________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आलोचना खंड
१४३ नागर नंदा रे बाल मुकुन्दा रे छोड़ी द्योने जग ना धंधा, नागर नंदा, मारी नजरे रहेगो रे नागर नंदा । काम ने काज मने काँई नय सूझे, भूली गई छू मारा घर धंधा रे; अाइँ अवलू में तो काई नव जोयूँ जोया जोया छ पूनम केरा चंदा रे: बाई मीरों के प्रभु गिरधर नागर, लागी छे मोहनी मने फंदा रे ॥
गुरु को अंग-मीरों के पदों में रैदास संत को गुरु मान कर कितने ही पदों में उनकी प्रशंसा मिलती है, परंतु जैसा पहले लिखा जा चुका है, मीराँ रैदास की शिष्या नहीं थीं और सम्भवतः किसी भी संत अथवा प्राचार्य की शिष्या नहीं हुई। फिर भी उनके पदों में कहीं-कहीं सतगुरु की वंदना मिलती है। उन पदों की प्रामाणिकता के सम्बंध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, परंतु सम्भव है, परम्परा से प्रभावित हो किसी सतगुरु के लिए उन्होंने कुछ पद लिखे हों। परंतु ये पद संख्या में बहुत कम हैं । एक उदाहरण देखिए :
मैंने राम रतन धन पायौ। बसत अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरपा अपणायौ । जनम जनम की पूँजी पाई जग में सबै खोवायौ । खरचै नहिं कोई न चोर न लेबै, दिन दिन बधत सवायौ। सत की नाव खेवटिया सतगुरु भवसागर तरि आयो । मीरों के प्रभु गिरधर नागर हरखि हरखि जस गायौ ।
[मी० पदा० पद सं० १५७ ] सतगुरु की महिमा संत-परम्परा में बहुत अधिक है और मीरों ने भी उस परम्परा का निर्वाह किया है।
उपदेश और चेतावनी-भक्त, भक्ति भमवंत और गुरु के अतिरिक्त मीराँ ने अपने जीवन के अनुभव बताए हैं तथा सांसारिक जीवों की कल्याण-कामना
For Private And Personal Use Only