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मीराँबाई
उसी के भोलेवन के कारण तो प्रियतम श्राकर लौट भी गया और वह सोती ही रह गई । निद्रा से जाग कर मीराँ को अपना सारा शृंगार असह्य-सा हो उठा, वे कह उठती हैं :
मैं जाण्यो नहीं प्रभु को मिलन कैसे होइ' री । श्राए मेरे सजना फिरि गए अँगना मैं अभागण रही सोइ री। फारूँगी चीर करूँ गल कथा, रहूँगी बैरागण होइ री। चुरियाँ फोरू माँग बखेरु, कजरा मैं डालें धोइ री। निसिबासर मोहिं बिरह सतावै, कल न परत पल मोइ री। मीरों के प्रभु हरि अबिनासी, मिलि बिछरो मत कोइरी॥
मी० पदा० पट सं० ४८ [ इस प्रकार जोगी की प्रीति केवल दुःख का मूल बनती है। वह रमता जोगी कहीं दिखाई भी पड़ जाता है तो उसी प्रकार उदास चला जाता है। उसे रोकने का कोई उपाय नहीं, वह अपने ही धुन में मस्त है । मीराँ उससे अनुनय करती हैं :
होगी मत जा मत जा मत जा, पाँइ परूँ मैं चेरी तेरी हौं । प्रेम भगति को पैड़ो ही न्यारो, हमकुँ गैल बता जा। अगर चॅदण की चिता बगाऊँ, अपणे हाथ जला जा। जल बल भई भस्म की ढेरी, अपणे अंग लगा जा। मीरों कहै प्रभु गिरधर नागर, जोत में जोत मिला जा।।
[मो० पदा० पद सं० ५०] मीरों की यह सरलता और इतना अात्मोत्सर्ग सचमुच ही अपूर्व है । भक्त तो
१--यही भाव विश्वकवि रवीन्द्रनाथ के एक गीत में इस प्रकार मिलता है :
Pe came and sat by my side but I woke not. What a cursed sleep it was, O miserable me !
He came when the night was still, he had his harp in his hands and any dream became resonant with its melodies.
___Alas, why are my nights all thus. lost ? Ah, why do I ever miss his sight whose breath touches my sleep. Gitanjali 26.
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