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तथा
मीराँबाई जो मैं ऐसा जाणती रे, प्रीत कियाँ दुख दोइ । नगर ढंढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत कोई ॥ पंथ निहारो डगर बुहारूँ, ऊभी मारग जोइ । मीरों के प्रभु कबरे मिलोगे, तुम मिलियाँ सुख होइ।
[ मीरा० की पदा० पद सं० १.०२ ] हे री मैं तो दरद दिवाणी होइ दरद न जाणे मेरो कोइ । घाइल की गति घाइल जाणे, की जिण लाई होइ। जौहरि की गति जौहरी जाणे, की जिन जौहर होइ। सूली ऊपर सेफ हमारी सोवणा किस चिध होइ । गगन मंडल पै सेम पिया की किस विध मिलणा होइ । दरद की मारी बन बन डोलूँ, वैद मिल्या नहिं कोइ ।
मीरों की प्रभु पीर मिटैगी, जब वैद सवलिया होइ ।। मीरों के ये अति प्रसिद्ध पद अपनी स्पष्टता और विरह की गम्भीरता के लिए अद्वितीय हैं।
हिन्दी के कतिपय समालोचकों ने जायसी के विरह-वर्णन को हिन्दी काव्य में सर्वोत्कृष्ट ठहराया है, परन्तु जायसी का विरह-निवेदन मीराँ के इन गम्भीर पदों के सामने केवल ऊहात्मक और अतिशयोक्तिपूर्ण उक्तियाँ ही जान पड़ती हैं। दादू का विरह-वर्णन अवश्य उत्कष्ट बन पड़ा है, परन्तु जो व्यापकता और गम्भीरता मीराँ के पदों में है उसका लेश भी दादू के दोहों और पदों में नहीं मिलता । सीधे-सादे और स्पष्ट शब्दों में हृदय के अंतरतम की गम्भीर व्यथा का दर्शन करना हो तो देखिए मीराँ कहती हैं :
मैं बिरहिण बैठी जागें,जगत सब सोवै री भाली। बिरहिण बैठी रंग महल में, मोतियन की लड़ पोवै । इक बिरहिण हम ऐसी देखी, अँसुवन की माला पोवै । तारा गिण गिण रैन बिहानी, सुख की घड़ी कब आवै । मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, मिल के बिछुड़ न जावै ।।
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