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मीराबाई
चुका है और हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि उनमें अधिकांश पद मारों की रचनाएँ नहीं है, परंतु कुछ विशेष कारणों से मीरों के नाम से प्रचलित हो गई हैं । अन्य पदों के सम्बन्ध में भी हमें बहुत कुछ इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है । मीरों का प्रभाव क्षेत्र गुजरात से लेकर बंगाल तक रहा है, अत: एक प्रांत में मीराँ के सम्बंध में जो रचनाएँ होती थीं वे अन्य क्षेत्र में मीरों की रचना समझ ली जाती थीं। इसका एक उदाहरण 'साहित्य-रत्नाकर' नामक संग्रह-ग्रंथ में मिलता है, जिसमें देव-रचित दो कवित्त मीरों की रचनाएँ मान ली गई हैं । सम्भव है इस प्रकार के और भी कितने उदाहरण हों। इस विस्तृत प्रभाव-क्षेत्र के कारण एक ही पद भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न रूप धारण कर लेता है।
परंतु मीराँ की पदावली में अप्रामाणिक पदों की मिलावट का सबसे बड़ा कारण यह है कि उत्तर-पश्चिम भारत में मीराँ माधुर्य-भाव की भक्ति की प्रतीक है, जिस प्रकार कबीर निर्गण भाव की भक्ति के । पीछे के संतो ने जिस प्रकार 'कहै कबीर सुनो भाई साधी' लिखकर कितने ही निर्गण पदों को कबीर की रचना में शामिल कर दिया, उसी प्रकार 'मीराँ के प्रभु गिरधर नागर' लिखकर कितने ही लीला और मधुर भाव के पद मीरों के नाम से प्रचलित करा दिए गए जो मौखिक-परम्परा से प्रचार पाकर अाज मीराबाई की रचनाएँ समझी जाने लगी हैं । श्राज मीराँ के नाम से सैकड़ों पद मिलते हैं वे सभी उस मधुर भाव की प्रतिमा मीराँ की रचनाएँ नहीं हैं, वरन् मीराँ की भक्ति-भावना के प्रति श्रद्धा रखने वाले एक समुदाय की रचनाएँ हैं जिनमें मीराँ प्रतीक रूप में विद्यमान हैं । अतः वैज्ञानिक दृष्टि से मीराँ के नाम से प्रसिद्ध अघिकांश पद अप्रामाणिक अवश्य हैं, परन्तु भावना की दृष्टि से उन सभी पदों को मी की रचना मानने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि प्रतीक रूप में वे मीराँ की ही रचनाएँ हैं; केवल शब्द-रचना भीराँ की नहीं है।
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