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मीराबाई और कभी अपनी प्रणय-लालसा के कारण अतिशय धृष्ट होकर कह उठती हैं :
वंशीवारे हो कान्हा मोरी रे गगरी उतार गगरी उतार मेरो तिलक सँभार । यमुना के नीरे तीरे बरसीलो मेह । छोटे से कन्हैया जी सो लागी म्हारो नेह । वृन्दावन में गउएँ चरावे तोर लियो गरवा को हार । मीरों के प्रभु गिरधर नागर तोरे गई बलिहार ।।
[राग कल्पद्रम द्वितीय भाग पृ० ५३ ] अथवा होली के उच्छखल और निर्लज्ज वातावरण में स्वाभाविक स्पर्धा से कहती हैं :
मोरी चुनर भीजे मैं रे भिजोऊँगी पाग | नंद महर जी को कुंवर कन्हैया, जान न देऊँगी आज ।।
[ राग कल्पद्र म दि० मा० पृ० ३३० ] इस प्रकार ये गोपियाँ यमुना नदी के किनारे, पनघट पर, गलियों में, बन उपवन में, कूल और कछार पर भगवान से प्रेम लीलाएँ करती रहती हैं। मीरौं भी अपनी कल्पना में उन गोपियों में मिलकर अपने गिरधर नागर से सभी प्रकार की क्रीड़ाएँ करती हैं, और भगवान के मथुरा गमन के पश्चात् गोपियों के विरह-निवेदन में जैसे मीरों का स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है।
भगवान के अगणित भक्तों में मधुर भाव की भक्ति करने वाली ब्रज गोपियाँ ही मीरों की श्रादश थीं। लगभग सभी बातों में मीरों का उन गोपियों से साम्य था और बहुत सम्भव है कि ब्रजगोपियों के नाम से वे अपनी ही सुषप्त प्रणय-वासना और प्रेम-लीलाओं का कल्पित चित्र उपस्थित कर रही हो । ईन मधुर पदों में इतनी तन्मयता और हार्दिकता भरी है कि जान पड़ता है मोराँ स्वयं ब्रज गोपी होकर ये सब प्रेम लीलाएँ कर चुकी हैं। एक-एक पद से मीराँ की प्रेम-भक्ति साकार हो उटती है । केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा :
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