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आलोचना खंड
१०३
चला वाही देस प्रीतम पावाँ, चलाँ वाही देस । कहो कुसुम्बी सारी रँगावाँ, कहो तो भगवा भेस ॥ कहोतो मोतियन माँग भरावाँ, कहो छिटकावाँ केस ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, सुनियो विरद नरेस ॥ यह जो कर्म-कांड और हठ-योग, ज्ञान और भक्ति मार्गों की संकीर्णताओं को दर हटाकर मीराँ केवल अपने गिरधर नागर के प्रति आसक्त हैं, यह उन्हीं जैसे उदार कवि हृदय की विशेषता है । जिस युग में भक्तगण ज्ञान, योग और कर्म-कांड की निन्दा कर अपने मार्ग-विशेष की श्रेष्ठता प्रमाणित करने में ही अपने कवि-कर्म की सफलता समझते थे, उसी युग में समस्त संकीर्णताओं का उल्लंघन कर विशुद्ध भक्ति-भावना का श्रादर्श उपस्थित करना मीराँवाई के ही बाँट में पड़ा था।
भक्ति काव्य और साहित्य की सब से बड़ी विशेषता यह थी कि वह जीवन से बहुत निकट था । यों तो जीवन और साहित्य का इतना घनिष्ट सम्बंध है कि साहित्य का जीवन के निकट होना उसका आवश्यक गुण है, कोई विशेष गुण नहीं, परंतु मध्यकालीन भारतीय साहित्य के लिये यह सामान्य नहीं विशेष गुण ही मानना चाहिए । जहाँ पठन-पाठन और शिक्षा का अधिकार कुछ विशेष वर्गों के लिये ही सुरक्षित था, जहाँ श्राचार और व्यवहार में, जाति-जाति में, वर्ण-वर्ण में, मनुष्य-मनुष्य में भेद-भाव की स्पष्ट रेखाएँ खिंची हुई थीं वहाँ साहित्य का जीवन के साथ निकट सम्बंध हो ही कैसे सकता था। फिर जब से साहित्य-शास्त्र ने साहित्य और काव्य को प्रभावित करना प्रारम्भ किया और जब से साहिल्य-शास्त्र पर भी व्याकरण, दर्शन और न्याय शास्त्र की छाया पड़ने लगी तबसे केवल सहृदय ही काव्य के अधिकारी माने जाने लगे, शेष व्यक्तियों का काव्य में प्रबेश अनधिकार चेष्टा समझी गई । इसका फल यह हुआ कि साहित्य जीवन से निरंतर दूर ही होता गया। ऐसे वातावरण में भक्ति साहित्य का जीवन के अत्यंत
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