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मीराँबाई
इसीलिए तो कवि ने मीराँ को कुमारी ही रक्खा है। 'भक्ति-विजय' की कथा के अनुसार मीराँ मेवाड़ के एक परम वैष्णव राणा की कन्या थी । जब कन्या केवल एक दिन की थी, राणा ने उसे भगवान् कृष्ण की मूर्ति के चरणों में डाल दिया । बारहवें दिन उस कन्या का मीराबाई नाम पड़ा। मीराँ ने बचपन में ही गिरधरलाल की मूति से विवाह कर लिया था । अपने लौकिक विवाह का वह सर्वदा विरोध करती रही । ईश्वरपरायण पिता ने उसका विरोध स्वीकार कर उसका विवाह नहीं किया। परन्तु लोक-निन्दा तो अपना कार्य करती ही रही। मीराँ के कौमार्य तथा साधु-संतों की निरंतर संगत से जनता में भारी असंतोष फैल गया था । अंत में लोक-मत से विवश होकर राणा ने मीरा का विवाह करने का निश्चय कर लिया, परन्तु मीराँ इसके लिए किसी प्रकार भी प्रस्तुत न हई । और कोई चारा न देख राणा ने रानी द्वारा विष का प्याला मीराँ के लिए भेजा । भगवान् पर अपनी भावनाओं को एकाग्र कर मारा अपनी माता के सामने ही हलाहल-पान कर गई । विष-पान का उस पर कोई भी प्रभाव न पड़ा, वरन् गिरधर लाल ( मूर्ति) का मुख विवर्ग हो गया । राणा को जब ज्ञात हुआ कि उन्होंने अपनी मूर्खता के कारण अपने इष्टदेव भगवान् को ही हलाहल-पान कराया तो उनके दुःख की सीमा न रही। अंत में मीरों के विनय से भगवान् फिर अपने श्यामल स्वरूप में परिणत हो गर, केवल मीराँ का गौरव चिह्न बनाए रखने के लिए याद भी गिरधरलाल की मूति के कंठ में एक विवर्ण-चिह्न मिलता है।
दूसरी ओर एक बंगाली लेखक ने मीरों को जो कथा 'भारतीय बिदुपी' में लिखी है, उसमें वे केवल भक्त ही नहीं, वरन् शकुंतला की भाँति प्रेम और सौन्दर्य की भव्य प्रतिमा भी है उनकी स्वर लहरी में श्रद्धत अाकर्षण है: उनका अातिथ्च अादर्श है; वे पुष्प के समान निदोष और सती नारियों के समान पति की आज्ञानुवर्तिनी हैं । सारांश यह कि व यादर्श ईश्वर भक्त
१ रामजी लाल शर्मा द्वारा मूल बंगला से अनुवादित । इस ग्रंथ में भारत की पसिद्ध विद्वान् और गुणी स्त्रियों का जीवन चरित्र वर्गिन है।
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