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आलोचना खंड
सुनी हो मैं हरि श्रावन की श्रावाज । म्हेल चढ़े मग जोऊँ मोरी सजनी, कब श्रावै महाराज ।। दादर मोर पपया बोले, कोहल मधुरे साज । उमग्यो इन्द्र चहूँ दिसि बरसे, दामिणि छोड़ी लाज । धरती रूप नवा नवा धरिया, इंद्र मिलण के काज । मोरों के प्रभु हरि अविनासी बेग मिलो महाराज ||
[गीराबाई की पदावली पद सं० १४१ प ० ६९-७० ] नारी-सुलभ लज्जा से मीराँ की नारी प्रायः स्वयं अभिसार के लिए नहीं निकलती, परंतु उसके लिए उसके प्रियतम भी अभिसार के लिए नहीं निकलते । मोरों उनकी 'जनम जनम की दासी' हैं, दासी के लिए उनका अभिसार उचित भी नहीं है । मीराँ ने नारी को वास्तविक नारी के रूप में देखा और उसके प्रेम और भक्ति का जितना यथार्थ और सुन्दर चित्रण उन्होंने किया वैसा साहित्य में अन्यत्र कहीं दुलभ है।
मीरों के पदों में सहज और स्वच्छंद नारी-प्रकृति का प्रेम और विरह अपूर्व है । पुरुष और नारी के बीच जो एक पवित्र और मर्यादापूर्ण प्रेम का बंधन है, वही प्रेम का बंधन मीराँ ने अपने गिरधर नागर के साथ स्थापित किया । इस सरल नारी-हृदय के प्रेम और विरह में जो सहज पवित्रता है, जो सरल गम्भीरता है, जो मुग्धकर सौन्दर्य है, वह हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है। सरल-हृदया नारी को अपने प्रभु से मिलने की उत्कट इच्छा है, उनके विरह में वह अत्यन्त व्याकुल है, परंतु इस उत्कट अभिलाषा के रहते हुए भी वह सरला है, अनजान है, उसे पता नहीं कि कब और कैसे प्रियतम प्रभु से मिलना होता है । इसीलिए उसके साजन आकर चले भी जाते हैं और वह सोती ही रहती है:
मैं जाण्यो नहीं प्रभु को मिलण कैसे होहरी ॥ टेक ॥ श्राए मेरे सजना, फिरि गए अगना, मैं अभागण रही सोइरी॥ फारूँगी चीर करूँगल कंथा, रहूँगी वैरागण होइरी। चुरियाँ फोरूँ माँग बखेरूँ कजरी मैं डालँ धोइरी ।।
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