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आलोचना खंड
१३५
मात पिता औ कुटम कबीलो, सब मतलब के गरजी।
मीराँ की प्रभु अरजी सुणलो, चरण लगावो थाँरी मरजी ॥ और भगवान के चरण-कमलों की अद्भुत विशेषताओं की ओर ध्यान दिलाती हुई वे अपने मन से कहती हैं :
मन रे परसि हरि के चरण । सुभग सीतल केवल कोमल, त्रिविधि ज्वाला हरगा। जिण चरण प्रहलाद परसे, इंद्र पदवी धरण । जिण चरण ध्रुव छाटल कीणो, राखि अपणी सरण ।
जिण चरण ब्रह्मांड भेट्यो नख सिख सिरी धरण | इत्यादि कुछ पदों में मीराँ ने यज्ञामिल., गणिका, सदना कसाई इत्यादि भक्तों के तारने की कथा की ओर संकेत करके अपने ऊपर कृपा करने की भी प्रार्थना की है।
मी के विरह-निवेदन में जिस पीड़ा-दरद--का वर्णन है वह अत्यंत गम्भीर और अनिर्वचनीय है। मीराँ के बीसों पदों में यह व्यथा उमड़ी सी पड़ती है जैसे महासागर के अंतर का मथन और पालोड़न उसके उत्ताल तरंगों में उमड़ा पड़ता है । केवल दो उदाहरण पर्याप्त होंगे :
घड़ी एक नहिं श्रावड़े कि तुम दरसन बिन मोय तुम हो मेरे प्राण जी, का। जीवण होय ।। धान न भावे, नींद न आवे, बिरह सतावे मोहि । घायल सी घूमत फिरूँ रे, मेरो दरद न जाणे कोय ।। दिवस तो खाय गमाइयो रे, रैण गमाई सोय ।
प्राण गमायो झूरताँ रे, नैण गमाया रोय । १. सुन लीजे विनती मोरी, मैं सरन गही प्रनु तोरी ।।
तुम तो पतित अनेक उधारे, भव-मागर से तारे । में सबका तो नाम न जानों, कोइ कोइ भक्त बखानों ।
[मीराबाई की शब्दावली पृ० ७०]
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