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आलोचना खह
११५
"नारी ! तुम केवल भगवान् की ही अद्भुत कृति नहीं हो, वरन् मानवों की भी अद्भुत कृति हो; वे निरंतर अपने अंतरतम से तुम्हें सौन्दर्य की विभूति से भूषित करते रहते हैं। ___कविगण स्वर्णिम कल्पना के धागों से तुम्हारे लिए एक जाल-सा बुनते रहते हैं; चित्रकार निरंतर तुम्हारे स्वरूप ( बाह्य सौन्दर्य ) को अमरत्व प्रदान करते रहते हैं।
तुम्हें विभूषित करने, अाच्छादित करने, तुम्हें अत्यधिक अतुलनीय बनाने के लिए सागर मुक्ता देते हैं, खान सुवर्ण और वसंतोद्यान अपने पुष्प प्रदान करते हैं।
मानव-हृदय की वासना ने तुम्हारे यौवन को सदैव ऐश्वर्य प्रदान किया है।
तुम अर्द्ध नारी हो और अर्द्ध स्वप्न ।१ नारी आधी तो पंच तत्वों की बनी भौतिक मानवी है और आधी स्वप्न इसीलिए इस नारी से अभिसार करने स्वयं भगवान् को पाना पड़ता है। कबीर तथा वैष्णव कवियों ने अमिसार का सारा कार्य-भार नारी पर ही रखा था, परंतु रवीन्द्रनाथ को यह बात सह्य नहीं हुई। जो ईश्वर तथा मानव दोनों की ही प्रिय सृष्टि है, उसे अपने नारीत्व की मर्यादा और लज्जा की तिलांजलि देकर अभिसार के लिए ले जाना उसका अपमान करना है। इसीलिए त्वयं भगवान् ही इस नारी से अभिसार के लिए निकलते हैं। इतना ही नहीं, जब पुरुष
__ 1.0 Woman, you are not merely the handiwork of God, but also of men; these are ever endowing you with beauty from their hearts.
Poets are weaving for you a web with threads of golden imagery: painters are giving your form ever new immortality
The sea gives its pearls, the mines their gold, the summer gardens their flowers, to deck you, to cover you, to make you more precious The desire of men's heart has shed its glory over your youth. You are one-half woman and one-half dream.(Gardener LIX)
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