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मीराबाई तब इस बिरह में उस तीव्र वेदना के दर्शन नहीं होते जो विद्यापति के विरह में ध्वनित होता है:
सखि हे हमर दुखन नहिं और ।
इ भर बादर माह भादर सून मन्दिर मोर ।। भक्ति के ये तीनों भिन्न स्वरूप हमें मीराँ में एक ही स्थान पर मिल जाते है। एक ओर गुसाई तुलसीदास और सूरदास के विनय के पदों में अपना कंठ मिलाकर मीराँ उसी धुन में गा उठती हैं :
राम नाम रस पीजे मनुश्रा राम नाम रस पीजे । तज कुसंग सतसंग बैठ नित हरि चरचा सुण लीजे ।। काम क्रोध मद लोभ मोह , चित से बहाय दीजे ।
मीरों के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग में भीजे ।। अथवा हरि तुम हरो जन की भीर ॥ टेक ||
द्रोपदी की लाज राख्यो तुम बढ़ायो चीर ।। भक्त कारन रूप नरहरि धरयो आप सरीर ।
हरिनकस्यप मार लीन्हों धरयो नाहिंन धीर ॥ इत्यादि । दूसरी ओर सूरदास के कृष्ण-लीला के पदों से समानता करती हुई वे लीला के पद गा उठती हैं:--
कमल दल लोचना तेंने कैसे नाथ्यो भुजंग । पैसि पियाल काली नाग नाथ्यो फण फण नित करन्त ॥ कूद परयो न डरयो जल माहीं और काहू नहिं संक । मीरों के प्रभु गिरधर नागर, श्री वृन्दावन चन्द ।। छाँडो लँगर मोरी बहियाँ गहो ना। मैं तो नार पराये घर की, मेरे भरोसे गुपाल रहो ना ॥ जो तुम मेरी बहियाँ गहत हो, नयन जोर मोरे प्राण हरो ना। वृन्दावन की कुंज गली में, रीत छोड़ अनरीत करो ना ।। मीरा के प्रभु गिरधर नागर, चरण कमल चित टारे टरोना ।।
अथवा
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