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उपसंहार
भारतीय साहित्य में प्रेम और त्याग की मूर्ति नारी के दो उच्चतम श्रादर्श मिलते हैं-- एक है जनककुमारी सीता और दूपरी बरसाने की वृषभान-दुलारी राधा । सीता का पति-प्रेम बहुत ही ऊँचा है, इतना ऊँचा कि देव-भक्ति और ईश-भक्ति भी उममें छिप जाते हैं। दूसरी ओर राधा का कृष्ण-प्रेम भी इतना ऊँचा है कि उसके सामने लौकिक पति-प्रेम की कोई सत्ता ही नहीं रह जाती। एक ने कर्म की कसौटी पर पति-प्रेम को कसा, दूसरे ने हृदय की सात्विक भावनाओं को संसार से समेट कर भगवान् की ओर मोड़ा; एक ने प्रम का अादर्श उपस्थित किया और दूसरे ने प्रेम-भक्ति का । मीराँबाई ने अपने जीवन में राधा के उच्च आदर्श की अभिव्यक्ति की । राधा ने अपना प्रेम और विरह उस वृन्दावन में प्रदर्शित किया था, जहाँ मधुवन मे 'ललित-लबंग-लतापरिशीलन कोमल मलय समीर' बहता रहता था; जहाँ मधुकर निकर करम्बित' कुंज-कुटीर में कोयल कूकती थी. जपाँ कलकल नादिनी कालिन्दी की श्याम धारा श्रीकृष्ण का स्मरण कराती थी, जहाँ भगवान कृष्ण के सखा गोप और गोपा रास रचा करते थे। परंतु मीरों ने अपना प्रेम और विरह मेड़ता और मेवाड़ के राजभवन में प्रकट किया था, जहाँ ईष्या और द्वेषका साभ्राज्य था, मानापमान और लोक-निन्दा का भय था, जहाँ विष की भीषण ज्याला में प्रेम
और भक्ति के परीक्षा देनी पड़ती थी। फिर भी अपनी उत्कट प्रेम भक्ति से मीराँ ने उस मरुभूमि को भी मधुमय बना दिया । इसीलिए तो मीराबाई को राधा का अवतार माना गया है।
भगवद्भक्तों में मीरौं अग्रगण्य हैं। इतनी उच्च कोटि की भक्ति पौराणिक युग में सम्भवतः रही हो, ऐतिहासिक युग में इस भक्ति की कोई उपमा ही नहीं । निगुण पंथ के विद्वान् कवि सुदरदास ने भक्ति की तीन श्रेणियाँ उत्तम, मध्य और कनिष्ठ निश्चित की है। इनमें उत्तम श्रेणी की पराभक्ति
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