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आलोचना खंड
को चोट-सी लग गई है उसे ज्ञान से श्रीष्ट किस प्रकार कहा जा सकता है। इसीलिए मीराँ ने केवल अपने चोट का, अपनी व्यथा का ही वर्णन किया; ज्ञान से उसकी तुलना न की । इतना ही नहीं उस अनंत विरह-व्यथा से व्याकुल होकर कभी तो ये प्रेम करने की ही मनाही करना चाहती हैं । अपने गिरधर नागर से उपालम्भ-स्वरूप उन्होंने कहा भी है :
जो मैं ऐसा जाणती रे, प्रीत कियाँ दुख होइ ।
नगर ढिढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोह॥ सूर और तुलसी ने भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित किया तो कबीर ने भक्ति को योग और बाह्य आचारों से श्रेष्ठ बतलाया । योगियों का उपहास करते हुए तो कहते हैं :
मन न रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा। श्रासन मार मंदिर में बैठे, ब्रह्म छाडि पूजन लागे पथरा ॥ कनवा फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौलो, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा। जंगल' जाय जोगी धुनिया रमौले, काम जराय जोगी होइ गैले हिजरा। मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ा रंगौले, गीता बाँच के होइ गैले लबरा।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरबजवा बाँधल जैबे पकड़ा । यह डाँट-फटकार केवल फटकार ही नहीं है, इसके पीछे 'मन रंगाने के प्रति जो उत्कट विश्वास और दृढ़ श्रास्था है; उसकी उपादेयता और श्रेष्ठता में जो अटल विश्वास है वही कबीर की कविता की जान है । कबीर भक्ति को सभी मागों में सुलभ और श्रेष्ठ मानते हैं और उसीका उपदेश करते हैं, परंतु उनका ढंग न सूर जैसा कवित्व पूर्ण है न तुलसीदास जैसा पौराणिक, वह खंडन-मंडन की प्रकृति से पूर्ण एक सुधारक जैसा ढंग है, जिसमें व्यंग्य और उपहास की मात्रा कुछ अावश्यकता से अधिक हो गई है। फिर भी उनकी उक्तियों में बल है और है आत्मविश्वास । संतों की समाधि से श्रेष्ठ अपनी भक्ति की सहज समाधि का वे किस निन्द्वता से वर्णन करते हैं :
संतों, सहज समाधि भली। साँइ ते मिलन भयो 'जा दिन ते, सुरत न अंत चली ॥
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