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मीराबाई
ब्रह्म जीवात्मा नारी के प्रेम के आकर्षण से अभिसार के लिए उसके द्वार पर श्रा पहुँचता है, तब भी नारी-सुलभ लज्जा से वह अपना प्रेम छिपा ले जाती है:
"जब मेरी शैया-घर का दीप बुझ गया, मैं प्रत्यूषकालीन पक्षियों के साथ उठ बैठी।
मैं अपने बिखरे अलकों पर एक नूतन माला डाले अपनी खुली खिड़की पर बैठ गई।
प्रभात के स्वर्णिम नीहारिका में नवयुवक यात्री राजमार्ग से पाया ।
उसके गले में मोतियों की माला थी और वाल सूर्य की किरणें उसके मुकुट पर पड़ रही थीं। वह मेरे द्वार पर आकर रुक गया और उत्कंठित स्वर में मुझसे पूछा, वह (प्रेमिका) कहाँ है ! ___ लज्जा के कारण मैं यह भी नहीं कह सकी कि वह मैं ही हूँ, यात्री, वह मैं ही हूँ।"
मोरों की नारी रवीन्द्रनाथ की नारी की भांति आधी स्वप्न नहीं है, वरन् वह सम्पूर्ण भौतिक नारी है; उसमें दुर्बलताएँ भी हैं और गुण भी। एक ओर तो वह नारीजनोचित भय से बादल देखकर ही डर जाती है :
.. बादल देख डरी हो स्याम मैं बादल देख डरी | दूसरी और उन्हीं बादलों के गर्जन में उसे अपने हरि के आने की आवाज सुनाई पड़ती है :
1. When the lamp went out by my bed I woke up with the early birds.
I sat at my open window with a fresh wreath on my loose hair.
The young traveller came along the road in the rosy mist of the morning.
A pearl chain was on his neck, and the sun's rays fell on his crown- He stopped before my door and asked me with an eager cry, "Where is she pa ____ For very shame I could not say, "She is I, young traveller, she is I"
Gardener
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