] अथवा होली के उच्छखल और निर्लज्ज वातावरण में स्वाभाविक स्पर्धा से कहती हैं :
मोरी चुनर भीजे मैं रे भिजोऊँगी पाग | नंद महर जी को कुंवर कन्हैया, जान न देऊँगी आज ।।
[ राग कल्पद्र म दि० मा० पृ० ३३० ] इस प्रकार ये गोपियाँ यमुना नदी के किनारे, पनघट पर, गलियों में, बन उपवन में, कूल और कछार पर भगवान से प्रेम लीलाएँ करती रहती हैं। मीरौं भी अपनी कल्पना में उन गोपियों में मिलकर अपने गिरधर नागर से सभी प्रकार की क्रीड़ाएँ करती हैं, और भगवान के मथुरा गमन के पश्चात् गोपियों के विरह-निवेदन में जैसे मीरों का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है।
भगवान के अगणित भक्तों में मधुर भाव की भक्ति करने वाली ब्रज गोपियाँ ही मीरों की श्रादश थीं। लगभग सभी बातों में मीरों का उन गोपियों से साम्य था और बहुत सम्भव है कि ब्रजगोपियों के नाम से वे अपनी ही सुषप्त प्रणय-वासना और प्रेम-लीलाओं का कल्पित चित्र उपस्थित कर रही हो । ईन मधुर पदों में इतनी तन्मयता और हार्दिकता भरी है कि जान पड़ता है मोराँ स्वयं ब्रज गोपी होकर ये सब प्रेम लीलाएँ कर चुकी हैं। एक-एक पद से मीराँ की प्रेम-भक्ति साकार हो उटती है । केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा :
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आलोचना खंड
१४३ नागर नंदा रे बाल मुकुन्दा रे छोड़ी द्योने जग ना धंधा, नागर नंदा, मारी नजरे रहेगो रे नागर नंदा । काम ने काज मने काँई नय सूझे, भूली गई छू मारा घर धंधा रे; अाइँ अवलू में तो काई नव जोयूँ जोया जोया छ पूनम केरा चंदा रे: बाई मीरों के प्रभु गिरधर नागर, लागी छे मोहनी मने फंदा रे ॥
गुरु को अंग-मीरों के पदों में रैदास संत को गुरु मान कर कितने ही पदों में उनकी प्रशंसा मिलती है, परंतु जैसा पहले लिखा जा चुका है, मीराँ रैदास की शिष्या नहीं थीं और सम्भवतः किसी भी संत अथवा प्राचार्य की शिष्या नहीं हुई। फिर भी उनके पदों में कहीं-कहीं सतगुरु की वंदना मिलती है। उन पदों की प्रामाणिकता के सम्बंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परंतु सम्भव है, परम्परा से प्रभावित हो किसी सतगुरु के लिए उन्होंने कुछ पद लिखे हों। परंतु ये पद संख्या में बहुत कम हैं । एक उदाहरण देखिए :
मैंने राम रतन धन पायौ। बसत अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरपा अपणायौ । जनम जनम की पूँजी पाई जग में सबै खोवायौ । खरचै नहिं कोई न चोर न लेबै, दिन दिन बधत सवायौ। सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तरि आयो । मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरखि हरखि जस गायौ ।
[मी० पदा० पद सं० १५७ ] सतगुरु की महिमा संत-परम्परा में बहुत अधिक है और मीरों ने भी उस परम्परा का निर्वाह किया है।
उपदेश और चेतावनी-भक्त, भक्ति भमवंत और गुरु के अतिरिक्त मीराँ ने अपने जीवन के अनुभव बताए हैं तथा सांसारिक जीवों की कल्याण-कामना
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१४४
मीराँबाई
से उन्हें उपदेश और चेतावनी भी दी है। उन्होंने अपने अनुभव से देख लिया था कि संसार में जितनी वस्तुएँ हैं वे सभी नाशवान हैं । तुलसीदास ने मानस में जो लिखा है :
गो गोचर जहँ लगि मन जाई । सो सब माया जानेहु भाई । ठीक यही बात कितने सुंदर ढंग से मीराँ ने कही है :
भज मन चरण कँवल विनासी
जे ताइ दोसे धरण गगन बिच, ते ताइ सब उठ जासी । कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें, कहा लिए करवत कासी । देहीका गरब न करणा, माटी में मिल जासी । यो संसार चहर की बाजी, साँझ पडयाँ उठ जासी ॥ यह सारा संसार साँझ होते हो विलीन हो जाता है, संसार असार है, नश्वर है, यदि कोई अविनाशी वस्तु है तो वह केवल भगवान का चरण कमल और नाम है और मीराँ उसी से स्नेह करने का उपदेश करती है :
राम नाम रस पीजे मनुत्राँ राम नाम रस पीजे ।
तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चरचा सुण लीजे । काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह कूँ, चित से बहाय दीजे । मीरों के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजे ।
संसार की नश्वरता और भगवान के अविनाशत्व के अतिरिक्त मीराँ यह भी चेतावनी देती हैं कि भक्ति और भजन, मानव शरीर और मानव चेतना से ही सम्भव है और यह मानव शरीर बड़े भाग्य से मिलता है और वह भी केवल थोड़े समय के लिए। इसलिए इस सुग्रवसर को हाथ से जाने देना ठीक नहीं है । भवसागर से पार जाने का यही समय है और इस समय भी मानव यदि चेत रहेगा तो फिर समय पर चूक कर पछताने के सिवाय और कुछ हाथ न लगेगा | मीराँ कहतीं हैं :
नहिं ऐसो जनम बारम्बार ।
का जानूँ कछु पुण्य प्रगटे मानुसा श्रवतार |
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आलोचना खंड
बढ़त छिन छिन, घटत पल पल जात न लागे बार। बिरछ के ज्यूँ पात टूटे, बहुरि न लागे डार । भौसागर अति जोर कहिए, अनंत ऊँडी धार । राम नाम का बाँध बेड़ा, उतर परले पार ॥
[मी० पदा० पद सं० १९५ ] और भी मनखा जनम पदारथ पायो ऐसी बहुर न आती ।। अबके मोसर ज्ञान विचारो, राम नाम मुख गाती ।।
[ मी० पदा० पद सं० १९७ ] इस प्रकार मीराँ संसार की नश्वरता और मानव शरीर तथा चेतना की अमूल्यता दिखाकर अपने मन को और उसी के बहाने सारे संसार को भगवान की भक्ति की ओर प्रेरित करती हैं।
उपदेश और चेतावनी के पद भी मीराँ के पदों में बहुत कम हैं और वे कुछ पद भी सम्भवतः परम्परा के प्रभाव से ही लिखे गए । सच तो यह है कि गुरु की वदना, चेतावनी, उपदेश तथा भक्तों की प्रशंसा और कथावर्णन के लिए मीरा के पास न तो अवकाश ही था न रुचि, उन्हें तो केवल अपने गिरधर नागर और उनके विरह में उनकी प्रतीक्षा के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा न लगता था । यद्यपि मीरा ने भगवान, भक्त, गुरु और उपदेश तथा चेतावनी सभी पर कुछ पद लिखे हैं, परन्तु भक्ति ही मीरों का विशेष विषय था और मीरों को हम विशुद्ध भक्ति-भावना और विरह-निवेदन का कवि कह सकते हैं । मीरों ने स्वयं अपने को विरह दिवानी कहा है :
मिलता जाज्यो हो गुर-ज्ञानी थारी सूरत देखि लुभानी ।
मेरो नाम मि तुम लीज्यो मैं हूँ विरह दिवानी ।। और इस विरह दिवानी पर हिन्दी साहित्य को समुचित गर्व है।
मक्त, भक्ति, भगवंत, गुरु और उपदेश तथा चेतावनी के अतिरिक्त प्रकृति का चित्रण भी कहीं-कहीं भक्त कवियों की कविता में मिल जाता
मी. १०
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१४६
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मीराँबाई
1
है । यह चित्रण प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता मान कर नहीं किया गया, वरन् अधिकांश उद्दीपन विभाव के ही रूप में श्राया है। मिलन-सुख अथवा विरह की वेदना को उद्दीप्त करने वाली प्रकृति ने ही भक्त कवियों और बाद के रीति कवियों को आकृष्ट किया । भक्त कवि अपनी भक्ति और अपने भगवान में ही इतने मग्न हो रहे थे कि उन्हें प्रकृति की स्वतंत्र सत्ता का ध्यान भी न था । फिर भी परम्परा वश मिलन-सुख और विरह वेदना को उद्दीप्त करने वाली प्रकृति पर उनकी दृष्टि पड़े बिना न रही। सूर और विद्यापति के पदों में प्रकृति के इस रूप का बहुत ही सुन्दर और व्यापक वर्णन मिलता है । मीराँ की विरह वेदना अंतर्मुखी थी इसीलिए उद्दीपन विभाव के रूप में भी प्रकृति का चित्रण उनकी कविता में बहुत कम है । केवल एक पद में उन्होंने 'बारहमासा' की परम्परा का पालन कर दिया है । केवल वसंत और वर्षा का वन कुछ विस्तार से मिलता है क्योंकि ये दोनों ऋतुएँ कवि हृदय को प्रभाबित करती ही है । इन दोनों ऋतुओं के वर्णन में भी वसंत का वर्णन केवल होली के रूप में अत्यंत संक्षिप्त है । होली में सारे संसार को राग-रंग में मस्त देखकर नारीजनोचित स्पर्धा के भाव से मीराँ केवल इतना ही कहती हैं : किरण सङ्ग खेलूँ होली, पिया तज गए हैं अकेली । हंली पिया बिन मोहिं न भावै, घर ब्राँगण न सुहावे । दीपक जो कहा करूँ हेली, पिंय परदेस रहावे । सूनी सेज जहर ज्यू लागे, मुसक सुसक जिय जावें । नींद नैन नहि यावे । पूर्ण रूप से श्रकृष्ट किया | डोल जाता है, तब वियोगी
परन्तु वर्षा ऋतु ने विरहिणी मीरों का ध्यान बादलों को देखकर जब सुखी लोगों का भी मन का तो कहना ही क्या ? काले-काले बादलों ने मीरों का धैर्य हर लिया वे' अधीर होकर पुकार उठती है :
अथवा
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१. देखिये भीराँबाई की पदावली पद सं० ११६ ।
२. मेघा लोके भवति सुखिनोप्यन्यथा वृत्ति चेतः । कंठा इलेषप्रखयिनि जने कि पुनदूर संस्थे
मेघदूतम् पूर्वमेघः, तृतीय श्लोक उत्तराद्ध'
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१४७
आलोचना खंड नन्द नन्दन बिलमाई, बदरा ने घेरी माई ॥ टेक ॥ इत बन लरजे, उत धन गरजे, चमकत बिज्जु सपाई ॥१॥ उमड़ घुमड़ चहुँ दिस से अाया, पवन चले पुरवाई ॥२॥ दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सब्द सुनाई। मोग के प्रभु गिरधर नागर चरन कमल चित लाई ।।
मो० शब्दा० पृ०० ४८] और भी, बादल देख भी हो स्याम मैं बादल देख झरी ।
काली पीली घटा ऊमंगी बरस्यो एक घरी । जित जाऊँ तित पानिहि पानी, हुई सब भोम हरी ।।
[ मी० शब्दा० पृ० सं० ४७ ] कभी तो बादलों की गरज में मीरों को अपने गिरधर नागर के आने की आवाज सुनाई पड़ती है और उन्हें यह चिन्ता सताती है कि :.
मतवारो बादल अायो रे, हरि के संदेसो कुछ नहिं लायो रे ॥ दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सबद सुनायो रे।
कारी अंधियारी बिजुली चमके, विरहिन अति डरपायो रे ॥ एक तो सावन ने यों ही मन को सरस बना कर गिरधर नागर से मिलने की उत्कंठा अत्यंत तीव्र कर दी है, दूसरे पपीहा ने 'पी कहा' की रट लगा कर विरह-वेदना को असह्य बना दिया है। इसीलिए भूत मात्र से स्नेह रखने वालो माराँ पपीहे को वैरी समझकर उससे पूछती हैं :
रे पपइया प्यारे कब को वैर चितारो ।। में सूती छी अपने भवन में, पिय पिय करत पुकारो।
दाध्या ऊपर लूण लगायो, हिवड़े करवत सारो। प्रकृति का चित्रण मीरों ने बहुत ही कम किया है परंतु जो कुछ भी किया है वह बहुत ही स्वाभाविक और सुन्दर है, अत्यंत कवित्वपूर्ण है। व्यर्थ की अतिशयोस्तियों में उलझना, केवल परम्परा का पालन करना मीरों का स्वभाव न था, उन्होंने तो केवल अपनी स्वाभाविक अनुभूतियों को सरलतम शब्दों में प्रकाशित किया है।
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चौथा अध्याय
मीराँ की प्रेम-साधना महाप्रभु चैतन्यदेव ने मनुष्य मात्र का धर्म तोन सत्यों पर अवलम्बित माना है। पहला सम्बंध-स्रष्टा और सृष्टि का सम्बंध; दूसरा अभिधेयईश्वर के प्रति मानव का कर्तव्य और तीसरा प्रयोजन अर्थात् मानव-सृष्टि का भविष्य । इन तीनों में सम्बंध का ज्ञान ही सत्य की पहली सीढ़ी है। दर्शन के क्षेत्र में ब्रह्म और जगत् (जीव) का सम्बंध; धर्म के क्षेत्र में ईश्वर
और मानव प्राणी का सम्बंध तथा काव्य के क्षेत्र में शब्द और अर्थ का सम्बंध ही मुख्य विचारणीय विषय है । अस्तु, भक्ति-साहित्य में मगवान् और भक्त का सम्बंध ही सबसे प्रथम और प्रधान वस्तु है ।
दर्शन की भाषा में जो ब्रह्म और जीव का सम्बंध है काव्य की भाषा में वही 'तुम और मैं' के रूप में व्यक्त किया गया है । स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भगवान तक पहुँचने के तीन मार्ग स्थिर किये हैं--पहला मार्ग अहं अथवा मैं का मार्ग है, जिसमें कि साधक कहता है कि सभी कुछ यहाँ तक कि ब्रह्म भी मैं हूँ दूसरा मार्ग तू अथवा तुम का मार्ग है जिसमें साधक कहता है कि ईश्वर ! सभी स्थान पर तुम्ही तुम हो और यह सभी कुछ तुम्हारा ही है तुम्हारे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । तीसरा मार्ग 'तुम
और मैं का मार्ग है जिसमें साधक कहता है कि 'भगवान् ! तुम स्वामी हो मैं सेवक हूँ, तुम प्रियतम हो मैं दास हूँ।' इन तीनों मागों में किसी एक की भी पूर्ण साधना से भगवान् मिल जाते हैं। भक्त कवियों का मार्ग 'तुम
और मैं' का मार्ग है, उन्होंने 'तुम और मैं' का सम्बंध विभिन्न रूपों में प्रकट किया है । कबीर इस सम्बंध को इस प्रकार व्यक्त करते हैं:
कबिरा कूता राम का, मुतिया मेरा नाउँ । गले राम की जेवड़ी, जित बैंचे तित जाउँ ।
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अालोचना खंड
१४६ गोस्वामी तुलसीदास इसी सम्बंध की चर्चा करते हुए कह उठते हैं :
तू दयाल, दीन हौं, तु दानि, हौ भिखारी । हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी । नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मो सो? मो समान भारत नहि, श्रारतिहर तो सो। ब्रह्म तू , हौं जीव, तुही ठाकुर हौ चेरो ।
तात, मात, गुरु, सखा, तू सब बिधि हितु मेरो॥ संतकवि रैदास भी इसी 'तुम और मैं' के सम्बंध की चर्चा करते हैं :
प्रभु जी तुम चंदन मैं पानी । जाकी बास अँग अङ्ग समानी।
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती । जाकी ज्योति जलै दिन राती । और इसी सम्बंध की चर्चा करते हुए आधुनिक रहस्यवादी कवि निराला भीगा उठते है :
तुम तुङ्ग हिमालय शृंग और मैं चंचल-गति सुर-सरिता ॥ मीराँबाई भी उसी 'तुम और मैं' की विवेचना करती हुई गा उठती हैं :
तुम बिच हम बिच अन्तर नाही, जैसे सूरज घामा॥ सूर्य और उसके प्रकाश के समान अभेद भाव रहते हुए भी 'तुम' और 'मैं' में भेद भी है और साधारण भेद नहीं बहुत बड़ा भेद है । इसीलिए तो मीराँ एक स्थान पर लिखती हैं:___ जल ते न्यारी कान्हा कभुवों न होऊँगी; तुम हो पुरुष हम नारी।
लाज मोहिं आवत भारी। यह ब्रह्म और जीव का एक साथ ही श्रमेद और भेद भाव दार्शनिक दष्टि से निम्बार्क के देतादैत अथवा भेदाभेद सिद्धांत के अनुरूप है। दैताद्वैत सिद्धांत के अनुसार जीव और ब्रह्म में अत और अभेद भाव भी है, साथ ही द्वैत और भेद भाव भी ; जिस प्रकार महासागर और उसकी लहर में अभेद भाव है क्योंकि दोनों ही जल हैं और साथ ही भेद-भाव भी है, क्योंकि महासागर अत्यंत विशाल है और लहर उसी का अत्यंत लघु व्यक्त रूप है। जाग्रत अवस्था में ब्रह्म और जीव दो हैं परन्तु तुरीयावस्था अथवा समाधि
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१५०
मीराँबाई
में दोनों में भेद भाव स्थापित हो जाता है। मीराँ दार्शनिक नहीं थीं, परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि अज्ञात रूप से वे इसी द्वैताद्वैत सिद्धांत की मानने वाली थीं। मूल रूप से भगवान और भक्त में अभेद भाव होते हुए भी व्यक्त रूप से दोनों में बहुत भेद है । इस भेद को लौकिक दृष्टि से मीराँ ने रुष और नारी का भेद माना है ।
यह पुरुष और नारी का सम्बंध लौकिक दृष्टि से स्पष्ट है; परन्तु केवल इतना कहने से काम नहीं चलेगा । मानव समाज में नर और नारी के बीच अनेक सम्बंध हैं | नर-नारी का सम्बंध ही मानव समाज की चिरन्तर समस्या है । अस्तु, 'तुम हो पुरुष हम नारी' मात्र कहने से यह सम्बंध स्पष्ट नहीं होता कुछ और भी कहना आवश्यक हो जाता है । मीराँ भी केवल इतना ही कह कर चुप नहीं रही हैं, उन्होंने भी इस पुरुष और नारी के सम्बंध को अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है :
घड़ी एक नहिं आवड़े, तुम दरसन बिन मोय । तुम हो मेरे प्राण जी, जासू जीवन होय ! नींद न आवै धान न भावै, विरह सतावै मोय । घायल सी घूमत फिरूँ री, मेरा दरद न जाणे कोय ||
तुम ( पुरुष ) मेरे नारी जीवन के प्राण हो, तुम्हारे ( पुरुष के ) दर्शन बिना मुझे ( नारी को ) एक घड़ी भी चैन नहीं मिलता, तुमसे ( पुरुष से ) ही मेरा ( नारी का ) जीवन है । तुम्हारे ( पुरुष के ) बिना मैं (नारी) तुम्हारे विरह में घायल के समान घूमती रहती हूँ । न मुझे नींद आती है, न ध्यान माता है, मेरा दर्द कोई भी नहीं जान सकता । यह 'तुम और मैं' की बड़ी स्पष्ट व्याख्या है। इससे भी स्पष्ट देखनी हो तो देखिए तुम अर्थात् अपने भगवान् की स्पष्टतम व्याख्या करती हुई वे कहती हैं :
म्हारो जनम मरन को साथी, थाँने नहिं विसरूं दिन राती । 'तुम देख्याँ चिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती । ऊँची चढ़-चढ़ पंथ निहारू रोय रोय अखियाँ राती ॥
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श्रालोचना खंड
१५१ यो संसार सकल जग . ठो, झूठा कुलरा न्याती। दोउ कर जोड्याँ अरज करत हूँ, सुण लीज्यो मेरी बाती ।।
xxxxxx पल पल तेरा रूप निहारू, निरख निरस्त्र सुख पाती। मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरि चरणाँ चित राती ॥
[ मी० पदा० पद सं० १०६ ] और भी मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुगट, मेरो पति सोई । छाँड़ि दई कुल की कानि कहा करिहै कोई
संतन ढिंग बैठि बैठि लोक लाज खोई । अर्थात् भगवान मीराँ का सच्चा पति है; वे कुल-कानि, सामाजिक बंधन सब का उल्लंघन कर उसी मोर मुकुट वाले को ही अपने जन्म और मरण का साथी बनाती है और उसी का रूप पल पल देखकर सुख पाती है । इसी प्रकार 'मैं' की ब्याख्या करती हुई ये कहती हैं :
हेरी मैं तो दरद दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय । और भी राम मिलण के काज सखी, मेरे प्रारति उर में जागी री ॥टेक।
तलफत तलफत कल न परत हैं विरह वाण उर लागीरी । निस दिन पंथ निहारूँ पीव को, पलक न पल भरि लागीरी ।। पीव पीव मैं रहूँ रात दिन, दूजी सुधि बुधि भागी रीं ॥ विरह भवंग मेरो डस्यो है कलेजो,लहरि हलाहल जागी री। मेरी प्रारति मेटि गुसाई, प्राह मिलौ मोहि सागी री॥ मीरौं ब्याकुल अति अकुलानी, पिया की उमंग अति लागी री ॥
[मो० पदा० पद सं० ९१ ] इस प्रकार मीराँ ने अपने भगवान् का और अपना सम्बंध स्पष्टतम शब्दों में प्रकट कर दिया है। वह गिरधर नागर मीरों का प्रियतम पुरुष है, जिससे मिलने के लिए ने अत्यधिक उत्कंठित हैं और मीराँ अपने गिरधर नागर की दासी मीरा नारी हैं जो अपने प्रियतम के विरह में पागल सी घूमती फिरत
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१५२
मीराँबाई
है । सारांश यह कि मीराँ का अपने भगवान् के साथ प्रणय प्रेम का सम्बंध है और वह प्रेम भी साधारण नहीं जीवनव्यापी चिरंतन विरह का रूप धारण करने वाला प्रेम है । इसीलिए इस प्रेम को साधारण प्रेम की संज्ञा न देकर प्रेम-साधना का नाम दिया गया है। यह प्रेम सचमुच ही एक साधना है और वह भी साधारण साधना नहीं, सम्भवतः इससे ऊँची कोई साधना नहीं है। मीरा के शब्दों में ही उस साधना का एक वर्णन सुनिए :--
सखी मेरी नींद नसानी हो ।
पिय को पंथ निहारत सिगरी रैण बिहानी हो ।
सब सखियन मिल सीख दई मन एक न मानी हो ।
far देख्याँ कल नाहिं पड़त जिय ऐसी ठानी हो ॥ अंग अंग ब्याकुल भई, मुख पिय पिय बानी हो ।
तर वेदन विरह की वह पीर न जानी हो । ज्यूँ चातक घन को रटै; मछरी जिमि पानी हो । मीराँ व्याकुल विरहिणी सुध बुध बिसरानी हो ||
यह चिरंतन विरह को प्रेम-साधना महत्तम प्रेम की प्राण है, इसी के द्वारा वद्द अमरत्व प्राप्त करके युग-युग में कितने काव्य और कितने अमूल्य, संचित कर जाता है, यह प्रेम-साधना मिलन के अभाव में ही प्रतिपूर्ण और दारुण व्यथा में ही प्रति मधुर है ।
प्रेम की चरम परिणति विरह में होती है और विरह की चरम परिणति इस चिरंतन विरह - साधना में । मीरों इसी चिरंतन विरह-साधना में महान् हैं । उनकी इस प्रेम साधना अथवा विरह - साधना की तुलना केवल राधा की विरह- साधना से की जा सकती है। बंगाल के वैष्णव कवियों ने राधा के प्रेम और विरह की बड़ी सुंदर और मधुर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। मैथिल कोकिल विद्यापति और सच्चे कवि हृदय सूर ने भी राधा के प्रेम और विरह की मर्मस्पर्शी व्यंजना की है । यहाँ दोनों की एक तुलनात्मक समीक्षा अप्रासंगिक न होगी ।
१. देखिए शरच्चन्द्र चटर्जी लिखित पत्र-निर्देश का अंतिम पैराग्राफ ।
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आलोचना 'खंड
१५३
राधा और मीरा - राधा और मीराँ दोनों ने ही भगवान् कृष्ण से प्रेम किया था। बंगाल के वैष्णव कवियों तथा विद्यापति ने राधा का कृष्ण के प्रति प्रेम प्रथम दर्शन में ही व्यक्त किया है । यह प्रेम भी एक ही ओर नहीं दोनों ओर है; श्रीकृष्ण जी भी प्रथम दर्शन में ही अपना हृदय खो बैठते हैं । प्रथम दर्शन के पश्चात् ही राधा और कृष्ण का प्रेम व्यक्त करते हुए विद्यापति लिखते हैं :
जबहिं दुहुँ दिठि बिरल, दुहु मन दुख लागु । दुहुक आसदिय बूफल, मनमथ आँकुर भांगु । विरह दहन दुहु तात्रय, दुहु समीहय मेलि । एकक हृदय एक न पाउल, ते नहिं पाउल केलि ॥
यह रूपजन्य आकर्षण आगे बढ़ कर प्रेम का प्रौढ़ स्वरूप ग्रहण करता है । दूसरी ओर कवि सूरदास को सम्भवतः यह प्रथम दर्शन का रूपजन्य प्रेम रुचिकर न था । इसीलिये उन्होंने बालक्रीड़ानों में ही राधा-कृष्ण का मिलन करा कर साहचर्य द्वारा प्रेम का प्रौढ़ स्वरूप प्रकट किया । परंतु मीरों का अपने गिरधर नागर के प्रति जो प्रेम है उसका प्रारम्भ न प्रथम दर्शन से होता है, न साहचर्य द्वारा उसमें विकास और प्रौढ़ता श्राती है । वह प्रेम विरह से ही प्रारम्भ होता है और विरह में ही उसकी चरम परिणति है । यह बात कुछ असम्भव सी जान पड़ती है, परन्तु सत्य है । गिरधर नागर के प्रति अपनी प्रीति का वर्णन करती हुई मीराँ कहती हैं : मेरी उनकी प्रीति पुरानी, उन बिन पल न रहाऊँ ।
परन्तु यह कितनी पुरानी प्रीति है इसका कुछ ठिकाना नहीं । कहीं-कहीं संकेत रूप में मीराँ ने अवश्य बतला दिया है कि यह प्रीति इस जन्म से भी पुरानी है, वह किसी पूर्व जन्म का प्रेम है :
मेरे प्रीतम प्यारे राम ने लिख भेजूँ री पाती ॥ स्याम सनेसो कबहुँ न दीन्हों जान बूझ गुरु बाती । ऊँची चढ चढ पंथ निहारू रोय रोय अँखिया गती ।
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१५४
मीराबाई
तुम देख्याँ बिन कल न परत है, हियो फटत मोरी छाती ।
मीराँ कहे प्रभु कब रे मिलोगे, पूर्व जन्म के साथी । अथवा हेली म्हाँसू हरि बिनि रह्यो न जाय ॥
सास लडै मेरी नगाद खिजावै रगा या रिमाय : xx
xxxx पूर्व जनम की प्रीत पुराणी, सो क्यूँ छोड़ी जाय । मीरों के प्रभु गिरधर नागर और न आवे म्हारी दाय ।
मो० पदा० पद सं० ४६ । इस प्रकार मीरों की प्रीति पुरानी अवश्य है, परन्तु कितनी पुरान: है यह कोई भी नहीं कह सकता। किसी पूर्व जन्म में जब बे सम्भवतः कोई गोपी रही होंगी तब प्रथम दर्शन में अथवा बाल-क्रीड़ा के मिलन और साहचर्य द्वारा ही भगवान् कृष्ण के प्रति उनका प्रेम हो गया होगा और वह प्रेम इस जन्म में भी किसी भूली हुई स्मृति के समान जाग उठा है । जब से वह पुरानी प्रीति मीराँ की चेतना में साकार हो उठी है तभी से वे विरह में व्याकुल हो गई हैं । इस प्रकार मीराँ का प्रेम विरह से प्रारम्भ होकर विरह में ही समाप्त हुआ।
मीरों के इस जन्म में उनकी पुरानी प्रीति जागने का कुछ वर्णन उनके कुछ पदों में मिलता है । एक स्थान पर मीरा लिखती हैं :
माई म्हॉने सुपने में, परण गया जगदीस । सोती को सुपना श्राविया जी, सुपना विस्वा बोस ।
मी० पदा० पद मं०२७) और भी, सोवत ही पलका में मैं तो, पलक लगी पल में पिउ पाए।
मैं जु उठी प्रभु श्रादर देन , जाग परी पिव हूंढ़ न पाए ।
और सखी पिउ सूत गमायें, मैं जु सखी पिउ जागि गमाए । अाज की बात कहा कहूँ सजनी, सपना में हरि लेत बुलाए ।
वस्तु एक जब प्रेम की पकरी, श्राज भये सखि मन के भाए। अस्तु, कल्पना अथवा स्वप्न में ही अपने गिरधर नागर का दर्शन पाकर मीरा
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अालोचना खंड
१५५. ने उन्हें अपना लिया और अपना ही नहीं लिया उन्हें मोल ही ले लिया और • उन पर अपना सब कुछ न्यौछावर भी कर दिया :
माई री मैं लीयो गोविन्दो मोल ॥ टेक ।। कोई कहै छाने, कोई कहै चौड़े, लियो री बज्जता ढोल । कोई कहै मुँहघो कोई सु घो, लियो री तराजू तोल । कोई कहै कारो, कोई कहै गोरो, लियो री आँखी खोल । याही क सब लोग जाणत है, लियो री आँखी खोल ।
मीरों के प्रभु दरसन दीज्यौ, पूरब जनम को कोल । मीरों ने अपने प्रियतम को लुक-छिप कर नहीं, ढोल बजा कर, तराजू पर तौल कर, अपनी आँखें खोल कर अच्छी तरह परीक्षा कर लेने के पश्चात् ही मोल लिया है। यह प्रेम अद्भुत और अपूर्व है । प्राचीन आचार्यों के लक्षण ग्रंथों में भी स्वप्न-दर्शन, चित्र-दर्शन तथा गुणों का गान सुनकर पूर्वानुराग उत्पन्न होना स्वीकार किया गया है, परन्तु वह पूर्वानुराग केवल पूर्वानुराग ही होता है, प्रेम की इस चरम परिणति को कभी प्राप्त नहीं होता। पूर्वानुराग के पश्चात् मिलन हीना प्रेम की प्रौढ़ता के लिए आवश्यक माना गया है। परंतु यहाँ मीराँ के पूर्वानुराग ने बिना मिलन के ही प्रेम की प्रौढ़ता ही नहीं प्राप्त की, वरन् वह प्रेम की चरम सीमा तक पहुँच गई । वह पूर्व जन्म के संस्कार द्वारा ही सम्भव हो सकता है । महाकवि कालिदास ने भी कहा है कि मन पिछले जन्म के सम्बन्ध को भली भाँति पहचान ही लेता है।'
मिलन के अभाव में भी मीरों का प्रेम और विरह किसी भी प्रेम-योगिनी से कम नहीं था। सच तो यह है कि विरह-साधना में मीराँ अदितीय हैं। अपने राम के लिए उनकी प्रतीक्षा का एक राग सुनिए :
राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ ॥टेक।।
दरस बिना मोहिं कछु न सुहावै, जक न पड़त है अाँखड़ियाँ । १. रतिस्मरौनूनमिमावभूतां राज्ञां सहस्रधु तथा विबाला । गतेयत्माप्रतिरूपमेव मनो हि जन्मान्तर मङ्गतिशम् ।।
[ रघुवंश, मम संग, १५ वां श्लोक ]
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१५६
मीराँबाई
तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी विरह की पाथड़ियाँ । अब तो बेगि दया कर साहिब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ। नैण दुखी दरसन को तरसे, नाभि न बैठे साँसड़ियाँ ।
राति-दिवस यह भारति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ। यह चिरंतन विरह और चिरंतन प्रतीक्षा ही मीराँ की प्रेम-साधना है.।
आचार्य रामानुज ने स्नेह ( तेल) के स्निग्ध और सतत प्रवाह के समान भगवान् के अखंड ध्यान को ही भक्ति की संज्ञा प्रदान की थी। इस अखंड ध्यान के लिये भगवान् के ऊपर पूर्ण श्रास्था और उनके प्रति अविरल और अटल प्रेम अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की भक्ति में भावना की अपेक्षा ध्यान और धारणा की ही महत्ता विशेष है । भक्ति का शास्त्रीय रूप यही है और गीता में भगवान् ने इसी शान-समन्वित-भक्ति का उपदेश किया था । पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ भगवान् का ध्यान ही अलौकिक भक्ति है । परन्तु यह भक्ति केवल कुछ ज्ञानियों और योगियों की ही सम्पत्ति हो सकती थी, साधारण जनता इस उच्च कोटि की अलौकिक भक्तिभावना तक पहुँच ही नहीं सकती थी, सम्भवतः इसी कारण बाद के भक्तों ने ध्यान और धारणा की चर्चा तक न की। उन्होंने जिस भक्ति का निरूपण किया उसमें भावना के अतिरेक में भगवान के प्रेम का आनन्द प्राप्त करना ही मुख्य था। यह अानन्द भी अलौकिक अथवा इंद्रियों के अतीत न था, वरन् पूर्ण रूप से लौकिक और इंद्रियगम्य था। जैसे कामी पुरुष इंद्रियों के सुख की ही कामना करता है, उसी प्रकार तुलसीदास भी राम की भक्ति की कामना करते हैं :
कामिहि नारि पियार जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम ।
त्यो रघुवीर निरन्तर, पिय लागिहि मोहिं राम ।। यह भक्ति का आनंद इतना गम्भ र और अद्भुत है कि भक्तगण इसके पीछे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष-चारों पदार्थों को तुच्छ मानते हैं । भागवत में
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आलोचना खंड
१५७ इसी लौकिक भक्ति का प्रतिपादन किया गया है जो हृदय की एक मधुर और सरस भावना की बाढ़ के तुल्य है, जो एक नशा है, एक उन्माद है । कबीर स्पष्ट शब्दों में उपदेश करते हैं :
पीले प्याला हो मतवाला, प्याला नाम अमी रस का रे। और मीराँ भी इसी नशा और उन्माद का वर्णन करती हुई कहती हैं :
लगी मोहिं राम खुमारी हो ।
रिमझिम बरसै मेहड़ा भीजे तन सारी हो। इस लौकिक भक्ति-भावना के अनुभव से जिस सात्विक भाव और अनुभाव की अभिव्यक्ति होती है उसका वर्णन भक्त कवियोंने बड़े सुन्दर ढंग से किया है । गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में भक्तों के सात्विक भावों का, उनके भक्ति से द्रवित हृदय का, अविरल अश्रुधारा, गदगद कंठ, हास्य और प्रसन्नता का बड़ा ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है। अरण्य कांड में 'प्रेम मगन' सुतीक्ष्ण का एक चित्र देखिए :
निर्भर प्रेम मगन सुनि ग्यानी । कहि न जाइ सो दसा भवानी । दिसि अस विदिसि पन्थ नहिं सूमा । को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई । कबहुँक नृत्य करै गुन गाई।। यह प्रेम के मतवाले का उन्माद है और भक्ति-काल इसी उन्माद की एक व्यापक अभिव्यक्ति से ओतप्रोत है। भक्त के अंतरतम की प्रानन्द-धारा बाढ़ के जल के समान समी इन्द्रियों से फूट निकलती थी। तभी तो मीराँगा उठती हैं:
मैं तो साँवरे के रज रांची।
साजि सिंगार बाँध पग घुघुरू लोक लाज तजि नाची। अस्तु, भक्ति-काल की मुख्य विशेषता यह थी कि ध्यान और धारणा वाली भक्ति तथा अंतरतम की अानन्दधारा का सम्बन्ध लौकिक भावनात्रों
और इन्द्रियगत अनुभूतियों की अभिव्यक्ति से जुड़ गया । ज्ञान-समन्वित-भक्ति के स्थान पर पागल बना देने वाली उग्रभक्ति का प्रचार हुआ । शान क्या
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ज्ञान-समन्वित-भक्ति को सतयुग, त्रेता और द्वापर युगों के उपयुक्त बताकर कलियुग में इसी उग्र भक्ति की उपयोगिता सिद्ध की गई।
भक्तों के अनुभव और अानन्द जब अलौकिक और इन्द्रियातीत की कोटि से नीचे उतारकर लौकिक और इन्द्रियगम्य अनुभूतियों और संवेदनायों की कोटि में ला दिए गए, तब ज्ञान-समन्वित-भक्ति के स्थान पर लौकिक भावनाओं ने भक्ति का स्वरूप धारण किया और अनुभव की तीव्रता की दृष्टि .से इन भावनाओं को भी मुख्य पाँच स्वरूप दिया गया जो साहित्य में शांत, दास्य, सख्य, वत्सल और मधुर के नाम से प्रसिद्ध हैं | अनुभव की अतिशय तीव्रता और भावों के उत्कट आवेग के कारण मधुर-भाव की भक्ति ही सर्वोत्कृष्ट कोटि की भक्ति मानी गई और उनके अभाव में शांत भाव की भक्ति निन्नतम कोटि की भक्ति हुई । दास्य, सख्य, वत्सल भाव की भक्ति इन दोनों के बीच में प्रतिष्टित हुई । इतना ही नहीं, मधुर भाव की इस उग्रतम भक्ति-भावना में भी स्वकीय और परकीय भाव की दो साधनाओं के बीच परकीय भावना के उग्रतर होने के कारण कुछ भक्ति-सम्प्रदायों में परकीय साधना का अत्यधिक महत्त्व स्वीकार किया गया।
भावना की दृष्टि से उग्रतम और तीव्रतम होने पर भी परकीय साधना में उच्छङ्खलता और असंयम को बहुत अधिक प्रश्रय मिला और भक्तों में ज्यों-ज्यों भक्ति-भावना शिथिल पड़ती गई त्यों-त्यों इस साधना ने समाज में उच्छङ्खलता, असंयम और अश्लीलता का बीज बोया । मीरों की भक्तिभावना इस उग्रतम और तीव्रतम कोटि की होती हुई भो उसकी अभिव्यक्ति में उच्छङ्खलता और असंयम नाममात्र को भी नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास के काव्य के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उनका शृंगार-वर्णन अत्यंत
१.स्वामी रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों में एक स्थान पर कहा गया है, “यदि तुम्हें पागल ही बनना है तो सांसारिक वस्तुओं के पीछे पागल मत बनो, वरन् ईश्वर की भक्ति प्रेम के पीछे पागल बनो। इस कलियुग में उग्रभक्ति ही अधिक उपयोगी है और संयमित भक्ति की अपेक्षा शीन फलदायक होती है। ईश्वर प्राप्ति का दुर्गम गढ़ इस उग्र भक्ति में ही तोड़ना चाहिये।
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आलोचना खंड
१५४ शुद्ध और पवित्र है । परन्तु इसमें कोई विशेषता नहीं है क्योंकि तुलसीदास की भक्ति-भावना देखते हुए उनके शृंगार-वर्णन में शुद्धता और पवित्रता न होना अवश्य आश्चर्यजनक होता । तुलसीदास दास्यभाव की भक्ति करते थे जो लौकिक भक्ति-भावना की कोटि में बहुत निम्नश्रेणी की मानी गई है। वहाँ उच्छं खलता और असंयम के लिए कोई स्थान ही नहीं वरन् वहाँ तो मर्यादा की रक्षा का ही महत्व अधिक है । एक सेवक अपने स्वामी
और स्वामिनी के शृंगार-वर्णन में शुद्धता और पवित्रता के अतिरिक्त और देख हो क्या सकता है। परन्तु मोरों ने माधुर्यभाष की तीव्रतम भक्ति-भावना में भी जो पवित्रता, गम्भीरता और स्वाभाविक सरलता प्रदर्शित की है वह वास्तव में अद्भुत और अभूतपूर्व है।
मारी के पदों में मधुर भाव को पवित्र, गम्भीर और सहज अभिव्यक्ति के मुख्य दो कारण है। पहला तो उनका गिरधर नागर के प्रति मधुर भाव मिलन के अभाव में अत्यंत गम्भोर हो उठा है। लौकिक शृंगार की सभी अपवित्रता और उच्छखलता विरह को पवित्र दिव्य ज्वाला में जल कर भत्म हो गई है। विरह से मारम्भ कर विरह में ही समाप्त होने वाली उनको गम्भीर प्रेम-साधना में तपाए हुए सोने के समान वह निर्मल तेजस्विता है कि उसके सामने पढ़ने वालों को लोकिक शृंगार भावना भी शुद्ध हो जाती है। यह बात नहीं है कि मीराँ केवल विरह की आँच में ही जलती रहती हैं; उन्हें मिलन की अाशा का आनंद और संयोग का काल्पनिक सुख भी मिल जाता है, परन्तु उस क्षणिक पाशा और भिलन-सुख में भी साधक के पवित्र भावों के ही दर्शन होते हैं । सावन में बादलों को मंद ध्वनि में उन्हें अपने प्रियतम के आने की आवाज़ सुनाई पड़तो है और वे उत्सुक अाशा से प्रतीक्षा करने लगती हैं :
सुनी हो मैं हरि श्रावन की आवाज ||
हेल चढ़े चाहे जोऊं मेरी सजनी, कब श्रावै महराज ।। अथवा, मुक पाई बदरिया सावन की, सावन की मन भावन की।
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मीराँबाई
सावन में उमँग्यो मेरो मनवा, भनक सुनी हरि श्रावन की । , उमड़-घुमड़ चहुँदिस श्रायो, दामण दमक मर लावन की ।। और एक दिन मिलन भी हो जाता है (सम्भवतः कल्पना में ), परंतु वह मिलन इतनी कठोर साधना के पश्चात् होता है कि उस संयोग से केवल शुद्ध अानंद की ही उपलब्धि होती है, शारीरिक वासना और लौकिक शृंगार भावना का उसमें लेश भी नहीं रह पाता । उस अलग प्रवास में रहने वाले के आने से मीराँ सुखी अवश्य है :
म्हारा अोलगिया घर आया जी ॥टेक।। तन की ताप मिटी सुख पाया, हिलमिल मंगल गाया, जी। घन की धुनि सुनि मोर मगन भया, यूँ मेरे पाणद आया जी। मगन भई मिलि प्रभु अपणासू; भौ का दरद मिटाया, जी। चन्द . देखि कमोदणि फूल, हरखि भया मेरी काया, जी। रग रग सीतल भई मेरी सजनी, हरि मेरे महल सिधाया जी।
[ मी० पदा० पद सं० १४९ ] परन्तु इस सुख में तनिक भी उन्माद नहीं, उत्ताप नहीं । इतना प्रशांत और पूर्ण श्रानंद बहुत बड़ी साधना के उपरांत ही मिलता है और मीरों की प्रेम साधना वास्तव में बहुत बड़ी है। ___ दूसरा कारण है, मीरों ने परम्परागत नायिका-भेद के लक्षण ग्रंथों की अवहेलना कर शुद्ध और सरल नारी हृदय से प्रेम की अभिव्यक्ति की है। यह मान
और अभिसार अथवा उन्माद और प्रलाप वाला कृत्रिम प्रेम नहीं है, वरन् साधना और प्रात्म समर्पण की भावना से पूर्ण एक सरल नारी का सहज प्रेम है । अपने विरह-निवेदन में वे विरह की परम्परागत एकादश दशाओं का वर्णन नहीं करती वरन् अपनी सहज व्यथाका ही वर्णन करती हैं। रीतिकाल की विरहिणी नायिकाएँ जब प्रेम-पत्र लिखने का प्रयत्न करती है, तब विरह के शब्दों की आँच से ही कागज जलकर भस्म हो जाता है, स्याही सूख जाती है और कलम का डंक जल उठता है। इसी प्रकार सूरदास की गोपिकाएँ मी जब भगवान कृष्ण के पास पत्र भेजने का प्रयत्न करती हैं तो आसुत्रों की.
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आलोचना खंड
जलधारा से सभी अक्षर एकाकार होकर फैल जाते हैं, परन्तु मोराँ जब अपने प्रिय गिरधर नागर को पत्र लिखने बैठती हैं, तब न तो स्याही सूखती है, न कलम की डंक जलती है, न कागज भस्म होता है, न भीगता ही है। फिर भी उनसे पत्र लिखते नहीं बनता। वे कहती हैं :
उत्तियाँ मैं कैसे लिखू लिखही न जाई । टेक ॥ कलम धरत मेरो कर कंपत, हिरदो रहो घराई । बात कहूँ मोहिं बात न श्रावै, नैन रहे फर्राई । किस विध चरण कमल मैं गहिहौं, सबहि अंग थर्राई । मीराँ कहै प्रभु गिरधर नागर, सबही दुख बिसराई ॥
[मी० पदा० पद सं० ७७ ] उस लज्जाशीला से बात ही कहते नहीं बनता । यद्यपि विरह ने उसे इतनी व्यथा दी है फिर भी अपने प्रियतम को वह क्या लिखे, कैसे लिखे, यह समझ ही में नहीं आता । कितनी स्वाभाविक बाल मोरों ने कितने सरल ढग से कह दी है। जायसी की विरहिणी की भाँति वह अपने प्रियतम के पास इस प्रकार का संदेश नहीं भेजती कि :
__ पिय सों कहेहु सँदेसड़ा, हे पंछी हे काग ।
सो धनि विरहे जरि मुई, तेहि क धुनौं मोहिं लाग । क्योंकि इस संदेश में असम्भव अतिशयोक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है वह तो यदि कोई ले जा सके तो अपनी सच्ची व्यथा का ही संदेश भेजेगी कि :
रमैया, बिन नींद न पावै। नींद न आवे बिरह सतावे, प्रेम की आँच हुलावै ॥ टंक ॥ बिन पिया जोत मंदिर अँधियारौ, दीपक दया न आवै। पिया बिन मेरी सेज अलूनी, जगत रैण बिहावै ।
पिया कब रे घर श्रावै । दादुर मोर पपीहा बोले, कोयल सबद सुणावै । घुमट घटा अलर होइ श्राई, दामिन दमक डरावै ।
नैन झर लावै ! मी० ११
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मीराबाई कहा करूँ कित जाऊँ मोरी सजनी, वेदन कूण बुतावै । विरह नागण मोरी काया डसी है, लहर लहर जिव जावे।
जड़ी घास लावै। विरह-निवेदन प्रायः हिन्दी के सभी कवियों की रचनाओं में मिलता है, परन्तु विरह की सच्ची अनुभूति की इस प्रकार सरलतम और स्पष्टतम शब्दों में अभिव्यञ्जना मोरों के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं मिल सकती।
वैष्णव भक्तों की माधुर्य भाव की भक्ति और उनके प्रणय-प्रेम की अमिव्यक्ति को विद्वानों ने रहस्यवाद के अंतर्गत माना है । मोरों की भक्ति भावना भी माधुर्य भाव की थी, अस्तु, मीराँ की प्रेम-साधना भी रहस्यवाद के अंतमत प्राता है । वह भगवान् * नेक और अनगिनत जीव नारियों का एक ही पुरुष है, इस परम सत्य को हृदयंगम कर मीराँ ने जिस प्रणयानुभूति और विरह-व्याकुलता की अभिव्यक्ति की वह रहस्यवाद की भावना से अोतप्रोत अवश्य है, परन्तु उनकी अभिव्यञ्जना की शैली इतनी सरल, स्पष्ट और स्वाभाविक है कि सहसा मोग को रहस्यवादों कवि कहना अनुचित जान पड़ता है,क्योंकि शैली की दृष्टि से मीराँ अन्य सगुण भक्ता से अधिक भिन्न नहीं हैं। मीरों की प्रणयानुभूति इतनी उच्च कोटि की थी, साथ ही इतनी सरल
और 'गम्भीर थी कि उसमें रूपक तथा सांकेतिक प्रयोगों के लिए कोई स्थान ही नहीं था । सांकेतिक शब्दों का रूढ़ प्रयोग करके ही कितने कवि रहस्यवादी प्रसिद्ध होगए हैं (जायसी इसी प्रकार के रहस्यवादी हैं ) परन्तु जहाँ लौकिक
और अलौकिक' का सम्मिलन होता है, प्रेम की उस चरम स्थिति तक केवल कुछ थोड़े से कवि और भक्त पहुँच पाए हैं और मीराँ उन थोड़े से भक्तों
और कवियों में प्रमुख थीं। भगवान् की ओर उन्मुख मीरा का सच्चा प्रेम अर्जन के लक्ष्य' की भाँति केवल उनके गिरधर नागरको देख पाता था किसी
१ एक बार द्रोणाचार्य ने कौरव और पांडवों को लक्ष्यवेध-परीक्षा ली। एक वृक्ष पर
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१६३
श्रालोचना खंड दसरी ओर देखने और संकेत करने की उसे न अावश्यकता ही थी न अवकाश ही था; इसी कारण मीरों की अनुभूति में वह गम्भीरता और तीव्रता है, वह सरलता और स्पष्टता है जो किसी दूसरे रहस्यवादी कवि में हूँढ़े भी नहीं मिलती।
मीरों का रहस्यवाद साम्प्रदायिक नहीं, वह स्वाभाविक था; रूढ़िगत नहीं स्वच्छंद था। मीरा नारी थीं, उन्हें अपने नारीत्व का पूर्ण ज्ञान और अभिमान था; उन्होंने अन्य वैष्णव भक्तों के समान जीव नारी का अभिनय नहीं किया, वरन स्वयं अपने गिरधर नागर की दासी बन गई और अपनी सच्ची प्रेम-साधना की स्पष्ट और उत्कृष्ट व्यंजना की। मीरों की सरल और सष्ट शैली का यही रहस्य है।
पत्तों के बीच एक कृत्रिम पक्षी के आँखों का निशाना बनाना था। द्रोण के प्रश्न करने पर युधिष्ठिर आदि अन्य राजकुमारों ने बतलाया कि वे पक्षी की आंखों के अतिरिक्त पक्षी, पत्ते वृक्ष इत्यादि भी देख रहे हैं और वे सभी इस परीक्षा में असफल रहे । अंत में अर्जुन की बारी आई । प्रश्न करने पर उन्होंने बतलाया कि वे न तो वृक्ष देखते हैं, न वृक्ष के पत्ते, • और पक्षी की आंख के अतिरिक्त उसके अन्य अंग भी उन्हें दिखलाई नहीं पड़ रहे थे। अजुन ने ही लक्ष्य वेध किया ।
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Ach
पाँचवाँ अध्याय
मीरों को काव्य-कला कविता की कितनी परिभाषाएँ प्रचलित हैं, परन्तु उसकी एक सर्वसम्मत परिभाषा, उसकी समुचित मीमांसा और स्पष्ट व्याख्या आज भी न हो सकी। सच तो यह है कि कविता की स्पष्ट व्याख्या करना सम्भव ही नहीं है। जो वस्तु जितनी ही व्यापक और महत् होती है, वह उतनी ही सूक्ष्म और अव्यक्त भी होती है, और इसीलिए उसकी न कोई परिभाषा हो सकती है, न उसका कोई नियम हो सकता है और न कोई नियामक ही। ईश्वर, धर्म और काव्य ऐसी ही वस्तुएँ हैं। अनादि काल से इन तीनों के सम्बंध में कितने ही प्रकार के चिन्तन होते रहे हैं, परन्तु आज भी वे उसी प्रकार अस्पष्ट हैं, जैसे पहले थीं, और अंत में यही कहना पड़ता है :
नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
तो नस्ल द्वेद तद्वैद नो न वेदेति वेद च । केनोपनिषद् अर्थात् मैं न तो यह मानता हूँ कि उसको (ब्रह्म, धर्म, काव्य को) अच्छी तरह जान गया और न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता। इसलिए मैं उसे जानता हूँ और नहीं भी जानता। अस्तु, कविता की सष्ट व्याख्या नहीं हो सकती, फिर भी सौभाग्य से कविता को सभी पहचान लेते हैं, यद्यपि सबकी पहचान एक दूसरे से भिन्न हो सकती है। कोई उसको उसके छंदों के प्रावरण से पहचानता है तो कोई उसके अंत्यानुप्रास से; कोई उसको संगीत से पहचानता है तो कोई उसकी गति से; कोई उसके अलंकारों पर मुग्ध है, तो कोई उसकी ध्वनि और व्यंजना पर; कोई उसके भावों की गहराई नापता है तो कोई अनुभूति की व्यापकता; कोई उसमें आनंद की खोज करता है तो कोई सांत्वना की । कविता में ये सभी तत्व थोड़ी-बहुत मात्रा में अवश्य मिल जाते हैं, परन्तु
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श्रालोचना खंड
१६५
कविता इतने ही तक सीमित नहीं है, वह इनसे भी परे है। वह क्या है, इसे आज तक किसी ने न जाना ।
कविता की अभिव्यक्ति शब्दों में चित्र और संगीत के द्वारा होती है । बुद्धि कल्पना द्वारा कवि अपने वर्य वस्तु का चित्र उपस्थित करता है और भावना द्वारा संगीत की सृष्टि किया करता है। चित्र-कल्पना कविता के प्रबंधकाव्य-रूप ( महाकाव्य और खंडकाव्य ) के लिए अत्यंत उपयोगी हैं और संगीत की सृष्टि गीति काव्य रूप के लिये अत्यंत श्रावश्यक समझा जाता है । यह सत्य है कि महाकाव्य और खंडकाव्यों में भी संगीत की सृष्टि होनी ही चाहिए, परन्तु वहाँ चित्र कल्पना ही प्रधान है, संगीत नहीं और इसी प्रकार गीतिकाव्यों में भी चित्र कल्पना श्रवश्य होनी चाहिए, परंतु प्रधानता संगीतसृष्टि ही की हुआ करती है । युग-युग में जब कभी कवियों की चित्र कल्पना सजीव हो उठती है तभी महाकाव्यों और पूर्व खंडकाव्यों से साहित्य का भंडार भरता है, और जब बुद्धि कल्पना के स्थान पर भावना का स्रोत उमड़ पड़ता है तब आनंद और वेदना की धारा संगीत के रूप में प्रवाहित होने लगती है और फलतः गीति-काव्यों की सृष्टि हुआ करती है । कालिदास, अश्वघोष तथा भारवि इत्यादि का युग बुद्धि कल्पना का युग था, शब्द-चित्रों का युग था, महाकाव्य और खंडकाव्यों का युग था, और जयदेव, विद्यापति, सूर और मीरों का युग भावना और अनुभूति का युग था, संगीत का युग वा और था गीति काव्यों का युग ।
ऐसा जान पड़ता है कि देश में जब चित्रकला का विकास होता है, तब साहित्य में भी चित्र कल्पना प्रधान हो उठती है और जब देश में संगीत की उन्नति होने लगती है तब साहित्य में भी गीति काव्यों की प्रधानता दिखाई पड़ती है । भारतीय चित्रकला के इतिहास में ईसा की सातवीं और आठवीं शताब्दी में सर्वोत्कृष्ट चित्रों की सृष्टि हुई थी और इस कला का विकास लगभग तीन चार सौ वर्षों से हो रहा था। ठीक यही समय संस्कृत के महाकाव्यों की रचना का भी है । संगीत के पुनरुत्थान के साथ-ही-साथ गीति काव्यों की प्रधानता होने लगी । मध्यकालीन उत्तर भारत में लगभग पंद्रहवीं और
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माराबाई सोलहवीं शताब्दी में संगीत का पुनरुत्थान हुआ था । जौनपुर के इब्राहीम शाह शर्की तथा उसके पौत्र हुसेनशाह शर्की के दरबार में भारतीय संगीत की विशेष उन्नति हुई थी। इसी शी सल्तनत में कड़ा मानिकपूर के शासक मलिक सुलतान शाह के पुत्र मलिक बहादुरशाह ने एक वृहत् संगीत सम्मेलन का आयोजन कर 'संगीत-शिरोमणि' नामक ग्रन्थ ( रचना काल १४२८) प्रस्तुत कराया था। इसी समय मेवाड़ के स्वनामधन्य महाराणा कुम्भा भी बड़ा संगीत प्रेमी, गायक और वीणा-वादन में निपुण प्रसिद्ध हुआ है। उसने संगीत-शास्त्र पर 'संगीत राज' नामक ग्रन्थ की रचना की, साथ ही साथ संगीत रचना भी 'संगीत-रत्नाकर' तथा 'गीतगोविन्द' की टीका के रूप में उपस्थित की। लगभग उसी समय निधुबन के स्वामी हरिदास, जो प्रसिद्ध गायक तानसेन के संगीत-गुरु प्रसिद्ध है, तथा बैजू बावरे भी भारतीय संगीत की धारा बहा रहे थे। मुग़ल सम्राट अकबर भी भारतीय संगीत का प्रेमी था और उसके दरबार में तानसेन, रामदास और उसके पुत्र सूरदास जैसे प्रसिद्ध गायक रहते थे। बल्लभाचार्य के शिष्यों में कितने ही प्रसिद्ध गायक थे । संगीत के उस पुनरुत्थान काल में हिन्दी साहित्य में भी संगीत-प्रधान गीति-काव्य शैली का खूब प्रचार हुश्रा । हृदय के धर्म भक्ति की अनुभूतियों और भावनाओं की सरस धारा प्रवाहित करने के लिए यह काव्य-रूप अत्यन्त उपयोगी भी प्रमारिणत हुअा। फलतः उस काल में, जिसे साहित्य में भक्तिकाल की संज्ञा दी गई है, हिन्दी कविता में गीति-काव्य-शैली का बोलबाला था।
गीति-काव्य संगीत-प्रधान तो होता ही है, उसकी सबसे बड़ी विशेषता उसकी अंतर्मुखी प्रवृत्ति है । साधारण गीति-काव्यों में यह अंतर्मुखी वृत्ति कवि के व्यक्तिगत अथवा उसके नायक और नायिका के सुख और दुःख, आशा और निराशा, भय और पीड़ा, क्रोध और वृणा इत्यादि की सहज और संगीतमय अभिव्यक्ति करती है। परंतु कुछ गीत ऐसे भी होते हैं जहाँ कधि की अंतर्मुखी वृत्ति उसकी व्यक्तिगत अथवा काल्पनिक नायक-नायिका की लौकिक भावनाओं और अनुभूतियों का अतिक्रमण कर अलौकिक के क्षेत्र में जा पहुँचती है: हाँ. लौकिक और साधारण सुख दुःश्व के स्थान पर अलौकिक और असाधारण
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आलोचना खंड श्रानंद और वेदना की अभिव्यक्ति होती है; जहाँ साधारण संयोग और वियोग की अनुभूतियों के स्थान पर स्वयं भगवान से संयोग और वियोग की साधनामयी अनुभूतियों की अभिव्यंजना होती है । इस प्रकार के गीतिनों की महत गीति-काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें भगवान के लिए पागल हृदय की अस्पष्ट और अव्यक्त ध्वनि सुनाई पड़ती है।
हिन्दी साहित्य में महत् गीति-काव्य की रचना करने वालों में मीरी अद्वितीय हैं। पद-रचना में सूरदास और मैथिल कोकिल विद्यापति ने भी अद्भुत कौशल प्रदर्शित किया है, परंतु सीधे हृदय पर चोट करने वाली रचना मीरों के ही कंठ से निःसृत हुई थी। जहाँ सूर और विद्यापति के पदों में ब्रज की गोपियों अथवा राधा के सम्भोग और वियोग की श्रानंद और वेदनामयी अनुभूतियों की सरस अभिव्यक्ति हुई है वहाँ मीरों के पदों में स्वयं मीरों की विरह-व्यथा साकार हो उठी है। सूरदास के मुक्तक पदों
और गीतियों के भीतर एक कथा की धारा अंतःसलिला सरस्वती की भाँति बहती रहती है और उसी प्रसिद्ध कथा के सहारे उन पदों का सौन्दर्य परखा जा सकता है, इसी प्रकार विद्यापति के पदों में भी नायिका-मेद की परम्परा का सहारा लिए बिना उनकी रमणीयता भली प्रकार स्पष्ट नहीं हो पाती, परंतु मीरों के पदों में कथा की न कोई अंतर्धारा है, न किसी साहित्यिक परम्परा का सहारा है; वहाँ मीरों की भावना सीधे मीरों के हृदय से, उनके अंततम प्रदेश से, निकलती है। इसीलिए उसका प्रभाव भी अधिक पड़ता है। मोरों के पदों में सरलता है, स्पष्टता है और है सीधापन ( directness)। परंतु उन पदों की सबसे बड़ी विशेषता है स्वच्छंदता। वह युग-युग से चलती आ रही काव्य-परम्परर से स्वच्छंद है; भाषा और छंद, भाव और अनुभूति किसी का भी अाडम्बर मीराँ के पदों में नहीं है। परंतु मीरों को स्वच्छंदता कोरा अनर्गलवाद नहीं है, वह एक निझरिणी की निर्मल धारा की स्वच्छंदता है, जिसमें एक राग है, एक अदम्य आवेग है, बंधनों की सीमा का उल्लंघन करने का एक उत्साह है; परंतु जिसमें असंयम नहीं, अश्लीलता नहीं, विद्रोह की भावना नहीं।
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मीराबाई मीरों की भक्ति-भावना की स्वच्छंदता ने, जिसमें लोक-लाज नहीं था, समाज का भय नहीं था, काव्य-कला में भी इसी प्रकार की स्वच्छंदता दद ली थी । भाषा, छंद और काव्य-परम्परा सब में मीरा ने एक स्वाभाविक स्वच्छंदता प्रदर्शित की है।
भाषा-मीराँबाई के पद वर्तमान रूप में तीन भिन्न भाषाओं में मिलते हैं । कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है और कुछ की शुद्ध ब्रज भाषा है, शेष पद राजस्थानी भाषा में पाये जाते हैं, जिनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ है। पता नहीं मीरों के मूल पद किस एक अथवा किन-किन भिन्न भाषाओं में लिखे गए थे, परंतु इस समय उनमें स्पष्ट तीन भाषाएँ हैं । ऐसा भी सम्भव है कि सचमुच ही तीन भिन्न भाषाओं में लिखी गई हों क्योंकि मीराँ गुजरात में काफी दिनों रही थीं, ब्रज में भी उन्होंने लगभग पाँच छः वर्ष बिताए थे और राजस्थान में तो वे पैदा हुई थीं, वहीं व्याही गई थीं और जीवन का अधिकांश भाग वहीं बिताया था।
ब्रजभाषा तथा ब्रज-मिश्रित राजस्थानी भाषा में विरचित मीरा के पदों में भाषा का प्राडम्बर तनिक भी नहीं है । जायसी, कबीर तथा अन्य संत कवियों की भाँति मीराँबाई भी परिष्कृत तथा पूर्ण साहित्यिक भाषा नहीं लिख सकती थीं, ऐसी बात नहीं है, वरन् इसके विपरीत कुछ पदों में मीर ने ऐसी परिष्कृत तथा शुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है जो पिछले खेवे के कवियों के लिए आदर्श मानी जा सकती है । उदाहरण के लिए देखिए :
मन रे परसि हरि के चरण ।। टेक ॥ सुभग सीतल कँवल कोमल, त्रिविध ज्वाला हरण । जिण चरण पहलाद परसे, इन्द्र पदवी धरण। जिण चरण ध्रुव अटल कीने, राखि अपनी सरण ।
त्याहिद[ मी० पदा० पद० सं० १] अथवा छाँड़ों लॅगर मोरी बहियाँ गहो ना।
मैं तो नार पराये घर की, मेरे भरोसे गुपाल रहो ना।
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और भी, सखी मेरी नींद नसानी हो ।
अथवा
आलोचना खंड
जो तुम मेरी बहियाँ गहत हो, नयन जोर मोरे प्राण हरो ना । वृंदावन की कुन्ज गलिन में, रीत छोड़ अनरीत करो ना । ari के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल चित टारे टरो ना । [ मी० पदा० पद सं० १७२ ]
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पिय को पंथ निहारत, सिगरी रैन बिहानी हो || सब सखियन मिलि सीख दई मन एक न मानी हो । बिन देख्याँ कल नाहिं, जिय ऐसी ठानी हो ॥ अंग अंग व्याकुल भई, मुख पिय पिय बानी हो अंतर वेदन विरह की वह पीर न जानी हो । ज्यूँ चातक घन कूँ रटै, मछरी जिमि पानी हो । मीराँ व्याकुल विरहणी, सुध बुध बिसरानी हो ॥
[ मी० षदा० पद सं० ८७ ] इसी प्रकार और भी कितने पद हैं जो सरलता और स्पष्टता, मधुरता और कोमलता में हिन्दी साहित्य में अतुल हैं। सूर और मतिराम, रसखान और घनानन्द की व्रजभाषा भी इतनी मधुर और स्पष्ट नहीं है । परन्तु मीरों की भाषा का स्वच्छंद प्रवाह देखना हो तो देखिए :
जोगिया री प्रीतड़ी है दुखड़ा रो मूल ।
दिल मिल बात बणावत मीठी, पीछे जावत भूल । तोड़त जेज करत नहिं सजनी, जैसे चमेली के फूल । ari at प्रभुतुमरे दरस बिन, लगत हिवड़ा में सूल ॥ [मी० ० पदा० पद सं० ५८ ] मेरे परम सनेही राम की नित लूडी आवे ॥ टेक ॥ राम हमारे हम हैं राम के, हरि बिन कुछ न सुहावै । श्रविण कह गए अजहु न आए, जिवड़ो अति उकलावै । तुम दरसण की आस रमइया, निस दिन चितवत जावै ॥
[ मो० शब्दा० पृ० सं० १२-१३ ]
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२७०
मीराँबाई
और भी, प्रभु जी थे कहाँ गया नेहड़ी लगाय ॥ टेक ॥
छोड़ गया विस्वास सँगाती, प्रेम की बाती बराय ॥ नीदड़ी नहिं आवै सारी रात, किस विश्व होइ परभात ॥
अथवा
प्रीतड़ी और दुखड़ा, ओलूड़ी और जिबड़ो, रमइया और सँगाती, नेहड़ी और नींदड़ी इत्यादि शब्दों में कितनी स्वाभाविक रमणीयता है । श्रनगढ़ और बीहड़ चट्टानों पर उछलती हुई जल की धारा जिस प्रकार मधुर संगीत उत्पन्न करती है, मीरों की स्वाभाविक भाव-धारा भी इन अनगढ़ और स्वाभाविक शब्दों में उसी प्रकार का संगीत उत्पन्न करती है । यह स्वच्छंद संगीत-धारा केवल मीरों के ही पदों में मिल सकती है जो यमक और अनुप्रास के श्राडम्बर से उत्पन्न हुई संगीत से कम मधुर नहीं है । यह सत्य है कि
ललित - लवंग लता - परिशीलन कोमल मलय समीरे । मधुकर-निकर-करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे ।
की कोमल कांत-पदावली अत्यंत मधुर है; परंतु मीराँबाई की :
राम मिलण रो घणो उमावो, नित उठ जोऊँ बाटड़ियाँ । दरस बिना मोहिं कुछ न सुहावै, जक न पड़त है आँखड़ियाँ । तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी विरह की पाशड़ियाँ ।
तो बेगि दया करि साहब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ । नैण दुखी दरसण कँ तरसें, नाभि न बैठे साँसड़ियाँ । राति दिवस यह आरति मेरे; कब हरि राखै पासड़ियाँ । लगी लगन छूट की नाहीं, अब क्यूँ कीजै टड़ियाँ | मीराँ के प्रभु कबर मिलोगे, पूरौ मन की आसड़ियाँ ।
[ मी० पदा० पद सं० १०८ ]
स्वच्छंद वेग से बहने वाली पदावली भी सच्चे रसिकों के लिए कम मधुर और आकर्षक नहीं है ।
मीरों की भाषा में अलंकरण नहीं, सजावट नहीं, वरन् एक स्वच्छंद
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१७१
आलोचना खंड आवेग है । भाव की स्वच्छंदता के साथ स्वाभाविकता, परिष्कार के साथ अनलंकरण मीरों की भाषा की विशेषता है।
छंद-मीराँ के पद पिंगल के नियमों को दृष्टि में रखकर नहीं लिखे गए थे। उन पदों की गति और संगीत में मीराँ के सरल और संदर भावों का स्वाभाविक संगीत मिलता है, जिसका कोई नियम नहों। भावों के अनुरूप ही छंद की गति बदलती रहती है । देखिए :
करणों सुणि स्याम मेरी, मैं तो होइ रही चेरी तेरी। दरसण कारण भई बावरी विरह विथा तन घेरी। तेरे कारण जोगण हूँगी दूंगी नग्र बिच फेरी !
कुंज सब हेरी हेरी ॥ अंग भभूत गले म्रिग छाला, यो तन भसम भरूँरी । अजहुँ न मिल्या राम अबिनासी, बन बन बीच फिरूँरी।
रोऊँ नित हेरी हेरी ॥ [ मी० पदा० पद सं० ९४ ] इसका पहला चरण १३ मात्रा का है, दूसरा १८ मात्रा का, तीसरा और चौथा १६+१२ मात्रा का और पाँचवाँ १६मात्रा का है । इस प्रकार स्वच्छंद भाव से छंदों की गति बदलती रहती है। भाषा की भाँति मीराँ के छंद भी स्वच्छंद हैं।
कला-मीरों के पद नायिका भेद तथा अन्य साहित्यिक परम्पराओं से ही मुक्त नहीं हैं, उनमें ध्वनि और व्यंजना, रीति और वक्रोक्ति, गुण और अलंकार की काव्य परम्परा का भी निर्वाह नहीं है। यों तो कुछ पदों में रूपक, । रूपक ( सुधन जल सींचि सीचि प्रेम बेलि वोई ।
अब तो बेल फैल गई प्रांणद फल होई। भौसागर अति जोर कहिए, अनंत ॐडो धार : राम नाम का बांध बेड़ा, उतर परली पार ।। ज्ञान चोसर मन्डी चोहटे, सरत पासा मार। या दुनियां में रची बाजी, जील भाव हार ।।
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१७२
मोरांचाई
उपमा और उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की झलक अवश्य मिल जाएगी और प्रसाद गुण तो मीराँ की कविता का प्राण ही है, परंतु ये सभी विशेषताएँ सुन्दर काव्यों में साधारण रूप से पाए जाते हैं, कला के रूप में मीरों में इनका लेश मात्र भी नहीं है । और ये जो थोड़े अलंकार मिल भी जाते हैं वे प्रायः अपवाद-स्वरूप ही हैं, क्योंकि इनकी संख्या नगण्य है । सच तो यह है कि जहाँ हृदय की अत्यंत मार्मिक वेदनाओं और गूढ़ भावों को खोल कर रखना पड़ता है, वहाँ गुण और अलंकार, ध्वनि और वक्रोक्ति आदि काव्य-कला की परम्पराओं की कोई उपयोगिता ही नहीं, कोई सार्थकता ही नहीं; वहाँ तो कवितासुंदरी अपने सरल स्वाभाविक वेश में ही अत्यंत आकर्षक जान पड़ती है।
भारतवर्ष में बहुत प्राचीन काल से ही काव्य में कला की प्रधानता स्वीकार की गई है । इसी कारण प्रायः सभी कवियों में कला का गहरा रंग पाया जाता है। परंतु मीराँ की कविता में इसका अपवाद मिलता है। अंधे कवि सूरदास ने विरहिणी राधिका के अंगों की श्रीहीनता दिखलाने के लिए काव्य-परम्परा का सहारा लेकर लिखा है :
तब ते इन सबहिन सचु पायो । जब ते हरि संदेस तिहारौ सुनत ताँवरो आयो । फूले ब्याल दुरे ते प्रगटे पवन पेट भरि खायो। ऊँचे बैठि विहंग सभा बिच, कोकिल मंगल गायो । निकसि कंदरा ते केहरिहू माथे पूँछ हिलायो ।
बन गृह तें गजराज निकसि कै अँग अँग गर्व जनायो । १उपमा-(श्रा नातो नाम को मोसू तनक न तोड़ेयो जाइ।
पाना न्य पीली पडी रे लोग को पिंड रोग। (ब) प्यारे दरसण दोयो आय, तुम बिन रह्यो न जाय ।।
जल बिन कैवल, चंद विन रजनी, ऐसे तुम देख्यां बिन सजनी। २ उत्पेक्षा जबसे मोहिं नंदनंदन दृष्टि पड्यो माई।
तबसे परलोक लोक, कळू न सुहाई।। कुंडल की झलक अलक, कपोलन पर छाई। मनों मीन सरवर तजि, मकर मिलन आई।
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बालोचना खंड
और जानकी के विरह में राम के मुख से तुलसीदास ने भी इसी प्रकार की कला की करामात प्रकट किया है जब कि राम कहते हैं :
कुंदकली, दाडिम, दामिनी, कमल, सरद ससि, अहि भामिनी । श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं, नेकु न संक सकुच मन माहीं।
सुनु जानकी तोहि बिनु अाजू, हरषे सकल पाइ जनु रानू ।। इस 'रूपकातिशयोक्ति, अलंकार का अानंद सहृदय चाहे जितना पा लें परन्तु राधिका तथा राम के विरह की अभिव्यक्ति इसमें नहीं के बराबर हुई है। मीरों को अपनी विरह व्यथा प्रकट करनी है, इसीलिए उन्हें श्रीफल, दाडिम
और दामिनी तथा व्याल, कोकिल और केहरि की प्रसन्नता की ओर देखने का अवकाश भी नहीं मिलता ; उन्हें तो अपनी ही विरह-व्यथा से छुट्टी नहीं मिलती । वे कितने सरल ढंग से अपनी विरह-व्यथा कह डालती हैं :
मैं विरहणि बैठी जागू, जगत सब सोवै री पाली । बिरहणि बैठी रंगमहल में मोतियन की लड़ पोचै ।। इक विरहणि हम ऐसी देखी अँसुवन की माला पोवै । तारा गिण गिण रैण बिहानी सुखकी घड़ी कब पावै ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर मिल के बिछुड़ न जावै । इस स्पष्ट सरलता में जो सौन्दर्य है वह अलंकार के श्राडम्बर में कहाँ । इसी प्रकार नंदनंदन से अधिक जड़ बादल की प्रोति देखकर रूप-रस की प्यासी गोपियाँ उपालम्भ-स्वरूप कह उठती हैं :
वा ये बदराऊ बरसन पाए । अपनी अवधि जानि नँदनंदन गरजि गगनधन लाए । सुनियत हैं परदेस बसत सखि सेवक सदा पराए । चातक कुल की पीर जानि के, तेउ तहाँ ते धाए ।
तृण किए हरित, हरषि बेली मिलि दादुर मृतक जिवाए ॥ परन्तु मीराँ का ध्यान तो अपने गिरधर नागर पर ही अटल है, उन्हें बादल और चंद्र, मोर और पपीहा आदि की ओर देखने की इच्छा भी नहीं, वे भला
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१७४
मीराँबाई अपने गिरधर के प्रेम की उनसे तुलना क्यों करने चलीं । वे तो सारे संसार को भूल कर एक उसी नागर की रट लगाए हुए हैं :
' म्हारो जनम मरन को साथी, थाँने नहिं विसरूँ दिन राती। तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती । ऊँची चढ़ चढ़ पंथ निहारूँ, रोय राय अंस्त्रियाँ राती।
xxx xxx पल पल तेरा रूप निहारूँ निरख निरख सुख पाती।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरि चरण चित राती॥ और इसीलिए प्रकृति के नियमानुसार वसंत ऋतु में मधुवन को विकसित और पल्लवित देखकर सूर की गोपियों की भाँति वे इस प्रकार कोसता नहीं कि:
मधुवन तुम कत रहत हरे।
विरह वियोग स्यामसुंदर के ठाड़े क्यो न जरे। उनके अंतर में तोश्याम-विरह के अतिरिक्त, और कोई भाव ही नहीं है। ईर्ष्या और देष मोह और मत्सर क्रोध और घृणा सब इस बिरह की बाढ़ में बह गया है:
राम मिलण के काज सखी, मेरे श्रारति उर में जागी री॥टेक॥ तलफत तलफत कल न परत है, विरह बाण उर लागीरी। निसदिन पंथ निहारू पीव को, पलक न पल भरि लागी री। पीव पीव मैं रहूँ रात दिन दूजी सुधि बुधि भागी री।
विरह भवंग मेरो डस्यो है कलेजो, लहरि हलाहल जागी री॥ मीरों के विरह की यह एकनिष्ठा कला का उपहास सा करती है; क्योंकि साधारण व्यथा और साधारण प्रेम तो कला की करामात से, वक्रोक्ति और व्यंजना से, उपमा और उत्प्रेक्षा से रमणीय,चमत्कारपूर्ण और आकर्षक बनाये जा सकते हैं, परंतु जहाँ प्रेम का अपार सागर है, जहाँ उमड़ती हुई वेदना की एक बाढ़ है, वहाँ कला और कौशल की पहुँच भी नहीं हो पाती । जहाँ अंतरतम को पाड़ा और आनंद की अनुभूति की अभिव्यक्ति करनी पड़ती है, वहाँ रस, अर अलकार ध्वनि और व्यंजना,रीति और वक्रोक्ति आदि सबका अतिक्रमण कर सरल और स्पष्टतम शब्दों का ही सहारा लेना पड़ता है । मीनू
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आलोचना खंड
ने अपनी उसी अंतरतम की व्यथा का सरलतम और स्पष्टतम शब्दों में अमिव्यक्ति की । यह कला से अतीत और काव्य-परम्परा से स्वच्छंद महत् गीतिकान्य को रचना मीरों की अपनी विशेषता है।
मीरों के पदों में सबसे अद्भुत और अपूर्व कौशल यही है कि उनकी समस्त रचना कला के आडम्बर से रहित है । जैसा कि गुजराती के प्रसिद्ध लेखक श्री कन्हैयालाल मुंशी ने लिखा है, कलाविहीनता ही मीरों की सबसे बड़ी कला है। वक्रोक्ति जीवितकार ने कवियों की रुचि और प्रवृत्ति-भेद के अनुसार तीन मार्गों की कल्पना की है। कुछ कवि सौकुमार्य प्रवृत्ति के होते हैं
और उनका मार्ग सुकुमार मार्ग' कहा गया है; कुछ कवि वैचित्र्य से रूचि रखते हैं और विचित्र मार्ग के पथिक है; कुछ इन दोनों से मध्यम रुचि के होते हैं और अपनी कविता में इन दोनों का समन्वय करते हैं । हिन्दी-साहित्य के अधिकांश कवि विचित्र मार्ग के पथिक हैं। रीतिकालीन साहित्य में वक्रोक्ति और वैचित्र्य का ही प्राधान्य है। भक्तिकाल के अधिकांश कवियों ने मध्यम मार्ग का अवलम्बन किया है । सुकुमार मार्ग के पथिक कवि हिन्दी में बहुत ही कम हैं और इन कवियों में मीराँबाई सर्वाग्रणी हैं।
१ सुकुमार मार्ग को रचनाओं में कवि कौशल आहार्य ( कृत्रिम ) नहीं होता वरन स्वाभाविक होता है। उनमें स्वभावोक्ति को प्रधानता दी जाती है और जो अन्य अलंकार
आते हैं वे पृथक् प्रयल के परिणाम न होकर बिना प्रयास ही आ जाते हैं और अत्यंत स्वाभाविक होते हैं। इन रचनाओं में रस का प्रधान्य रहता है, रस-ध्वनि अधिक पाए जाते हैं तथा माधुर्य, प्रसाद; लावण्य (शब्दों का सुंदर चयन) और आभिजात्य (smoothness) आदि गुणों की विशेषता होती है।
२. विचित्र मार्ग में वक्रोक्ति और वैचित्र्य का प्राधान्य होता है; कृत्रिमता और प्रयास अधिक होता है । सभी अलंकार लाने का प्रयल और पृथक् प्रयास पाया जाता है। इसमें अलंकार का प्राधान्य रहता है और अलंकार-ध्वनि भधिक पाए जाते हैं। इसमें माधुर्य, अशिथिल वाक्य विन्यास, प्रसाद, दीर्घ और लघु स्वरों का सुंदर क्रम और सामंजस्य तथा भोज होता है।
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उपसंहार
हिन्दी के श्रेष्ठ कवियों में मीराँबाई का स्थान बहुत ऊँचा है, परंतु हमारे कितने ही लब्धप्रतिष्ठ समालोचक मीरों को कवि मानने को तैयार नहीं, बे तो उन्हें केवल एक प्रसिद्ध भक्त मात्र स्वीकार करते हैं । 'मीरा की प्रेम साधना' नामक आलोचना ग्रंथ के रचयिता महोदय भी मीराँ को कवि नहीं मानते क्योंकि एक स्थान पर वे लिखते हैं " मीरा न कबीर की भाँति ज्ञानी ही थी, न जायसी की तरह कवि ही । वह एक मात्र प्रेम की पुजारिन थी ।" १ जो कबीर को ज्ञानी और जायसी को कवि समझते हैं उनके लिए तो मीराँबाई सचमुच ही न तो ज्ञानी है न कवि, क्योंकि उन्होंने न तो कबीर की भाँति अटपटी बानी' कहीं और न जायसी की भाँति असम्भव अतिशयोक्तियों की भरमार की । मीराँ ज्ञानी नहीं थीं, इसे मानने में किसी को विशेष प्रापत्ति नहीं होगी, परंतु कवि तो मीरों के समान हिन्दी में बहुत ही कम हुए हैं। यदि वाग्विदग्aता और उक्ति वैचित्र्य ही काव्य का मानदंड है तो जायसी अवश्य कवि हैं और मीराँ जायसी की तरह कवि नहीं; परन्तु कविता इससे कहीं महत् और ऊँची वस्तु है । जो कविता में कला की खोज करते हैं, जो अलंकारों और वक्रोक्तियों को ही कविता मानते हैं, उन्हें मीरों के पदों से निराशा ही होगी; परंतु जो कविता को कला से परे, अलंकारों के आडम्बर से प्रतीत, हृदय की स्वाभाविक और सरस अनुभूतियों को सरलतम और स्पष्टतम अभिव्यंजना के रूप में समझते हैं, उन्हें मीरों के पदों में उच्चतम कोटि की कविता के दर्शन होंगे। मीरों के पदों में जो अद्भुत और पूर्व कला उनकी कलाविहीनता है उसे हमारे विज्ञ समालोचकों ने अत्यंत तुच्छ समझ रक्खा है । कला की अभ्यस्त आँखों को कलाविहीनता का स्वाभाविक सौन्दर्य जैसे प्राकृष्ट नहीं कर पाता; उसी प्रकार काव्य-कला की परम्परा के
१. मीरा की प्रेम साधना - प्रथम संस्करण पृ० सं० ८३ ।
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आलोचना खंड
सहृदय पंडितों को मीराँ की कलाविहीनता नहीं जंची। इसी कारण मीरा का हिन्दी साहित्य में जो उचित स्थान है वह आज भी उन्हें नहीं मिला।
विरह-निवेदन में मीरों के पद अद्वितीय है । 'दरद दिवाणी' मीराँ ने विरह की जैसी सच्ची और उत्कृष्ट व्यंजना की है, वैसी व्यंजना अन्य किसी भी कवि की वाणी में नहीं हुई । मीराँ ने अपनी विरहाग्नि की ज्वाला का प्रतिविम्ब अपने चारों ओर फैले विस्तृत प्रकृति में नहीं देखा; चंद्र की शीतल किरणों ने, शीतल कुंजों में मंद-मंद बहने वाली सुगंधित वायु ने, मुसुकाते हुए कुसुमों ने उनकी विरहानल को उद्दीस नहीं किया; सावन की राते उन्हें बावन के डग के समान नहीं जान पड़ी, पलास के 'निरम अंगार' तुल्य डालों पर चढ़कर जल मरने की इच्छा उन्हें कभी नहीं हुई; सारांश यह कि मीरों को अपनी विरह-व्यथा सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त होकर नहीं दिखाई पड़ी। इसका कारण यह नहीं था कि मीरों का विरह अत्यंत साधारण कोटि का था, वरन् इसका एक मात्र कारण यही मा कि, वह अत्यन्त गम्भीर था। जिस विरह में बाह्य-वेदना ही अधिक होती है अंतवेदना कम, उसी में विरही प्रकृति को, सारे संसार को, ज्वालामय और भस्म होता हुआ देखता है, और स्वयं भी नित्य जलता रहता है । उसी विरह के कारण जायसी की विरहिणी चीत्कार कर उठती है:
लागिउँ जरे, जरै जस भारू, फिरि फिरि भूजेसि, तजिउँ न बारू । सरवर हिया घटत निति जाई, टूक टूक होइ के बिहराई । बिहरत हिया, करहु पिय टेका, दीठि वगरा मेरबहु एका ॥ , उसी विरह में पद्माकर की विरहिणी गोपियाँ भगवान कृष्ण को संदेश भेजती हैं : ऊधो यह सूधो सो संदेसो कहि दीजो जाइ,
ब्रज में हमारे ह्याँ न फूले बन केंज हैं। किंसुक, गुलाब, कचनार औ अनारन के,
डारन पै डोलत अँगारन के पंज हैं । और उसी विरह में सूरदास की विरहिणी गोपियाँ बिलखती हैं :
मी० १२
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१७८
मीराँबाई बिनु गुपाल वैरिनि भई कंजै।
तब वे लता लगत अति सीतल, अब भई विषम ज्याल की पंजै। परन्तु जहाँ विरह बहिर्मुखी न होकर अंतर्मुखी होता है, जहाँ वह अतल गम्भीर महासागर की भाँति ऊपर से शांत किंतु भीतर ही भीतर श्रान्दोलित होता रहता है; वहाँ बाह्य वेदना नहीं होती अतर्वेदना भीतर ही भीतर अपना काम करती है; वहाँ शरीर भाड़ के समान नहीं जलता, कंजे ज्वाला की पंजे नहीं बनतीं, किंशुक, गुलाब, कचनार की डारों पर अंगारों के पंज नहीं डोलते; वहाँ तो मीराँ की भाँति
अंगि अगि व्याकुल भई सुख पिय पिय बानी हो ।
अंतर वेदन विरह की वह पीर न जानी हो। का अनुभव होता है और विरहिणी केवल इतना ही कहती है कि :
प्यारे दरसण दीजो प्राय, तुम बिन रह्यो न जाय । जब बिन कँवल, चंद बिन रजनी, ऐसे तुम देख्याँ बिन सजनी, व्याकुल व्याकुल फिरूं रैण दिन, बिरह कलेजो खाय। दिवस न भूख नींद नहिं रैणा, मुख सूकथत न आवै बैणा;
कहा कहूँ कुछ कहत न आवै, मिलकर तपत बुझाय।। यह वेदना अनिर्वचनीय है। मीरों का विरह अंतर्मुखी था, बहिर्मुखी नहीं, इसी कारण उनका विरह निवेदन अन्य हिन्दी कवियों के साधारण विरह वर्णन से बहुत भिन्न है । सम्भवतः इसीलिये हिन्दी के कितने ही समालोचकों ने मीरों का विरह वर्णन पसंद नहीं किया । 'मीरा की प्रेम-साधना' के रचयिता की सम्मति है कि "हिन्दी साहित्य में विरह के सर्वोत्कृष्ट कवि जायसी हुए १ ।" इसका अर्थ यह हुआ कि जायसी का विरह-वर्णन सूरदास, विद्यापति
और मीराँ से भी उत्कृष्ट है। यहाँ भी ऐसा जान पड़ता है कि जायसी का वाग्विदग्बता और अतिशयोक्तिपूर्ण उक्तियों से प्रभावित होकर विज्ञ समालोचक ने ऐसी बात लिख डाली है, नहीं तो कहाँ मीरों और कहाँ जायसी ।
१ 'मीरा की प्रेम सायना' पृण २०७१
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अालोचना खंड
१७६ हिन्दी साहित्य के कवि-गायकों में मीरों का स्थान उच्चतम है । गीति. काव्य की रचना करने वालों में हिन्दी के तीन कवि-विद्यापति, सूर और मीरों -बहुत सफल हुए हैं। इनमें सूरदास में अद्भुत व्यापकता है तो मीराँबाई में अपूर्व गम्भीरता; विद्यापति के पदों में अनुपम माधुर्य भरा है तो मीरों के पद सहज स्पष्टता और स्वच्छंदता में अद्वितीय हैं । मीरों की रचनाएँ परिमाण में अधिक नहीं हैं, परंतु जो थोड़ी रचनाएँ प्राप्त हैं, गेयता और गम्भीरता, मरलता और स्पष्टता में वे अतुलनीय हैं। ___ मीराँ के 'स्फटिक तुल्य स्वच्छ हृदय पर भक्ति-युग की सभी विशुद्ध भावनात्रों का प्रतिविम्ब पड़ा था। कबीर और रैदास की निर्गुण ज्ञान भक्ति 'से लेकर चैतन्य और चंडीदास के राधा-भाय तक की सभी विशुद्ध भक्ति भावनाएँ मीराँ की कविता में एक साथ ही मिल जाती हैं। साथ ही कबीर का अटपटापन, तुलसीदास की साम्प्रदायिक संकीर्णता और जयदेव तथा विद्यापति की परम्परागत अश्लील व्यंजनाओं का उसमें लेश भी नहीं है । यह सत्य है कि मीरों में वह पांडित्य नहीं, वह विद्या-बुद्धि नहीं, वह साहित्यिक शैली नहीं, परम्परा से प्राप्त वह कला की भावना नहीं जो सूरदास, तुलसीदास और विद्यापति की कविताओं में मिलती है, परंतु जहाँ तक विशुद्ध कवि हृदय और नैसर्गिक प्रतिभा का प्रश्न है, वहाँ मीराँ इन कवियों से किसी प्रकार हलकी नहीं ठहरती । मीरों का साहित्यिक मूल्य सूर और तुलसी के समकक्ष कदापि नहीं है क्योंकि उन्होंने सूरसागर की भाँति अथाह और असीम रस सागर का निर्माण नहीं किया और न 'रामचरित मानस' की भाँति निष्कलुष पवित्र मानस की रचना की, परंतु गिरिशृंग से उतरने वाली निर्मल निरिणी के स्वच्छंद प्रवाह और कलकल शब्द में यदि कोई सौन्दर्य है तो मीरों के पदों में हमें वही सौन्दर्य मिलता है।
समाप्त
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Achar
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