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जीवनी खड
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विलीन हो गई । वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करने पर यह एक असम्भव घटना प्रतीत होती है । किसी व्यक्ति का अचानक एक पत्थर की मूर्ति में विलीन होना तो कभी देखा नहीं गया परन्तु जब हम मीरों के सम्पूर्ण जीवन पर विचार करते हैं, उनके माधुर्य भाव की तीव्रता का अनुभव करते हैं, उनके उत्कट विश्वास को ध्यान में लाते हैं, तब अपनी कवित्वपूर्ण प्रतिभा की स्फूर्ति में नाचतो-गाती हुई मोरों का अपने इष्टदेव की मूर्ति में समा जाना ही परम सत्य जान पड़ता है । कम से कम काव्य की दृष्टि से इससे बढ़कर दूसरा कोई सत्य नहीं है। __महाराष्ट्र के प्रसिद्ध वैष्णव कवि महीपति ने अपने काव्य-ग्रंथ 'भक्तिविजय' ( रचना काल सं० १८१६-२०) में मीराँ की जो कथा लिखी है वह
भौतिक जीवन के सत्य के प्रति एक भारी असंतोष की भावना से पूर्ण है। जिनका अविचल निश्चय था कि :
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥ और जिन्होंने स्वष्ट शब्दों में लिखा था कि
कानुडे न जाणी मोरी प्रीत, वाई हुँ तो बाल कुवारी रे। उन 'बाल कुवारी' मीराँ का उदयपुर के राजकुमार भोजराज के साथ विवाह कैसा ? ऐतिहासिक सत्य होने पर भी यह काव्य का सत्य नहीं हो सकता।
बूड़ते गज रज राख्यो कियो बाहर नीर ॥ ४ ॥ दास मोरा लाल गिरधर दुख जहाँ तह पीर ॥ ५ ॥
साजन सुध ज्यों जाने त्यों लीजे हो॥ तुम बिन मेरे और न कोई कृपा रावरी कीजे हो । दिवस न भूख रैन नहिं निद्रा यों तने पल पल छीजे हो।
मीरा कह पनु गिरधर नागर मिलि बिछुरन नहिं कीजे हो। नीरा जिस मूर्ति में समा गई थी वह मूर्ति अब डाकोर इलाके गुजरात में है और उनका चीर अब तक भी भगवत भक्तों को रणछोर जी के बगल में निकला हुआ दिखाई देता है ।
[ मीरा बाई का जीवन चरित्र...नु० देवी प्रसाद रचित पष्ठ २७ ]
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