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- मीराँबाई अाज तक चली आ रही हैं और जिन्हें साहित्य में जनश्रु ति की संज्ञा प्रदान की गई है।
इन जनश्रुतियों के पीछे तीन-चार प्रमुख भावनाएं काम करती दिखाई पड़ती हैं । पहली भावना नियति के अन्यायों के प्रति कवि हृदय का असंतोष है। यह वही असंतोष है जिससे प्रेरित होकर कवियों ने “नाम चतुरानन पै चूकते चले गये" कह कर विधाता तक की खबर ली है। नियति सर्वदा से महापुरुषों के प्रति अन्याय करती श्राई है । जिन गोस्वामी तुलसीदास ने 'कलिकुटिल जीव निस्तार हित' ऐसे रामचरित-मानस का निर्माण किया जिसके एक अक्षर के उच्चारण मात्र से करोड़ों पापों का प्रक्षालन हो जाता है, उन्होंने कहा जाता है, स्वयं किसी पीड़ा से परितप्तं हो बड़े कष्ट से प्राण छोड़ा था। उस, महान् कवि और आत्मा के प्रति नियति का यह कितना कठोर उपहास है। कवि-हृदय नियति के ऐसे अन्यायों को सहन नहीं कर पाता और उन पर परदा डाल देने के लिए ऐसी कथाओं की सृष्टि करता है जो भौतिक सत्य न होने पर भी काव्य-न्याय' की दृष्टि से परम सत्य जान पड़ती हैं । मीराँ की मृत्यु के सम्बंध में भी एक इसी प्रकार की कथा प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि मीराँ को मनाकर चित्तौड़ लौटा लाने के लिये मेवाड़ के महाराणा ने कुछ ब्राह्मण द्वारका भेजे थे। वे विनगण् मीराँ से मेवाड़ लौट चलने का आग्रह करने लगे
और द्वार पर धरना देकर बैठ गए । मीरौं अपने इष्टदेव श्री रणछोर जी से ग्राज्ञा लेने मंदिर में गई और वहीं मूर्ति के सामने नाचती-गाती२ उमी में
१ यह शब्द अंग्रेजी के पोईटिक जस्टिस का अनुवाद है । हमारे प्राचीन नाट्य-शास्त्रों में जो सुखांत नाटक लिखने की प्रथा है उसके मूल में भी काव्य-न्याय का सिद्धांत दिखाई पड़ता है।
२ जिन पदों को गाती हुई मीराँ रणछोर जी की मूर्ति में समा गई थीं वे पद इस प्रकार हैं:
हरि तुम हरो जन की भीर ॥ टेक ।। द्रोपदी की लाज राख्यो तुम बढ़ायो चीर ।।१।। भक्त कारन रूप नरहरि धरयो श्राप सरीर ॥ २ ॥ हिरनकस्यप मारि लीन्हो धरयो नाहिन धीर ।। ३ ।।
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