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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३० मीराँबाई इन्द्र कोप घन बरखो मूसल जलधार । बूड़त ब्रज को राखेऊ, मोरे प्रान अधार ॥ मीराँ के प्रभु गिरधर हो, सुनिये चित लाय । तुम्हरे दरस की भूखी हो, मोहि कछु न सोहाय ।। [मीरों की शब्दावली पृ०६] इन गिरधर नागर की सब से बड़ी विशेषता यह है कि वे अत्यंत सुन्दर और मनमोहन हैं। मीराँ उनके इस अपूर्व और अपरूप रूप पर मुग्ध हैं : निपट बँकट छबि अटके । मेरे नैना निपट बँकट छबि अटके ।। देखत रूप मदन मोहन के पियत पियूख न मटके । बारिज भवां अलक टेढ़ी मनो, अति सुगन्ध रस अटके । टेढ़ी कटि टेढ़ी करि मुरली, टेढ़ी पाग लर लटके । मीराँ प्रभु के रूप लुभानी, गिरधर नागर नटके । जबसे मीरा ने उन गिरधर नागर की छबि देख ली है उसके नेत्र जैसे उन्हीं के हो गए हैं : जबसे मोहिं नन्दनँदन दृष्टि पड़यो माई । तब से परलोक लोक, कछु ना सुहाई। मोरन की चन्द्रकला, सीस मुकुट सोहै। केसर को तिलक भाल, तीन लोक मोहैं | कुंडल को अलक झलक कपोलन पर छाई । मनो मीन सरवर तजि, मकर मिलन आई ।। कुटिल भकुटि तिलक भाल, चितवन में टौना। खंजन अरु मधुप मीन, भूले मृग छौना ।। अथवा नैणा लोभी रे बहुरि सके नहिं श्राइ। रूँम रूम नख सिख सब निरखत, ललकि रहे ललचाइ ।। 1 xx xx xx लोक कुटुम्बा बरजि बरजहीं, बतियाँ कहत बनाइ । चंचल निपट अटक नहि मानत, परहय गर बिकाइ ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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