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मीराँबाई आँख न म दूं, कान न सैंधू, काया कष्ट न धारूँ । खुले नैन मैं हँस हँस देखू , सुन्दर रूप निहारूँ ॥ कहूँ सो नाम सुनूँ सो सुमिरन, जो कछु करूँ सो पूजा । गृह उद्यान एक सम देखू , भाव मिटाऊँ दूजा ॥ जह जहँ जाऊँ सोइ परिकरमा, जो कछु करूँ सो सेवा ।
जब सोऊँ तब करूँ दंडवत, पू जू और न देवा ॥इत्यादि।। परंतु मीरों को योग से, बाह्य प्राचारों से, किसी से भी द्वाष नहीं, किसी से घृणा नहीं । जिससे लगन लगी है उससे मिलने के लिए वे सब कुछ करने को तैयार हैं। जिससे उनका मन रंग गया है, उससे मिलने के लिये यदि कपड़ा रंगाना पड़े, पत्थर पूजना पड़े, श्रासन मारना पड़े यहाँ तक कि काशी में अारा से धड़ भी चिरवाना पड़े तो भी कोई आपत्ति नहीं । इसीलिए तो वे कहती हैं :
बाल्हा मैं बैरागण हूँगी हो।
जी जी भेष म्हारो साहब रीझे सोइ सोइ भेष धरूँगी हो । और अपने गिरधर नागर को संबोधित करके वे कहती हैं :
ऐसी लगन लगाय कहाँ तू जासी। तुम देख्याँ बिन कल न पड़त है, तलफ तलफ जिय जासी ॥ तेरे खातर जोगणं हूँगी , करवत लूँ गी काली ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल को दासी ।। मीराँ ने अपनी भक्ति में इस सीमा तक आत्मसमर्पण कर दिया था कि किसी मत अशवा मार्ग से उन्हें कोई राग थान द्वष। अपनी सिद्धि प्राप्ति के लिये वे कोई भ ना स्वीकार करने को तैयार थो-जान, योग और कर्मकांड किसी के प्रति उपेक्षा का भाव उनमें न था । अाखिर ये सभी मार्ग तो उन्हीं के पास पहुँचने के लिये हैं फिर किसी के प्रति घृणा क्यों ? जिस मार्ग से प्रियतम के देश तक पहुंचने को सुविधा हो मोरों उमो को स्वोकार करने को प्रस्तुत है। परकीया साधना से लेकर योग साधना तक सब साधना उन्हें स्वीकार है । वे लिखती हैं :
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