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मीराबाई
गोस्वामी के सम्बन्ध में जो जनश्रति प्रसिद्ध है, वह सम्भव है वास्तविक सत्य न भी हो, परन्तु रूपक के रूप में उसकी सत्यता असंदिग्ध है। सूर आदि कवियों ने भ्रमरगीत के द्वारा ज्ञान और योग से भक्ति की जो श्रेष्ठता प्रमाणित करने का प्रयास किया, उसे साधारण जनता ने योगी और महाज्ञानी जीव गोस्वामी को भक्त मांग के सामने निरुत्तर दिखाकर इस जनश्रति द्वारा अयंत सरल रीति से प्रमाणित कर दिया। मी भक्ति-भावना की प्रतीक है, उनका जीवन ही भक्ति-साधना है और उनकी कविता में उसकी चरम सिद्ध है।
: मीराँबाई का इतिहास और जीवन-वृत्त हिन्दी के अन्य महाकवियों की भाँति एकदम अनिश्चित नहीं है । यह सच है कि हम निश्चित रूप से यह नहीं कह सकते कि मीराबाई किस संवत् में अवतरित हुई, अथवा कब
और कैसे उन्होंने यह नश्वर देह छोड़ी; पन्तु यही तो सब कुछ जानना नहीं है। जो जानना आवश्यक है वह तो यह है कि वे किस युग, किस वंश, किस वातावरण में अवतरित हुई उनकी शिक्षा और दीक्षा किस प्रकार की हुई; उनके जीवन में कितने संघर्ष किस रूप में उपस्थित हुए और उन संघर्षों को उन्होंने किस रूप में कितनी सफलता के साथ मेला । मीराँ के सम्बन्ध में इन सभी आवश्यक बातों का निश्चित ज्ञान प्राप्त करना कुछ कठिन नहीं है। दैवयोग से वे राजपूताने के एक प्रसिद्ध राजकुल में उत्पन्न हुई और एक प्रतिप्रसिद्ध राजकुल में उनका विवाह हुआ। राजस्थान
१-कहा जाता है कि मीरा वृन्दावन में भक्त शिरोमणि और गोस्वामी के दर्शन के लिए गई थीं। गोस्वामी जी सच्चे साधु थे और सि.यों की छाया तक से भागते थे, इसीलिए भीतर से ही कहला भेजा कि हम सियों से नहीं मिलते । इसपर मीराँबाई ने उत्तर दिया कि मैं तो समझती थी वृन्दावन में श्रीकृष्ण जी ही एक मात्र पुरुष हैं परंतु यहाँ आकर जान पड़ा कि उनका एक और प्रतिद्वंदी पैदा हो गया है। मीरा का ऐसा माधुर्य-भाव से युक्त प्रेमपूण उत्तर सुनकर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बड़े ही प्रेम से मोरांबाई से मिले ।
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