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मीराँबाई
वृन्दा रे बन माँ वाले राम रच्यो छे सोल से फाटयाँ चर रर र रर रे;
गोपीनाँ तारण्यां चीर, कानुड़े... ॥ २ ॥
हूं वरणा गी कान्हा तमारारे नामनी रे, कानुड़े मायों के श्रमने तीर वाग्याँ अररररररर रे; कानुड़े ... ॥ ३ ॥ बाई मीरां के प्रभु गिरधर नागर, कानुड़े वाली ने फेंकी उँचे गीर; राख उड़े फर रर र रर रे; कानुड़े ... ॥ ४ ॥
[ अर्थात् कन्हैया मेरे प्रेम और विरह की पीड़ा को नहीं जानता और नहीं जानता मेरे कुमारी के प्रेम को । हम यमुना नदी से जल लाने के लिए गई थीं; वहाँ कन्हैया ने जल के छींटे उछाल कर हमें भिगो दिया। हमारे प्रियतम कन्हैया ने वृन्दाबन में रासलीला रची और सोलह सौ गोपियों के परि धान खींचे और उनके खींचने से हम लोगों के वस्त्र चर चर करके फट गए। हे कृष्ण मैं तुम्हारे नाम के पीछे पागल हो गई हूँ तुमने वाण चलाकर मुझे बेध दिया है और वे बाण मेरे हृदय में घुसते ही जा रहे हैं । ]
भक्ति के इन स्वरूपों के अतिरिक्त एक चौथा स्वरूप भी है । सागर के समीप पहुँच कर उस अनंत महासागर में विलीन होने की प्रबल उत्कंठा जो नदी की जलधारा में दिखाई पड़ती है वह प्रवल आवेग ही जल-धारा की प्रमुख विशेषता है । यह वेग तो धारा में निरंतर विद्यमान रहता है परंतु महा सागर के पास पहुँचकर उसका वेग अत्यन्त तीव्र हो उठता है । भक्ति का यह प्रबल वेग, अपने प्रियतम से मिलने की यह प्रबल उत्कंठा, जितनी तीव्र मीरों के पदों में मिलती है; उतनी और किसी भी भक्त और कवि के पदों में नहीं मिलती । बात यह है कि अपने प्रियतम के जितना समीप मीराँ पहुँच गई थीं, उतना और कोई भक्त नहीं पहुँच सका था । इसीलिए यह श्रावेग, यह उत्कंठा भी मीरों में तीव्रतम है। केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा:
मैं हरि बिनि क्यूं जिऊँ रे माइ ।
for कारण बौरी भई, ज्यूँ काठहि धुन खाइ ॥ खद मूल न संचरै, मोसि लाग्यो बौराइ |
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