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मीराँबाई
समय सारे भारतवर्ष में कृष्ण भक्ति का सब से बड़ा केन्द्र था । एक ओर महाप्रभु बल्लभाचार्य का पुष्टि मार्ग गोपाल भक्ति का उपदेश दे रहा था, दूसरा और रूप, सनातन और जीव गोस्वामी माधुर्य भाव की भक्ति का प्रसार कर रहे थे; एक और मध्व सम्प्रदाय का जोर था, तो दूसरी ओर निम्बार्क - सम्प्रदाय का; कहीं राधाबल्लभ के गीत गाये जा रहे थे तो कहीं st सम्प्रदाय का प्रभाव था । गली-गली में, मंदिरों में भागवत् की कथा चलती रहती थी; सूरदास, नंददास तथा अष्टछाप के अन्य कावयों के पदों से मंडल गूंज रहा था । भक्ति भावना और कवित्व के ऐसे विशुद्ध वातावरण में पहुंच कर मीरों का संस्कार जान पड़ा होगा और वे भी भक्तिभावना में चू होकर ऊँचे स्वर में गा उठी होगी :
हाँने चाकर राखो जी, गिरधारीलाला चाकर राखो जी !! चाकर रहयूँ बाग लगायूँ, नित उठ दरसन पासू | वृन्दावन की कुंज गलिन में, गोविन्द लीला गाऊँ ॥ जान पड़ता है वृंदावन के उस वातावरण में रहकर मीरों के कंठ से विनय और लीला के पद फूट पड़े होंगे। उन पर भागवत का प्रभाव पर्याप्त मात्रा में पड़ा होगा । अंत में वृन्दावन से द्वारका पहुँच कर उनपर वहाँ के वात'वरण का प्रभाव पड़ा होगा और नरमी मेहता के प्रभाव से राधा-कृष्ण सम्बन्धी शृंगार के पद रचे गए होंगे। मीरों में संस्कार और प्रतिभा प्रधान थी केवल वातावरण विशेष के प्रभाव से विशेष प्रकार का संस्कार प्रधान हो उठता था ।
महात्माओं से भी कहीं
परन्तु संत-साहित्य, भागवत तथा संत अधिक प्रभाव उनपर अपने जाति, कल और धर्म का पड़ा । मीराँ एक प्रसिद्ध राठौर राजवंश की कन्या थीं और राजपूती वीरता के युग में पैदा हुई थीं । उम ममय प्रत्येक राजपूत वीरता की प्रमूर्त हुआ करता था और राजपूत कन्याओं में वीरता के साथ ही प्रेम का समुद्र भी लहराया करता था । एक ओर तो वे अपने वीर पतियों से कहती थीं :
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