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जीवनी खंड
परन्तु प्रतिभा और संस्कार होने पर भी शिक्षा और दीक्षा की आवश्यकता पड़ती है इसे किसी प्रकार अस्वीकार नहीं किया जा सकता। परन्तु मीराँ को शिष्य रूप में प्राप्त करने का सौभाग्य किसे प्राप्त हुआ था, इसका अभी निश्चय नहीं हो सका है। कितने ही सम्प्रदायवाले इन्हें अपने सम्प्रदाय में दीक्षित प्रमाणित करने का प्रयत्न करते आरहे हैं और इस सम्बंध में अनेक जनश्रुतियाँ और पद भी प्रचलित हो गए हैं, परन्तु उनपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता । रैदास सम्प्रदायव लों ने मीरों के नाम से कितने ही पद लिख कर उन्हें रैदास की शिष्या प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है। बाबा वेणी माधव दास ने मीरा के पत्र द्वारा गोसाई तुलसीदास से दीक्षा लेने की कथा गढ़ी है और वल्लभ सम्प्रदायवालों ने उन्हें गुसाई विट्ठलनाथ से दीक्षित होना लिखा है । मेकालिफ ने इस आधार पर कि जिस समय मीराँ मारवाड़ और मेवाड़ में थीं, वहाँ रामानंदी साधुओं का बहुत अधिक जोर था, उनके रामानंदी सम्प्रदाय में दीक्षित होने की कल्पना की है और वियोगी हरि ने जीव गोस्वामी को मारों का दीक्षा गुरु प्रमाणित करते हुए लिखा है, "जीव गोस्वामी को इन्होंने ( मीराँबाई ने) अपना गुरु बनाया । इनके कुछ पदों से यह भी जान पड़ता है कि यह भक्त वर रैदास को चेली थीं। सम्भव है रैदास जी का बानी का प्रभाव इन पर पड़ा हो और उनको भी इन्होंने गुरु मान लिया हो, परन्तु सिद्ध गुरु श्री चैतन्यदेव के कृपापात्र जीव गास्मा ही थे।' साथ ही अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने चैतन्यदेव की प्रशसा में लिखा हुना मीराँबाई का एक पद भा उद्धत किया है जो 'राग कल्पद्रुम' प्रथम भाग पृ० ५५५ पर मिलता है । वह इस प्रकार है:
अब तो हरि नाम लौ लागी। सब जग को यह माखन चोरा नाम धरया वैरागी ॥ कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कहँ छोड़ा सब गोपी । मूंड़ मुड़ाइ' डोरि कटि बाँधी, माथे मोहन टोपी । मात जसोमति माखन कारन, बाँधै जाके पाँव । स्याम किसोर भयो नव गोरा, चैतन्य जाको नाँव ।।
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