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जीवनी खंड
अनुरक्त. हुते । सो वा दिन ते मीराबाई को मुख न देख्यौ, बाकी वृत्ति छोड़ दीनी,फेर वाके गाँव के आगे होय के निकसे नाहीं । मीराबाई ने बहुत बुलाये परि वे रामदासजी श्राये नाहीं । तव घर बैठे भेंट पठाई सोई फेरि दीनी
और कहाँ जो राँड तेरो श्री प्राचार्य जी महाप्रभून ऊपर समत्त्व नाहीं जो हमको तेरी वृत्ति कहा करनी है ।
[प्रसंग १ चौ० बै० को वा० डाकोर सं० ९९३० ५० १३१ १३२ ] (३) अथ कृष्णदास अधिकारी तिनकी वार्ता
सो वे कृष्णदास शूद्र एक बेर द्वारका गये हुते मो श्री रणछोर जी के दर्शन करिके तहाँ ते चले सो श्रापन मीराँबाई के गाँव अायै सो वे कृष्णदास मीराँबाई के घर गयै तहाँ हरिवंश ब्यास प्रादि दे विशेष सह वैष्णव हुते सो काहू को प्राय बाट दिन काहू को प्रायै दश दिन काह को प्रायै पंद्रह दिन भये हुते तिनकी विदा न भई हुती और कृष्णदास ने तो अाबत ही कहीं जो हूँ तो चलंगौ। तब मीराबाई ने कही जो बैटो तब कितनेक मोइर श्रीनाथ जी को देन लागी सो कृष्णदास ने न लीनी और कह्यो जो तु श्री ग्राचार्य जी महाप्रभून की सेवक नाही होत ताते तेरी भेंट हम हाथ ते छुवेंगे नाहीं सों ऐसे कहिके कृष्णदास उहाँ ते उठि चले।
प्रसंग १ चो० वै० की बा० डाकोर सं० १९६० ] इन उद्धरणों से हम तीन प्रकार के निष्कर्ष निकाल सकते हैं। पहला निष्कर्ष मीराँबाई के समय के सम्बंध में है । पहले उद्धरण के प्रसंगानुसार मीरों श्री बल्लभाचार्य की समकालीन ठहरती हैं। बल्लभाचार्य की मृत्यु सं० १५८७ में हुई थी; अतः यह प्रसंग इसमें पहले किसी समय का होगासम्भवतः सं० १५८० से १५८५ के बीच किसी समय का जान पड़ता है। उस समय मीराँबाई उस अवस्था को प्राप्त कर चुकी थीं जब कि गोविन्द दुबे जैसे महाप्रभु के पट शिष्यों को भी उनसे भगवद्वार्ता करते हुए अटकना पड़ता था। अस्तु, उस समय मीराँ की अवस्था २५ वर्ष से कम न रहो होगी, अतएव उनका जन्म काल सं० १५५५ और १५६० के बीच में टहरता है । तीसरे उद्धरण से वे कृष्णादास अधिकारी, हित हरिवंश और
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