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आलोचना खंड विरह-निवेदन के ये पद कुछ तो निर्गुण ब्रह्म के प्रति कहे गये हैं, कुछ योगी ब्रह्म के प्रति और शेष सगुण ब्रह्म गिरधर नागर के लिए हैं। निर्गण ब्रह्म के प्रति कहे गये पदों में अस्पष्टता और रहस्य-भावना अधिक है, परन्तु अन्य दो के प्रति कहे गए पदों में स्पष्टता और गम्भीरता है । जहाँ निर्गुण ब्रह्म के प्रति अपनी अस्पष्ट विरह-वेदना में मीराँ कह उठती हैं :
मीराँ मन मानी सुरत सैल असमानी ॥ जब जब सुरत लगे वा घर की पल पल नैनन पानी। ज्यों हिये पीर तीर सम सालत, कसक कसक कसकानी । रात दिवस मोहिं नींद न आवत, भावै अन्न न पानी । ऐसी पीर विरह तन भीतर, जागत रैन बिहानी। ऐसा वैद मिले कोई भेदी, देस विदेस पिछानी। तासों पीर कहूँ तन केरी, फिर नहिं भरमों खानी। खोजत फिरों भेद वा घर को, कोई न करत बखानी।
[मी० पदा० पद सं० १५९] वहाँ अपने गिरधर नागर के प्रति उनका विरह अत्यंत स्पष्ट और तीब्र है :
तुमरे कारण सब सुख छाड्या, अब मोहिं क्यूँ तरसावौ हो। विरह बिया लागी उर अंतर सो तुम आय बुझावौ हो। अब छोड़त नहिं बणै प्रभु जी हँसि करि तुरत बुलावौ हो। मीराँ दासी जनम जनम की, अङ्ग से अङ्ग लगावौ हो ।।
[ मी० पदा० पद सं० १०४ ] जोगी के प्रति विरह-निवेदन में मीरों ने एक ओर तो उसकी उदास और अटपटी बानी की ओर संकेत किया है और दूसरी ओर भोलेपन को कोसा है जिसके कारण वह जोगी को वाँध न सकी :
जोगिया जी निसि दिन जोऊँ बाट ॥ पाँव न चालै पंथ दुहेलो प्राडा औघट घाट ! नगर श्राइ जोगी रम गया रे, मो मन प्रीत न पाइ ।। मैं भाली भोलापन कीन्हौ, राख्यौ नहिं बिलमाइ।
[ मी० पदा० पद ० ४९ :
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