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आलोचना खंड श्रानंद और वेदना की अभिव्यक्ति होती है; जहाँ साधारण संयोग और वियोग की अनुभूतियों के स्थान पर स्वयं भगवान से संयोग और वियोग की साधनामयी अनुभूतियों की अभिव्यंजना होती है । इस प्रकार के गीतिनों की महत गीति-काव्य की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें भगवान के लिए पागल हृदय की अस्पष्ट और अव्यक्त ध्वनि सुनाई पड़ती है।
हिन्दी साहित्य में महत् गीति-काव्य की रचना करने वालों में मीरी अद्वितीय हैं। पद-रचना में सूरदास और मैथिल कोकिल विद्यापति ने भी अद्भुत कौशल प्रदर्शित किया है, परंतु सीधे हृदय पर चोट करने वाली रचना मीरों के ही कंठ से निःसृत हुई थी। जहाँ सूर और विद्यापति के पदों में ब्रज की गोपियों अथवा राधा के सम्भोग और वियोग की श्रानंद और वेदनामयी अनुभूतियों की सरस अभिव्यक्ति हुई है वहाँ मीरों के पदों में स्वयं मीरों की विरह-व्यथा साकार हो उठी है। सूरदास के मुक्तक पदों
और गीतियों के भीतर एक कथा की धारा अंतःसलिला सरस्वती की भाँति बहती रहती है और उसी प्रसिद्ध कथा के सहारे उन पदों का सौन्दर्य परखा जा सकता है, इसी प्रकार विद्यापति के पदों में भी नायिका-मेद की परम्परा का सहारा लिए बिना उनकी रमणीयता भली प्रकार स्पष्ट नहीं हो पाती, परंतु मीरों के पदों में कथा की न कोई अंतर्धारा है, न किसी साहित्यिक परम्परा का सहारा है; वहाँ मीरों की भावना सीधे मीरों के हृदय से, उनके अंततम प्रदेश से, निकलती है। इसीलिए उसका प्रभाव भी अधिक पड़ता है। मोरों के पदों में सरलता है, स्पष्टता है और है सीधापन ( directness)। परंतु उन पदों की सबसे बड़ी विशेषता है स्वच्छंदता। वह युग-युग से चलती आ रही काव्य-परम्परर से स्वच्छंद है; भाषा और छंद, भाव और अनुभूति किसी का भी अाडम्बर मीराँ के पदों में नहीं है। परंतु मीरों को स्वच्छंदता कोरा अनर्गलवाद नहीं है, वह एक निझरिणी की निर्मल धारा की स्वच्छंदता है, जिसमें एक राग है, एक अदम्य आवेग है, बंधनों की सीमा का उल्लंघन करने का एक उत्साह है; परंतु जिसमें असंयम नहीं, अश्लीलता नहीं, विद्रोह की भावना नहीं।
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