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जीवनी खंड से युक्त कोई मक्त दृष्टिगोचर नहीं होता । पुराणों में भी नारद ही एक ऐसे भक्त हैं । मध्य श्रेणी की प्रेम-लक्षणा भक्ति ही मीराँबाई की भक्ति है जिसका लक्षण कवि ने इस प्रकार लिखा है :
प्रम लग्यौ परमेश्वर सौं तब भूलि गयौ सब ही धरबारा । ज्यों उनमत्त फिरे जित ही तित नैकु रही न शरीर सँभारा ॥ स्वास उस्वास उठे सब रोम चलै दृग नीर अखंडित धारा॥ सुन्दर कौन करै नवधा विधि छाकि परयो रस पी मतवार |
न लाज कानि लोक की, न देव को कह्यो करै। न शंक भूत प्रेत की न देव यक्ष तैं डरै ॥ सुनै न कान और की, दृशै न और अक्षणा। कहे न मुक्ख और बात, भक्ति प्रेम लक्षणा ।
['सन्दर-सार से उद्धृत ] मीरों के जीवन पर विचार करने तथा उनके मधुर पदों का मनन करने पर जिस व्यक्ति की कल्पना की जा सकती है, वह प्रेम-लक्षणा के इस लक्षण से पूर्ण साम्य रखता है।
प्रेम के रस में मतवाली मीरों को इतना अवकाश ही न था कि वे कोई सम्प्रदाय स्थापित करती, अथवा शिप्य-मंडली बनाकर साधना और भक्ति का उपदेश करतीं । उनका सम्पूर्ण जीवन ही भक्ति का जीवन था, वे स्वयं भक्ति की साकार मूर्ति थीं, इसीलिए बिना किसी वंश अथवा शिष्य-परम्परा के अाज भी लोग उस देवा के प्रति अपनी श्रद्धांजलि प्रकट करते हैं और पश्चिमी भारत में आज भी एक समुदाय इस देवी को अाराध्य मानकर अपने को मीराबाई के पथ का पथिक मानता है।
एक आँख । 2. A small sect called 'Mirabais' acknowledging the leadership of the Rajput princess, is saib to be still in existence in Western India,
"The mystics' Ascentics and Saints of India by John Camp bell Oman (London J903) पृ० ३५, ९ से ११ लापन तक।
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