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मीराबाई का विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है । दूसरी ओर उपनिषदों में इन बाह्य श्राचारों
और उपकरणों का उपहास किया गया है ( देखिए श्वान उद्गीथ-छांदोग्योपनिषद् ) और धर्म के प्रांतरिक पक्ष पर अधिक जोर देकर ब्रह्मशान और
आत्मज्ञान की आवश्यकता प्रमाणित की गई है। आगे चलकर धर्म की इन वाह्य और आंतरिक प्रवृत्तियों के समन्वय का भी प्रयत्न किया गया । परंतु जहाँ इन दोनों पक्षों के समन्वय और सामंजस्य का प्रयत्न किया जा रहा था, वहाँ गौतमबुद्ध ने इन-दोनों का विरोध करके एक लौकिक धर्म की व्यवस्था की जिसमें कर्म-कांड का घोर विरोध था, साथ ही उपनिषदों के ब्रह्मज्ञान और
आत्मज्ञान की भी उपेक्षा की गई थी। यह मानव-याचरण और जीवन का धर्म था, वह पुरुषार्थ और कर्म का मार्ग था। अभी तक इन सभी धार्मिक प्रवृत्तियों में मानव-हदय का सम्पर्क नहीं हो सका था, केवल बुद्धि (ज्ञान) और क्रिया (कर्म) इन्हीं दो को प्रधानता दी गई थी। इसी समय एक ऐसी धार्मिक प्रवृत्ति का उदय हुअा जो अद्भुत और अभूतपूर्व था। इस प्रवृत्ति में कर्म-कांड के प्रति कोई आस्था नं थी, ब्रह्मज्ञान और आत्मज्ञान के प्रति कोई आकर्षण न था और साथ ही बौद्धों के सेवा, दया और प्रेम के धर्म से पूर्ण संतोष भी न था। इसमें भगवान् के प्रति दृढ़ श्रास्था थी, उनकी दया, करुणा और भक्तवत्सलता पर पूर्ण विश्वास था और उनसे व्यक्तिगत निकट सम्बंध स्थापित करने की उत्कट इच्छा थी। यह व्यक्तिगत हृदय का धर्म था जिसे विद्वानों ने भक्ति-धर्म की संज्ञा प्रदान की है।
इस भक्ति-धर्म का कब और कैसे उदय हुया, इसका निश्चित ज्ञान नहीं है, परंतु इसकी सर्वप्रथम स्पष्ट व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है जहाँ स्वयं भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण ने ज्ञान और कर्म के साथ ही साथ भक्ति का उपदेश किया था। परंतु जिस भक्ति-धर्म ने एक विस्तृत जन आंदोलन का रूप धारण किया, वह भगवद्गीता का ज्ञान-कर्म-समन्वित भक्तियोग न था, वरन् नारद भक्ति-सूत्र तथा भागवत का विशुद्ध भक्ति मार्ग था।' इस विशुद्ध भक्ति
नारद ने भक्ति को 'स्वयंप्रमाण माना है। यह भक्ति, ज्ञान और कर्म से स्वतंत्र है. पूर्ण शांति और पूर्ण आनंद इसकी दो विशेषताएं है।
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