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दूसरा अध्याय
भक्तियुग और मीराँ हिन्दी के भक्त कवियों में मीराँबाई का एक विशिष्ट स्थान है। इस महान् कवि के प्रति हिन्दी संसार की उदासीनता अद्भत अवश्य है, परंतु आश्चर्यजनक नहीं : जिसकी कविता में साहित्यिक कृत्रिमता का लेश भी नहीं, जिसने जनसमुदाय को आकर्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया; केवल अपनी भक्तिभावना के उल्लास में भक्ति और प्रेम के मधुर गीत गाए, अपने विरह-विधुर हृदय का भार ही इलका किया, जिसकी कोई शिष्य-परम्परा नहीं, जिसका कोई पंथ अथवा सम्प्रदाय नहीं, उसके प्रति यदि हिन्दी संसार उदासीन है तो कोई
आश्चर्य की बात नहीं है। परंतु हिन्दी प्रांत के बाहर हिन्दी के इस मधुर कवि का सबसे अधिक मान और प्रचार है-गुजरात और बंगाल में मीराँ के पद घर-घर गाए जाते हैं; राजस्थान की तो मीराँबाई सर्वस्व ही हैं। फिर सूर, तुलसा, कबीर और विद्यापति के युग की भक्ति-भावनात्रों का जैसा शुद्ध और संदर स्वरूप मीरों के पदों में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं दुर्लभ और दुष्प्राप्य है।
भारत की धार्मिक प्रवृत्तियों का सूक्ष्म विश्लेषण करने पर सर्वप्रथम हमें धर्म के वाह्य प्राचारों और उपकरणों के दर्शन होते हैं जो वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में कर्म-कांड के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका प्रारम्भ ऋग्वेद की उन ऋचाओं से माना जा सकता है जिनमें उषा, वरुण, इंद्र, मरुत्, अग्नि इत्यादि प्रकृति की दैवी शक्तियों की प्रशस्तियाँ मिलती हैं, वही अथर्ववेद में बहुत नीचे उतर कर जादू और टोना के रूप में परिणत हो गया है और इसका चरम विकास ब्राह्मण ग्रंथों में होता है जहाँ विविध संस्कारों तथा यज्ञों
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