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आलोचना खंड
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उस युग में एक से एक बढ़ कर हुए हैं, और उन्होंने बड़ी सरस भाषा में अपनी भक्ति भावना और विरह वेदना के गीत गाए हैं, परन्तु मोरों के इन पदों में जितनी हार्दिकता, सरलता और गम्भीरता भरी है उतनी शायद ही कहीं देखने को मिले ।
भक्ति भावना का विश्लेषण करने वाले याचार्यों ने भक्ति के क्रमिक विकास में नव भावनाओं अथवा सीढ़ियों का उल्लेख किया है जो नवधा भक्ति के नाम से प्रसिद्ध है । भागवत में एक ही श्लोक में इसका उल्लेख किया गया है
:
rajj कीर्तनं विष्णो, स्मरणं पादसेवनम् । प्रर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
server में सब से ऊँची साधना आत्मनिवेदन की है जिसमें भक्त भगवान के प्रति श्रात्मसमर्पण कर देता है ! मीराँ भक्ति की इसी चरम सीमा पर पहुँच कर कहती हैं :
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ ।
गिरवर म्हांरो साँचो प्रियतम, देखत रूप लुभाऊँ । गा पड़े तब ही उठि जाऊँ, भोर गए उठि आऊँ | चैन दिना वाके संग खेलूँ, ज्यू त्यूँ चाहि रिझाऊँ । मो पहिरावै सोई पक्षिरूँ, जो दे सोई खाऊँ मेरी उकी प्रीत पुराणी, उसा विनि पल न रहाऊँ । जहाँ बैठा तितही बैठूं बेचै तो बिक जाऊँ । के प्रभु गिरधर नागर, बार बार बलि जाऊँ ।
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[ मी० की पदा० पद सं० १७
इस पराकाष्ठा पर पहुँचकर भक्त अपनी भक्ति को गम्भीरता और जीवन के आनन्द अथवा विरह-वेदना की अतिशयता के कारण उन्मत्त सा हो उठता है । मीराँ भी इस प्रेम में एकदम पागल हो उठती हैं। मीराँ का उन्माद आनंदातिरेक के कारण नहीं विरह की वेदना के कारण है । अपने गिरधर नागर की प्रेम कटारी से वे घायल हो गई हैं :
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