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आलोचना खंड
६३
तीसरी और कबीर और रैदास के निर्गुण पदों में रस की धारा उमड़ाती हुई
मीराँ गा उठती हैं :
अथवा
अथवा
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सखी री मैं तो गिरधर के रंग राती ॥ टेक ॥
पंचरंग मेरा चोला रंगा दे, मैं मुरमट खेलन जाती ।
कुरमट में मेरा साईं मिलेगा खोल डम्बर गाती ॥ चंदा जायगा सुरज जायगा जायगा धरण अकासी । पवन पाणी दोनों ही जायँगे, अटल रहे अविनासी ॥ सुरत निरत का दिवला सँजाले, मनसा की कर बाती । प्रेम हटी का तेल बना ले, जला करे दिन राती ॥ जिनके पिय परदेस बसत हैं, लिखि लिखि भेजें पाती । मेरे पिय मो माहिं बसत हैं, कहूँ न श्राती जाती ॥ इत्यादि ॥ चौथी र मीरां चंडीदास, विद्यापति तथा नरसी मेहता के मधुर भाव की भक्ति का श्रभिव्यंजना करती हैं :
तुम्हरे कारण सब सुख छोड्या, व मोहिं क्यूं तरसावो । विरह विथा लागी उर अंदर सो तुम प्राय बुझावो ॥ अब छोड़याँ नहिं बनै प्रभू जी, हँस कर तुरत बुलावो । मीरा दासी जनम जनम की, अंग सूँ ग्रंग लगावो ॥ कानुड़े न जारणी मोरी पीर,
हूँ तो बाल कुँवारी रे, कानुड़े न जाणी मोरी पीर ॥ टेक ॥ जल रे जमना श्रमे पाणीडांगया तां, बाहला कानुडे उडाड्या श्राछां नीर; उदयां फररररररर रे; कानुड़े ... १ ॥
भज मन चरण कँवल विनासी ।
जेता दीसे धरनि गगन बिच, तेताह सब उठि जासी ।
कहा भयो तीरथ व्रत कीन्हें; कहा लिए करवत कासी ॥
इस देही का गरब न करना, माटी में मिल जासी ।
यो संसार चहर की बाजी, सांझ पड़याँ उठि जासी ॥ इत्यादि ॥
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