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मोराँबाई
ब्यास की समकालीन टहरती हैं । कृष्णदास अधिकारी का समय सं० १५५४ से १६३४ तक और हितहरिवंश का सं० १५५६ से १६५६ तक माना गया हैं; अस्तु, मीरों का समय निश्चित रूप से सं० १५५५ से सं० १५६० के बीच में जान पड़ता है। तीसरे उद्धरण से पता चलता है कि जब कृष्णदास अधिकारी मीरा के घर पहुँचे उस समय वहाँ हित हरिवंश के साथ ही साथ ब्यास भी थे । ये व्यास ( हरीराम ब्यास ) पहले प्रोडछा महाराज के राजगुरु
और एक प्रसिद्ध शास्त्रार्थी विद्वान् थे। सं० १६२२ के अासपास गुसाई हित हरिवंश से शास्त्रार्थ करने जाकर उनके शिष्य हो गए थे । हित हरिवंश
और व्यास की एक साथ उपस्थिति यह प्रमाणित करती है कि तीसरे उद्धरण का प्रसग सं० १६२२ के पश्चात् किसी समय का है, यह भी असम्भव नहीं है कि ये दोनों महात्मा दैव संयोग से अलग अलग एक ही समय मीराँबाई के घर पहुँचे हों जैसे कि कृष्णदास भी पहुँच गए थे; परंतु सं० १६२२ से पहले व्यासजी वैष्णव प्रसिद्ध न थे और न इस प्रकार किसी के घर पहुँचते ही थे क्योंकि तब तक उनका एक मात्र उद्देश्य शास्त्रार्थ करना हुया करता था। परंतु इस प्रसग में वे वैष्णव लिखे गए हैं, अतएव यह प्रसंग निश्चित रुप से सं० १६२२ के पश्चात् किसी समय का है । इस प्रकार मीराँबाई का सं० १६२२ के बाद तक जीवित रहने का प्रमाण मिल जाता है।
दूगरा निष्कर्ष मीरों की शिक्षा-दीक्षा और उनकी प्रकृति से सम्बन्ध रखता है। इन अवतरणों से पता लगता है कि बल्लभ सम्प्रदाय वालों के
१ विद्या-विभाग कांकरोला से प्रकाशित 'प्राचोन यात्तो रहस्य' द्वितीय भाग में जो कृष्णदास अधिकारी की वार्ता दी गई है, उसके प्रथम प्रसंग में हरिवंश और व्यास का उल्लेख नहीं मिलता जैसा कि डाकोर ने प्रकाशित संस्करण में मिलता है। उसो ग्रन्थ के गुजराती अंश के अनुसार कृष्णदाल और मीराबाई की मिलन-तिथि सं० १५८२ के पश्चात् सं १५८३ के आस पाम निश्चत की गई है। यदि प्राचीन वार्ता रहस्य का पाठ प्रामाणिक ठहराया जाय तो मीरां के न. १६२२ तक जीवित रहने का प्रमाण इस पसंग से नहीं मिल सकता ।
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